अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि । स इद्देवेषु गच्छति॥
" हे अग्निदेव ! आप सबका रक्षण करने में समर्थ हैं । आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते हैं, वही यज्ञ देवताओं तक पहुँचता है॥"
मेरे अनुसार इस श्लोक का आशय है कि यदि तुम (अग्नि या ईश्वर) किसी यज्ञ को चारों ओर से घेर कर रखते हो अथवा अपने संरक्षण में रखते हो तो वह यज्ञ देवताओं तक पहुँच जाता है अथवा सफल हो जाता है । यहाँ पर ईश्वर द्वारा अथवा अग्नि द्वारा यज्ञ के सफल होने के लिए संरक्षण क्यों संभव है, क्योंकि दृढ निश्चय को यहाँ पर अध्वर होने की बात कही गई है। अर्थात वो यज्ञ या सद्कामना जिसके लिए वह दृढ निश्चय या संकल्प किया गया है, उसे पवित्र होना चाहिए । हिंसारहित होने का अर्थ ही है कि यज्ञ बहुत ही पवित्र के अभीष्ट हेतु है, अर्थात् उस यज्ञ की संकल्पना एक अच्छे कार्य के सम्पादन हेतु की गई है । ऋग्वेद के अग्नि सूक्त के इस चतुर्थ श्लोक का भावार्थ मेरे अनुसार यही हुआ कि यदि किसी सत्कार्य हेतु कोई निश्चय किया जाए तो उसकी सफलता की तभी निश्चितता होती है ।
पहले तो दृढ निश्चय हो,
फिर कामना प्रबल हो,
लक्ष्य रखो सत्कार्य यदि तो
निश्चित ही जय हो, जय हो ।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"