shabd-logo

एक स्वप्न कथा / भाग 6 / गजानन माधव मुक्तिबोध

6 अप्रैल 2023

10 बार देखा गया 10

मुझे जेल देती हैं
 दुश्मन हैं स्फूर्तियाँ
गुस्से में ढकेल ही देती हैं।
भयानक समुन्दर के बीचोंबीच फेंक दिया जाता हूँ।
अपना सब वर्तमान, भूत भविष्य स्वाहा कर
पृथ्वी-रहित, नभ रहित होकर मैं
वीरान जलती हुई अकेली धड़कन... सहसा पछाड़ खा
चारों ओर फैले उस भयानक समुद्र की
(काले संगमूसा-सी चिकनी व चमकदार)
सतहों पर छटपटा गिरता हूँ
कि माथे पर चोट जो लगती है
लहरें चूस लेती हैं रक्त को,
तैरने लगते-से हैं रुधिर के रेशे ये।
इतने में ख़याल आता है कि
समुद्र के अतल तले
लुप्त महाद्वीपों में पहाड़ भी होंगे ही
उनकी जल खोहों तक जाना ही होगा अब।
भागती लहरों के कन्धों के साथ-साथ
आगे कुछ बढ़ता हूँ कि
नाभि-नाल छूता हूँ अकस्मात्।
मृणाल, हाँ मृणाल
जल खोहों से ऊपर उठ
लहरों के ऊपर चढ़
बनकर वृहद् एक
काला सहस्र-दल सम्मुख उपस्थित है,
उसमें हैं कृष्ण रक्त।
गोता लगाऊँ और
नाभि-नाल-रेखा की समान्तर राह से
नीचे जल-खोह तक पहुँचूँ तो
सम्भव है सागर का मूल सत्य
मुझे मिल जायगा।
अन्धी जल-खोहों में
क्यों न हम घूमें और
सर्वेक्षण क्यों न करें
फिरें-तिरें।
चाहें तो दुर्घटनाघात से
बूढ़ी विकराल व्हेल-पंजर की काँख में फँसें-मरें।

इतने में, भुजाएँ ये व्यग्र हो
पानी को काटती उदग्र हो।
अचानक खयाल यह आता है कि
काले संगमूसा-सी भयानक लहरों के
कई मील नीचे के एक
 वृहद नगर
भव्य.....
सागर के तिमिर-तले।
निराकार निराकार तमाकार पानी की
कई मील मोटी जो लगातार सतहें हैं
जहाँ मुझे जाना है।
इसीलिए, मुझे इस तमाकार पानी से
समझौता करना है
तैरते रहना सीमाहीन काल तक
मुझको तो मृत्यु तक
भयानक लहरों से मित्रता रखना है।
इतने में, हाय-हाय
सागर की जल-त्वचा थरथरा उठती है,
लहरों के दाँत दीख पड़ते हैं पीसते,
दल पर दल लहरें हैं कि
तर्कों की बहती हुई पंक्तियाँ, दिगवकाश-सम्बन्धी थियोरम या
ऊर्धोन्मुख भावों की अधःपतित
उठती निसैनियाँ!!

और,ये लहरें जिस सीमा तक दौड़तीं
जहाँ जिस सीमा पर खो-सी जाती हैं
वहीं, हाँ,
पीली और भूरी-सी धुन्ध है गीली सी
मद्धिम उजाले को मटमैला बादली परदा-सा
कि जिसके प्रसार पर
जुलूस चल पड़ते हैंदिक्काल
 

7
रचनाएँ
एक स्वप्न कथा
0.0
एक स्वप्न कथा के पूर्ण संकलन।
1

एक स्वप्न कथा / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध

6 अप्रैल 2023
0
0
0

एक विजय और एक पराजय के बीच मेरी शुद्ध प्रकृति मेरा 'स्व' जगमगाता रहता है विचित्र उथल-पुथल में। मेरी साँझ, मेरी रात सुबहें व मेरे दिन नहाते हैं, नहाते ही रहते हैं सियाह समुन्दर के अथाह पानी में

2

एक स्वप्न कथा / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध

6 अप्रैल 2023
0
0
0

सागर तट पथरीला किसी अन्य ग्रह-तल के विलक्षण स्थानों को अपार्थिव आकृति-सा इस मिनिट, उस सेकेण्ड चमचमा उठता है, जब-जब वे स्फूर्ति-मुख मुझे देख तमतमा उठते हैं काली उन लहरों को पकड़कर अँजलि मे

3

एक स्वप्न कथा / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध

6 अप्रैल 2023
0
0
0

जाने क्यों, काँप-सिहरते हुए, एक भयद अपवित्रता की हद ढूँढ़ने लगता हूँ कि इतने में एक अनहद गान निनादित सर्वतः झूलता रहता है, ऊँचा उठ, नीचे गिर पुनः क्षीण, पुनः तीव्र इस कोने, उस कोने, दूर-दूर

4

एक स्वप्न कथा / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध

6 अप्रैल 2023
0
0
0

मुझसे जो छूट गये अपने वे स्फूर्ति-मुख निहारता बैठा हूँ, उनका आदेश क्या, क्या करूँ? रह-रहकर यह ख़याल आता है- ज्ञानी एक पूर्वज ने किसी रात, नदी का पानी काट, मन्त्र पढ़ते हुए, गहन जल-धारा में

5

एक स्वप्न कथा / भाग 5 / गजानन माधव मुक्तिबोध

6 अप्रैल 2023
0
0
0

मेरे प्रति उन्मुख हो स्फूर्तियाँ कहती हैं - तुम क्या हो? पहचान न पायीं, सच! क्या कहना! तुम्हारी आत्मा का सौन्दर्य अनिर्वच, प्राण हैं प्रस्तर-त्वच। मारकर ठहाका, वे मुझे हिला देती हैं सोई हुई

6

एक स्वप्न कथा / भाग 6 / गजानन माधव मुक्तिबोध

6 अप्रैल 2023
0
0
0

मुझे जेल देती हैं  दुश्मन हैं स्फूर्तियाँ गुस्से में ढकेल ही देती हैं। भयानक समुन्दर के बीचोंबीच फेंक दिया जाता हूँ। अपना सब वर्तमान, भूत भविष्य स्वाहा कर पृथ्वी-रहित, नभ रहित होकर मैं वीरान जलत

7

एक स्वप्न कथा / भाग 7 / गजानन माधव मुक्तिबोध

6 अप्रैल 2023
0
0
0

स्तब्ध हूँ विचित्र दृश्य फुसफुसे पहाड़ों-सी पुरुषों की आकृतियाँ  भुसभुसे टीलों-सी नारी प्रकृतियाँ ऊँचा उठाये सिर गरबीली चाल से सरकती जाती हैं चेहरों के चौखटे अलग-अलग तरह के-- अजीब हैं मुश्किल

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए