निशब्द निशांत नीरव अंधकार की निशा में कुछ
शब्द बनकर मन में आ जाए,
जब हिरदय इस सृष्टि पर एक विहंगम दृष्टि कर जाये
भीगी पलके लिए नैनो में रैना निकल जाये
विचार पुष्प पल्लवित हो मन को मगन कर जाये
दूर गगन छाई तारों की लड़ी जो
रह रह कर मन को ललचाये
ललक उठे है एक ,मन में मेरे
बचपन का भोलापन फिर से मिल जायेमीठे सपने मीठी बातें था मीठा जीवन तबका
क्लेश कलुष बर्बरता का न था कोई स्थान वहां
थे निर्मल, निलिप्त द्वन्दो से, छल का नामो निशा ना था
निस्तब्ध निशा कह रही मानो मुझसे ,
तू शांति के दीप जला ् इंसा जूझ रहा
जीवन से हर पल उसको तू ढाढ़स बंधवा
निर्मल कर्मी बनकर इंसा के जीवन को
फिर से बचपन दे दे जरा