राजमोहन गाँधी
... क्योंकि अपने प्रति लापरवाही के लिए कश्मीरियों को अगर बाक़ी दुनिया को (हमें) शर्मिंदा करना है तो उन्हें कोई नया तरीक़ा अपनाना होगा, एक ऐसा तारीक़ जो उग्रवादी इस्लाम और हिंसा से परे हो...
इस संबंध में जिन बिंदुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए वो बिंदु, हो सकता है कि, कश्मीर के सन्दर्भ में, किसी न किसी को विवादास्पद लगें, लेकिन मेरे नज़दीक ये निर्विवाद हैं.
1. पहली बात, कश्मीरियों द्वारा शासित होने की सहमति या उनकी पसंद के आधार पर भारत कश्मीर में शासन नहीं कर रहा है.
2. दूसरी बात ये कि प्रदर्शन के दौरान कश्मीरियों का घायल होना, ज़ख़्मी होना और मौत हो जाना, पूरी दुनिया में भारत की छवि खराब कर रहा है.
3. तीसरी अहम बात, लगता नहीं कि भारतीय जनमानस कश्मीर को त्याग देने की किसी भी सोच पर (कम से कम निकट भविष्य में) राज़ी होगा, तब भी नहीं जब दिल्ली में बैठी, कोई भी, सरकार इस समस्या पर खुला दिमाग़ रखती हो. ऐसे किसी भी प्रयास में भारतीय जान-मानस उस सरकार के हाथ बाँध देगा.
4. कश्मीर की इस समस्या में, कश्मीर घाटी ही विषय के केंद्र में है, जम्मू और लद्दाख क्षेत्र का बहुमत, भारत से अलग-थलग नहीं है.
5. पाँचवीं बात, जिस यथार्थ की दुनिया में हम रहते हैं वहाँ आत्मनिर्णय या स्वतंत्रता अपने पूर्ण रूप में कहीं भी विद्यमान नहीं है. यहाँ तक कि बड़े और विकसित देश भी अपनी मर्ज़ी से बहुत कुछ नहीं कर सकते. एक आज़ाद कश्मीर की कल्पना तो की जा सकती है लेकिन यथार्थ से बहुत परे ये केवल एक नाम भर होगा. व्यवहार में कश्मीर कभी भी सफलतापूर्वक, भारत या पाकिस्तान से, अलग नहीं हो सकता.
6. छटा बिंदु, जबकि पाकिस्तान, कश्मीर पर अपना हक़ जताता है क्योंकि वहाँ मुस्लिम बहुतायत है तो यही बहुतायत भारत के कश्मीरी-बंधन का भी आधार है. जब 1940 के दशक के अंत में कश्मीरियों ने शेख अब्दुल्ला की अगुआई में पाकिस्तानी आक्रमण का विरोध किया और भारत के साथ विलय में तत्परता दिखाई तो उनका स्वागत इस बात के लिए हुआ था की ये लोग 'दो-राष्ट्र' सिद्धांत के विरोधी हैं. यह एक अपवाद ही है की भारतीय, कश्मीर की ज़मीन पर तो अपनी पकड़ रखना चाहते हैं लेकिन कश्मीरियों के प्रति, ख़ासतौर पर बहुलता वाले मुस्लिम कश्मीरियों के प्रति, कोई ख़ास लगाव या भावना उनमें नहीं है.
7. इस्लाम की कट्टरपंथी विचारधारा, कश्मीर में अलगाववाद का कारण नहीं है लेकिन वो इस स्थिति से लाभ उठाने के लिए अधीर हैं.
8. कश्मीर समस्या पर यदि भारत और पाकिस्तान ईमानदारी के साथ किसी समझौते पर पहुँच सकें तो शायद कश्मीरियों को ये मंज़ूर हो सकता है लेकिन पाकिस्तान की राजनैतिक असलियत को देखते हुए ऐसा कोई भी समझौता होता नज़र नहीं आता, कम से कम निकट भविष्य में तो बिल्कुल नहीं.
9. बहुत हद हुई तो, वर्तमान में शायद सिर्फ़ यही आशा की जा सकती है कि नई दिल्ली और कश्मीरियों के एक संयुक्त सियासी दल के बीच कोई समझौता हो जिसके फलस्वरूप कश्मीर में एक ठोस और वास्तविक स्व-शासन क़ायम कर लिया जाए. ज़ाहिर है कि पाकिस्तानी ताक़तें एवम् भारतीय तथा कश्मीरी तत्व अपना पूरा ज़ोर लगा देंगे कि ऐसा कोई समझौता न हो, इसलिए इन कोशिशों को कमज़ोर किया जाएगा, लेकिन ऐसी ताक़तों और ऐसे तत्वों पर काबू पाया जा सकता है.
किसकी संभावना ज़्यादा कम है? नई दिल्ली के पास किसी समझौत तक पहुँचने की मर्ज़ी या कश्मीर की इच्छा? अंदाज़ा थोड़ा मुश्किल है.
अगर भारत विश्व में अपनी छवि के लिए गंभीर है, एक महत्वपूर्ण वैश्विक खिलाड़ी होने का उसे एहसास है, और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में वह स्थाई सदस्यता की अपनी चाह पूरी करना चाहता है तो उसे वास्तविक प्रतिनिधियों के साथ किसी समझौते तक पहुँचने के लिए एक इच्छा पैदा करनी होगी. अगर कश्मीरी गंभीरता से अपने बच्चों के लिए एक सभ्य भविष्य की चाहत रखते हैं तो उन्हें भी, अब तक जो किया उससे अलग, अपने ऊपर हुई ज़्यादितियों और अपनी आज़ादी की माँग के लिए, नये तरीकों को खोजना होगा, जो इस्लामी उग्रवाद और हिंसा से परे हों. इसके लिए उन्हें अपने संयुक्त नेतृत्व के साथ आगे आने की आवश्यकता होगी.
यदि ऐसा हुआ कि, अहिंसक प्रदर्शन की खबरें कश्मीर से सुर्खिया बनकर आने लगें और एक संयुक्त राजनीति क दल कश्मीरियों की समस्याओं के लिए बातचीत करने लगे तो भारतीय जान-मानस स्वयम् नई दिल्ली को मजबूर कर देगा कि वह कश्मीरियों के साथ उदार शर्तों पर बातचीत करे.
इतिहास के पन्नों में, ऐसा कोई भी हिंसक विद्रोह या बग़ावत, जो बहुमत की ताक़त के विरोध में उठा हो, उत्साहजनक नहीं रहा है, बल्कि पराजित हुआ है, इसने और अधिक दमनात्मक कार्यवाहियों को आमंत्रित किया है, और फलस्वरूप विद्रोहियों और उनके परिवारों को और ज़्यादा यातनाओं का शिकार होना पड़ा है. 1857 में ऐसा ही अनुभव भारत में देखने को मिला. ऐसा ही कुछ पूरी 20वीं शताब्दी में, अफ्रीका में दिखाई दिया. इन सभी उदाहरणों में, विद्रोहियों की मूर्खता ने राज्य सत्ता को और बलशाली बना दिया. समकालीन फ़िलिस्तीन भी इसी इतिहास की पुष्टि करता है, और यही हाल पिछले कई दशकों से कश्मीर का है.
ऐसे में सवाल उठता है कि कश्मीर (या तिब्बत और फ़िलिस्तीन) के लिए रास्ता क्या है. अपने कृत्यों से भारतीय जान-मानस (या चीनी अवाम और इज़राइलियों) को क्रोधित मत करो. इसके उलट विद्रोहियों का आचरण ऐसा हो कि सामने वाले को अपनी ज़्यादितियों और लापरवाहियों पे खुद शर्म आए.
हिंसा को त्यागना, तुम्हारा अपने सपनों के साथ विश्वासघात क़तई नहीं है. एक शांत चेहरे पर ज़ाहिर होने वाली अस्वीकारिता से ताक़तवर कोई दूसरी नामंज़ूरी नहीं हो सकती. सच्चाई की जीत पर यक़ीन एक ऐसा हथियार है जिसका मुक़ाबला कोई दूसरा हथियार नहीं कर सकता. क्या कश्मीरियों में ऐसे प्रतिरोध की अभिलाषा दिखाई देती है?
भारतीयों को भी अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को सुनते हुए अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या वो, 2047 निकट है, लगभग 100 वर्ष तक कश्मीर में बलपूर्वक शासन करते रहने पर, खुद को गर्वान्वित महसूस करते हैं?
(इस लेख के लेखक महात्मा गाँधी के पौत्र हैं तथा 'सेंटर फॉर साउथ एशियन एंड मिडिल ईस्ट स्टडीज़' में रिसर्च प्रोफेसर हैं.)