जाने क्यों, काँप-सिहरते हुए,
एक भयद
अपवित्रता की हद
ढूँढ़ने लगता हूँ कि इतने में
एक अनहद गान
निनादित सर्वतः
झूलता रहता है,
ऊँचा उठ, नीचे गिर
पुनः क्षीण, पुनः तीव्र
इस कोने, उस कोने, दूर-दूर
चारों ओर गूँजता रहता है।
आर-पार सागर के श्यामल प्रसारों पर
अपार्थिव पक्षिणियाँ
अनवरत गाती हैं--
चीख़ती रहती हैं
ज़माने की गहरी शिकायतें
ख़ूँरेज़ किस्सों से निकले नतीजे और
सुनाती रहती हैं
कोई तब कहता है--
पक्षीणियाँ सचमुच अपार्थिव हैं
कल जो अनैसर्गिक
अमानवीय दिखता था
आज वही स्वाभाविक लगता है,
निश्चित है कल वही अपार्थिव दीखेंगे।
इसीलिए, उसको आज अप्राकृत मान लो।
सियाह समुन्दर के वे पाँखी उड़-उड़कर
कन्धों पर, शीश पर
इस तरह मँडराकर बैठते
कि मानो मैं सहचर हूँ उनका भी,
कि मैंने भी, दुखात्मक आलोचन -
-किरनों के रक्त-मणि
हृदय में रक्खे हैं।
पक्षिणियाँ कहती है--
सहस्रों वर्षों से यह सागर
उफनता आया है
उसका तुम भाष्य करो
उसका व्याख्यान करो
चाहो तो उसमें तुम डूब मरो।
अतल निरीक्षण को,
मरकर तुम पूर्ण करो।