हे अग्नि देव तुम्हें नमन हो
हो यज्ञ के पुरोहित तुम हो
हवि साधन दान के धन हो
देवों के आवाहन तुम हो
यज्ञ फल रत्न धारक भी हो
हे अग्नि देव तुम्हें नमन हो
ज्ञानार्जन करते वो ऋषि हैं
ज्ञान दान करते वो ऋषि हैं
बने उदाहरण आगे चलते
प्रेरणास्पद पथ सत्य का धरते
दीपक ज्ञान जलाएं वो ऋषि हैं
वो विद्युत जगती जिस ह्रदय
अन्वेषण को जो तत्पर है
पूर्व ज्ञान को कर प्रयोग जो
कुछ खोजे नवीन वो ऋषि है
अग्नि उपासक ईश् उपासक
अर्हक दोनों, दोनों ही ऋषि हैं
अग्नि उपासक हैं वो ऋषि हैं
सद्कर्मों में सहायक हो
हे अग्नि ! , हे पावक हो ! ,
निश्चय करें तो अटल हो
जो अभीष्ट का साधक हो ।
हे निश्चय दृढ! तुम्ही अनल हो
तुमसे ही अचल सचल हो,
तभी पूजते आदि आधुनिक
तुम देवों का आवाहन हो ।
प्रथम ऊर्जा वैश्वानर हो,
चलने पर पहला पग हो,
मार्ग कठिन या रहे असंभव
तुमसे हो तब ही तो संभव हो ।
पहले तो दृढ निश्चय हो,
फिर कामना प्रबल हो,
लक्ष्य रखो सत्कार्य यदि तो
निश्चित ही जय हो, जय हो ।
हे अग्नि तुम ईश्वर सम हो,
बल्कि तुम्हीं तो वो ईश्वर हो,
करो प्रकाशित वो गुण तुमसे
तुम्हीं दिव्यता का सुख हो ।
सत्कार्य करें तो तुम प्रेरक हो,
सभी कर्मों के उत्प्रेरक भी हो,
सत्कर्मों से ज्ञान की युति जब हो,
असंभव भी तब तो संभव हो ।
हे अग्नि रूप ईश्वर ये सुन लो,
न्याय, दया, कल्याण, मित्र हो,
यज्ञ प्रयोजन भी तो तुम हो,
और यज्ञ के फल भी तुम हो ।
जो कल्याण करो इस जग का,
धारित ये जग कर अन्तर्यामी हो,
इसीलिए जो भी सत्कृत फल हो,
हे अग्नि तुम ही लाभान्वित हो ।
एक नहीं, सत-सहस्त्र नेत्र हैं,
कोटि-कोटि कर्मों के साक्ष्य हैं,
अग्नि साक्षी है तभी तो पवित्रतम,
सत्कार्यों से भटके न लक्ष्य हैं ।
ईश्वर का ही रूप सत्य है,
सत्कर्मों में बृद्धि स्वरुप है,
सत्प्रयासों के रक्षक हैं,
उस आलोक में आलोकित हम हैं ।
हे जगतपिता, रहो साथ हमारे
जैसे हो तुम पिता हमारे,
पितृ-सदृश्य ही कल्याण करो तुम,
हर पल, हर दिन साथ रहो तुम,
सद्गुणों से हों ओत-प्रोत हम,
सत्कर्मों की राह चलें हम,
उँगली पकड़ो पिता के जैसे,
कहो भला फिर भटकें कैसे,
मैं प्यासा यदि तुम पनघट हो,
तुम हरपल यदि मेरे निकट हो।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"