सोशल मीडिया पर कई दिनों से एक कोट देख रहा था, जिसे यूजर्स खूब शेयर भी कर रहे हैं. इसमें लिखा है:
"पूरी कायनात लगी है एक शख़्स को झुकाने में
ख़ुदा ने किस मिटटी का इस्तेमाल किया होगा मोदी को बनाने में."
देश में पिछले दिनों से अजीब सी हलचल मची हुई है, जो देखने में बहुकोणीय लगती है, किन्तु घूम फिरकर उसका निशाना जनता द्वारा सीधे चुने गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ही लगता है! जी हाँ, हमारे देश में वैसे तो पहले सांसद चुने जाते हैं, जो अपने प्रधानमंत्री का चुनाव करते हैं, लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी का चुनाव लगभग सीधा ही हुआ था. उनकी ही लोकप्रियता से कई ऐसे लोग भी जीत गए, जिन्होंने सीधा चुनाव तक नहीं लड़ा था. हालाँकि, नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने को लेकर भाजपा में भी जमकर बगावत हुई थी, किन्तु जनता का दबाव सर्वोपरि साबित हुआ था. विरोध का मामला कुछ दिनों के लिए दब जरूर गया, किन्तु हाल के दिनों में कुछ ऐसे ऊंटपटांग मामले सामने आये हैं, जो षड्यंत्र के बड़े जाल की ओर इशारा करते हैं. प्रबंधन में कुछ बड़ी खामियां पैदा हो रही हैं अथवा की जा रही हैं, जिसका ठीकरा अंततः मोदी गवर्नमेंट पर फोड़ा जा रहा है. ऊपर से आंकलन करने वाले बड़ी आसानी से कह दे रहे हैं कि राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री ने शायराना अंदाज में कांग्रेस पर हमला बोला है, किन्तु नरेंद्र मोदी के इस अंदाज-ए-बयां के निहितार्थ कहीं ज्यादे गहरे हैं. मशहूर शायर निदा फाजली की गजल के शेर कहते हुए पीएम ने कहा कि 'यहां किसी को कोई रास्ता नहीं देता, मुझे गिराकर अगर तुम संभल सको तो चलो.'
राजनीतिक सूझबूझ के गहरे खिलाड़ी, भाषण में परिपक्व प्रधानमंत्री ने आखिर 'खुद को गिराने' की बात यूं ही नहीं कही होगी. बात अगर विपक्ष की करें तो कांग्रेस सहित दुसरे विपक्षियों की संसद में इतनी राजनीतिक ताकत ही नहीं है कि उनसे प्रधानमंत्री को किसी तरह का कोई खतरा हो सके! बल्कि, पीएम और जेटली ने तो मात्र दो-एक दिन पहले ही राहुल गांधी की समझ तक पर प्रश्न उठा दिए थे. कहीं पीएम का इशारा अपनों की ओर तो नहीं है? कई मामलों और राजनीतिक गलियारों की उठापठक पर बारीक निगाह रखने से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है. बिहार चुनाव के बाद मोदी के करीबी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के पर जहाँ कतरे हुए नज़र आ रहे हैं, वहीं प्रशासन और राजनीतिक मुद्दों पर मोदी सरकार के कई यूटर्न लेने से मामला बिगड़ा है. आम बजट को ही देख लीजिये, इसमें कई अच्छी बातों को शामिल करने के बाद भी ईपीएफ (कर्मचारी भविष्य निधि) पर टैक्स लगाने की बात कही गयी और फिर उसे रोल बैक किया गया. सरकार ने बजट के दौरान ईपीएफ़ से पैसा निकालते समय उसके 60 फ़ीसदी हिस्से पर कर लगाने की घोषणा की थी, जिसका व्यापक विरोध हुआ. अरुण जेटली के बारे में यह कहा जा सकता है कि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा है और एक बार लड़े भी तो वह हार गए, और प्रधानमंत्री ने बजट में ज्यादे किन्तु-परन्तु करना ठीक नहीं समझा होगा, किन्तु वित्त मंत्रालय के अधिकारियों और उससे बढ़कर भाजपा और अनुभवी मंत्रिमंडल की सक्षम टीम द्वारा इसका राजनीतिक फीडबैक नहीं समझना आश्चर्यचकित करता है. आश्चर्य देखिये कि इसी बीच खबर आती है कि राजनीतिक विरोधी अरविन्द केजरीवाल पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा से बजट की बारीकियों पर सलाह लेने जा रही है. बजट से आगे बढ़ते हैं तो रक्षा बजट में कटौती भी एक बड़ा मुद्दा है, जो सेना के हितों पर विपरीत प्रभाव डाल सकता है तो राजनीतिक रूप से भी विपक्षी इसे मुद्दा बनाएंगे ही. इन सबसे बड़ी जो चूक मानी जा रही है वह जेएनयू के मामले में कन्हैया की गिरफ्तारी और उसकी रिहाई को लेकर सामने आयी है.
