" मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम् । धियं घृताचीं साधन्ता । "
घृत के समान प्राणप्रद वृष्टि-सम्पन्न कराने वाले मित्र और वरुण देवों का हम आवाहन करते हैं। मित्र हमें बलशाली बनायें तथा वरुणदेव हमारे हिंसक शत्रुओं का नाश करें॥
हे घृत मुख वरुण देव
आच्छादित करते इस जग को,
हे घृत पृकृति के मित्र देव हे
सदा वरुण देव के साथी हे ।
प्रकृति नियन्ता प्राण नियन्ता
ऋत नियम के रक्षक तुरंता
हे वरुण ! हे विश्व नियन्ता ।
मित्र हमें पौरुष दो बल दो
संग रहो तुम वरुण देव के,
सब शत्रुन का नाश करो तुम
बन शत्रु मेरे शत्रुन के ।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "