यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत्तत्सत्यमङ्गिरः॥
हे अग्निदेव ! आप यज्ञ करने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओं की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते हैं, वह भविष्य में किये जाने वाले यज्ञों के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है॥
इस श्लोक में ईश्वर की उपासना करके उसके सामर्थ्य का गुणगान किया गया है। मेरे अनुसार इस श्लोक में ईश्वर के स्वरुप को विराट स्वरुप माना गया है और इस उपासना में ईश्वर से कहा जा रहा हैं कि सत्कार्य सिद्धि हेतु किये गए यज्ञ के फल से ईश्वर भी लाभान्वित होता है, क्योंकि जगत के कल्याण में ईश्वर को अत्यधिक प्रसन्नता होगी। अंततः सँसार का कल्याण होने का मतलब ईश्वर की प्रसन्नता है क्योंकि इस सँसार को स्वयं ईश्वर ने ही तो धारण किया हुआ है और यही कारण हैं कि इस सँसार की यथावत स्थिति बनी रहती है और ईश्वर इसकी रक्षा कर इसे सत्कार्य जैसे यज्ञं के माध्यम से रक्षा करने से प्रसन्ना होकर यथावत रखते हैं। जिस प्रकार अपने शरीर की रक्षा से हमें प्रसन्नता प्राप्त होती है और अपने लिए किये सत्कार्य वापस आकर हमें ही प्रसन्न करते हैं उसी प्रकार यह संसार है ईश्वर के लिए। अतः यज्ञकर्ता को जो भी फल प्राप्त होते हैं वो ईश्वर के पास ही पहुँच जाते हैं। अग्नि ही ईश्वर रूप है। या कह लें की दृढ निश्चय ही ईश्वर हैं, प्रबल सत्कार्य कामना उस ईश्वर को प्राप्त करने की एक प्रक्रिया है। तो जब हम अपना भला कर रहे होते हैं तो ईश्वर कको भी प्रसन्न कर रहे होते हैं। शायद इसीलिए कहा गया है कि प्रत्येक प्राणी ईश्वर का अंश होता है।
हे अग्नि रूप ईश्वर ये सुन लो,
न्याय, दया, कल्याण, मित्र हो,
यज्ञ प्रयोजन भी तो तुम हो,
और यज्ञ के फल भी तुम हो ।
जो कल्याण करो इस जग का,
धारित ये जग कर अन्तर्यामी हो,
इसीलिए जो भी सत्कृत फल हो,
हे अग्नि तुम ही लाभान्वित हो ।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"