" वायो तव प्रपृञ्चती धेना जिगाति दाशुषे । उरूची सोमपीतये । "
हे वायुदेव ! आपकी प्रभावोत्पादक वाणी, सोमयाग करने वाले सभी यजमानों की प्रशंसा करती हुई एवं सोमरस का विशेष गुणगान करती हुई, सोमरस पान करने की अभिलाषा से दाता (यजमान ) के पास पहुँचती है।
सोमयाग के सारे साधक
लेते सोमरस का जब रस,
सोमरस के गुणों का वर्णन
भाता अधिक आपके श्रीमुख ।
ये वाणी जब साधक तक पहुँचे
प्रभाव आपकी वाणी का पहुँचे,
होयँ आनंदित साधक इस सुख से
कि सोमयाग रस तुम तक पहुँचे ।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "