अग्निना रयिम्श्र्न्वत्पोष्मेव दिवेदिवे । यशसं वीरवत्तमम् ॥
" अर्थात् जो अग्निदेव प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रशंसित हैं और जो आधुनिक काल में भी ऋषिकल्प वेदज्ञ विद्वानों द्वारा स्तुत्य हैं, वे अग्निदेव इस यज्ञ में देवों का आवाहन करें । "
इस श्लोक की व्याख्या स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती "आग्नेय-शतकम्" में करते हैं कि हम अग्नि द्वारा इस प्रकार का धन प्राप्त करें जो दिनों-दिन पुष्टि देनेवाला हो, यशोवर्धक हो तथा हमें वीरों से युक्त बनाने में सर्वश्रेष्ठ हो।
कहने का आशय यह है कि एक बार अग्निदेव को प्रसन्न कर लेने के बाद यदि हम कोई सद्कामना करते हैं तो अग्निदेव उस सद्कामना की पूर्ति में सहायता करते हैं । अग्निदेव द्वारा यज्ञ हेतु देवों का आवाहन और कुछ नहीं अपितु अग्निदेव की सद्कामना हेतु सहायक होने की याचना या प्रार्थना है । अब विचार करना होगा कि यह अग्निदेव कौन हैं । मेरे विचार से किसी सद्कार्य हेतु किया दृढ निश्चय ही वो अग्नि है जो उस कार्य के अभीष्ट हेतु सर्वाधिक आवश्यक तत्व है । ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त के प्रथम श्लोक में इसीलिए कहा गया है कि, मैं अग्नि की स्तुति करता हूँ। वे यज्ञ के पुरोहित , दानादि गुणों से युक्त , यज्ञ में देवों को बुलाने वाले एवं यज्ञ के फल रूपी रत्नों को धारण करने वाले हैं।
सद्कर्मों में सहायक हो
हे अग्नि ! , हे पावक हो ! ,
निश्चय करें तो अटल हो
जो अभीष्ट का साधक हो ।
हे निश्चय दृढ! तुम्ही अनल हो
तुमसे ही अचल सचल हो,
तभी पूजते आदि आधुनिक
तुम देवों का आवाहन हो ।
प्रथम ऊर्जा वैश्वानर हो,
चलने पर पहला पग हो,
मार्ग कठिन या रहे असंभव
तुमसे हो तब ही तो संभव हो ।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "