अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः । देवो देवेभिरा गमत्॥
" हे अग्निदेव ! आप हवि -प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप युक्त हैं । आप देवों के साथ इस यज्ञ में पधारें॥"
इस श्लोक के अनुसार अग्नि प्रज्वलित कर लेने से अर्थात दृढ निश्चय कर लेने से यज्ञ अर्थात सत्कार्य की प्रेरणा मिलती है । और इस प्रेरक शक्ति के वशीभूत सभी कर्म हैं जिसको ज्ञान से संयुक्त कर देने से असंभव भी प्राप्य हो जाता है।
हे अग्नि तुम ईश्वर सम हो,
बल्कि तुम्हीं तो वो ईश्वर हो,
करो प्रकाशित वो गुण तुमसे
तुम्हीं दिव्यता का सुख हो ।
सत्कार्य करें तो तुम प्रेरक हो,
सभी कर्मों के उत्प्रेरक भी हो,
सत्कर्मों से ज्ञान की युति जब हो,
असंभव भी तब तो संभव हो ।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम् "