एक नौ वर्षीय बालक काशी के मणिकर्णिका घाट की सीढ़ियों पर बैठा हुआ था | उसकी आँखों से निकले हुए आंसू जो आग की गरमाहट से सूख से गए थे लेकिन उसका हृदय अभी भी विचलित था | घाट पर जल रही अनेकों चिताओं से निकल रही अग्नि मानो उस बालक से अपना रिश्ता पूछ रही हों |
बालक भी आग की लपटों में कुछ स्मृतियों को देख रहा था उसकी आँखों के सामने अपनी माँ की छवि दिख रही थी जिसे उसने खुद अपने हाथों से मुखाग्नि दी थी | एक पंडित जी जो उस बालक की मनोस्थिति से भली भांति परिचित थे हताश भाव से ऊपर आकाश की तरफ देखते हुए बोले की " हे ईश्वर ! एक हस्ते खेलते बच्चे के साथ समय ने ना जाने कैसी लीला रची कि वह एक दिन में असहनीय दुखों को जानने लगा" |
तभी पंडित जी के एक शिष्य ने उनसे पूछा गुरु जी इस बच्चे के साथ ऐसा क्या हुआ है जो यह इस प्रकार से यहाँ अकेला बैठा है ? पंडित जी बोले :ये बच्चा पास में ही रहता है और ये शुरू से चंचल स्वभाव का था | तीन दिन पहले ही इस बच्चे की माँ का देहांत हुआ है और मैंने खुद ही उसकी माँ की अंतिम क्रिया की सभी विधियां करवाई थी| उस दिन भोर ही इसकी माँ ने प्राण त्यागे थे सारे घर में कोहराम मचा था और इन सब से अनजान यह बालक अपनी नींद पूरी करके उठा और आँखें मसलकर अपनी माँ को इधर उधर ढूंढ रहा था | जब इस बालक ने सारे घर के सदस्यों को देखा तो उसे समझ तो आ गया था कि कुछ ऐसा हुआ है जो नहीं होना था लेकिन वह फिर भी पहले अपनी माँ की झलक देखना चाहता था | और जब उसने अपनी माँ को मृत अवस्था में देखा तो वह समझ नहीं पाया कि आखिर हुआ क्या है वह स्तब्ध रह गया | उसको पता तो चल गया था की उसकी माँ उसको अब छोड़ कर जा चुकी है लेकिन वह फिर भी एक आस लगाकर बैठा था की माँ थोड़ी देर में इधर उधर से वापस आ जाएगी |
उस दिन अंतिम संस्कार के समय भी यह बालक अपनी माँ को ही ढूंढ रहा था मानो उसकी आँखें उसके सामने रखे उसके माँ के शव को अनदेखा कर रही थी | उसके परिवार के बड़े ही कठोर शब्दों से बोलने पर वह मुखाग्नि देने को माना क्युकि सब यही चाहते थे की वह किसी भ्रम न रहे और वास्तविकता से भली भांति परचित रहे |
उसके बाद यह बालक प्रतिदिन यहाँ घाट पर आकर अपनी माँ के छोड़ जाने की वास्तविकता को अपनाने का प्रयास कर रहा है माना इसकी यह उम्र इतने बड़े परिवर्तन को इतनी जल्दी स्वीकार नहीं कर सकती लेकिन इस परिवर्तन को झुटलाया भी नहीं जा सकता |
शिष्य ने कहा तो गुरु जी क्या हम उसको समझा नहीं सकते की जो हुआ है वह ही सत्य है | पंडित जी बोले : हम सिर्फ कोशिश ही कर सकते हैं लेकिन अच्छा होगा कि ये फैसला वो खुद ले कि इस परिवर्तन को अपनाता है या नहीं लेकिन सत्य नहीं बदलेगा इस बात को जितना जल्दी खुद समझेगा वह तभी इस परिवर्तन में खुद को ढाल पायेगा |
पंडित जी ने गुरु के भांति अपने शिष्य को उपदेश दिया कि
परिवर्तन होना स्वभाविक और अनिवार्य है हमें इसको प्रत्येक स्तिथि में मानना ही होगा तो यही फैसला करना कि जितनी जल्दी उसके अनुकूल अपने आपको ढाल लेना |