विश्लेषक इस मामले में खुलकर कह रहे हैं कि इस मामले में दिल्ली पुलिस ने पहले गिरफ़्तारी में जल्दबाजी दिखाई तो बाद में अदालत ने पुलिस की दलीलों से असंतुष्ट होकर उसे ज़मानत भी दे दी. ज़मानत के बाद कन्हैया के हीरो बनने से लेकर सेना तक पर ऊँगली उठाने को लेकर लोग आक्रोशित हैं. लोग पूछ रहे हैं कि सबूतों के अभाव में कन्हैया को गिरफ्तार क्यों किया गया और जब उसे गिरफ्तार कर ही लिया गया तो फिर उसे इतनी जल्दी ज़मानत कैसे मिल गयी? अब साफ़ है कि यह सब फैसले मोदी तो करते नहीं हैं, लेकिन उन्हें बदनामी ज़रूर मिल जाती है. शायद इसी बदनामी की ओर इशारा करते हुए पीएम ने राज्यसभा में अपनी टीस बाहर निकाली, किन्तु क्या उनके इर्द गिर्द के लोगों पर इसका असर पड़ेगा, यह बात देखने वाली होगी! कोढ़ में खाज वाली एक और बात सामने निकलकर आयी है, जिसको लेकर केंद्र सरकार और श्री श्री रविशंकर पर कड़े सवाल खड़े किये जा रहे हैं. पहले तो श्री श्री रविशंकर के शब्दों में उनको बधाइयां मिलनी चाहिए कि उन्होंने भारत और शेष विश्व पर अहसान स्वरुप 'विश्व महोत्सव' करने का उपकार किया, किन्तु वह और उनकी आध्यात्मिक बिरादरी में पर्यावरण से जुड़े कुछ लोग जरूर होंगे, जिन्हें इस कार्यक्रम की जगह और पर्यावरणविदों की चिंताओं पर विचार करना चाहिए था! इस कार्यक्रम को लेकर कहाँ, क्या गड़बड़ हुई यह तो खुलकर सामने नहीं आ सका है, किन्तु एनजीटी द्वारा आखिरी समय में गंभीर आपत्तियां दर्ज करना और 5 करोड़ का जुर्माना लगने के साथ-साथ केंद्र सरकार की साख पर भी सवाल उठे हैं. सेना द्वारा इस कार्यक्रम के लिए पुल के निर्माण का मुद्दा तो राज्यसभा तक में उठा और अंततः यह मुद्दा राजनीतिक बन कर मोदी पर आकर टिक गया है. अरे भई! मोदी ने थोड़े ही रविशंकर को कहा है कि यमुना के बाढ़-क्षेत्र में आकर कार्यक्रम करें, किन्तु एक तो उनके तथाकथित समर्थकों की बुद्धि और दुसरे नौकरशाही और मंत्रालय स्तर तक के तालमेल में गड़बड़ी ने खेल ख़राब करने में कसर नहीं छोड़ी है.
अब कार्यक्रम अच्छा हो बुरा हो, इसकी बजाय सवाल पर्यावरण हितों पर आकर टिक गया है और 5 करोड़ का जुर्माना लगने से इसकी नैतिकता खुद ही कठघरे में आ खड़ी हुई है. राष्ट्रपति महोदय तो खुद ही इंकार कर चुके हैं इस कार्यक्रम में आने से लेकिन मोदी की मजबूरी देखिये कि वह 'इंकार' भी नहीं कर सकते! हमेशा की तरह प्रशासनिक और राजनीतिक खामी... ! इसी क्रम में, यही कुछ हाल जाट आंदोलन को लेकर हरियाणा में हुआ, जिसमें खट्टर सरकार गिरते-गिरते बची तो कानून-व्यवस्था को लेकर राज्य और केंद्र दोनों की कड़ी किरकिरी हुई. बड़े सवाल उठे कि इंटेलिजेंस और राजनीतिक ज़मात आखिर कर क्या रही थी तब! कांग्रेस परिस्थितियों का लाभ लेने में पीछे क्यों रहे भला, इसलिए हिमाचल के सीएम ने भारत-पाकिस्तान के ट्वेंटी-ट्वेंटी मैच को धर्मशाला से स्थानांतरित ही करा दिया, मोदी की जो बजे सो बजे! सहिष्णुता, गाय आदि पर विवादित बोल बोलने वालों को जैसे-तैसे मोदी ने चुप कराया कि फिर राजनीतिक और प्रशासनिक षड्यंत्रों की श्रृंखला सी शुरू हो गयी. हिंदी फिल्मों का एक गीत है कि 'मिले दोस्त जिसको यहाँ तेरे जैसा, उसे दुश्मनों की जरूरत ही क्या है'... मन में इस गीत का भाव मोदी जरूर संजो रहे होंगे, किन्तु व्यक्त करने का अधिकार भला उन्हें है क्या?
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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