संघ के निक्कर और पतलून की खूब चर्चा है. आम लोगों के साथ बड़े-बड़े विश्लेषक इसकी परतें निकालने में लगे हुए हैं कि क्या संघ बदल रहा है? क्या संघ अपनी लाठी भी छोड़ेगा.. बला, बला... इस बात में कोई दो राय नहीं है कि संघ इसके समर्थकों और विरोधियों दोनों के लिए ही महत्वपूर्ण मसला है. देश में ही नहीं, वरन विदेशों तक में भी इसको लेकर दो अलग राय मौजूद हैं. विश्व के इस सबसे बड़े संगठन को कोई रूढ़िवादी कहता है तो कोई अतिवादी तो कोई हिंदूवादी या राष्ट्रवादी, किन्तु इसकी कार्यपद्धति को करीब से जानने वाले इस बात को भी जानते हैं कि यह परिवर्तनशील और 'यथार्थवादी' संगठन कहीं ज्यादा है. पिछले दिनों जब जम्मू कश्मीर में मुफ़्ती के साथ मिलकर भाजपा ने सरकार बनाई तो पुराने दक्षिणपंथियों को अपने पूर्वज श्यामा प्रसाद मुखर्जी की याद जरूर आयी होगी, जिन्होंने इस राज्य को भारत की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए 23 जून 1953 को श्रीनगर में अपना बलिदान कर दिया था. धारा 370 को लेकर संघ से जनसंघ और भाजपा का पूरा राजनैतिक इतिहास भरा पड़ा है, किन्तु तत्कालीन परिस्थिति यही थी कि भाजपा इसकी जिद्द छोड़कर सरकार में शामिल हो. कुछ लोगों के लिए यह सत्ता का लोभ हो सकता है, किन्तु संघ के लिए यह वर्तमान हालात के अनुसार लिया गया यथार्थवादी निर्णय था. मुझे यह स्वीकारने में किसी प्रकार का संकोच नहीं है कि भाजपा और संघ की विचारधारा लगभग एक ही है, विशेषकर कोर मुद्दों पर, किन्तु इनका आपस में दूरी बनाना इसलिए भी अनिवार्य रहा है ताकि सत्ता के राजरोग से कम से कम एक संगठन तो मुक्त रहे.
अब कोई 100 फीसदी शुद्ध हो इसकी गारंटी तो कोई भी नहीं दे सकता, किन्तु संघ के प्रचारक और कार्यकर्त्ता अपेक्षाकृत राष्ट्रीय मुद्दों से प्रेरित होते हैं, इस बात से शायद ही कोई बुद्धिजीवी या सेक्यूलर इंकार करे. कुछ लोग राष्ट्रीय मुद्दों को हिंदूवादी मुद्दे कह सकते हैं, किन्तु 21 वीं सदी से पहले यह दोनों मुद्दे अलग कहाँ थे? आखिर देश का विभाजन 'धर्म' के ही तो आधार पर हुआ था, फिर कोई यह उम्मीद किस आधार पर कर सकता है कि तत्कालीन यथार्थ को संघ छोड़ देता? इस क्रम में इतिहासकार रामचंद्र गुहा जैसों का यह कहना कि देश में दक्षिणपंथी बौद्धिकों का घोर अकाल है, अपने आप में आश्चर्यजनक है. आखिर, यथार्थ पर चलना उचित है कि 'बौद्धिक विलासिता' के जाल में फंसना और दूसरों को फंसाने से राष्ट्र का भला हो सकता है? गुहा ने अपनी टिप्पणी में आगे भी कहा कि 'उन आरोपों में कुछ हद तक सत्य है कि वामपंथियों की विश्वविद्यालयों में पैठ बनी, क्योंकि दक्षिणपंथ वहां बेहतर लोग नहीं पहुंचा पाता'. यह कहते हुए गुहा यह भूल गए कि कांग्रेस ने अपने विरोध की धार कुंद करने के लिए इन लोगों को मलाईदार पदों पर नियुक्त किया और इनकी सारी वैचारिकता सत्ता की मलाई तक सिमट कर रह गयी. अगर ऐसा नहीं होता तो देश भर से वाम खत्म नहीं हुआ होता और दो दिन के 'कन्हैया' के पीछे पूरा वाम किसी चमत्कार की आस में नहीं लगा होता. अजीब तरह की बौद्धिकता है यह कि सत्ता की मलाई में आप सब भूल जाते हो! बहरहाल, कांग्रेस ने बड़ी कुशलता से तथाकथित बुद्धिजीवियों को 'सत्ता की मलाई' में लपेट लिया था ताकि उसका विरोध न हो! इसके साथ-साथ कांग्रेस ने बड़ी चालाकी से पूरे देश को जातीय समीकरणों में बाँट रखा था, जिससे छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों का उभार बड़े पैमाने पर हुआ. अब समझने वाली बात यह है कि ऐसे में अगर आरएसएस या भाजपा का उभार राष्ट्रीय स्तर पर नहीं होता तो कांग्रेस का विरोध करने की हैसियत किसमें होती? क्या देश को राजनीतिक रूप से किसी एक के हवाले करना 'बुद्धिजीविता' होती? वह भी एक दल नहीं, बल्कि एक 'परिवार' के हवाले!
हवा-हवाई विचारकों के लिए यह कह देना बहुत आसान है कि संघ साम्प्रदायिक है, संघ बुद्दिजीविता को बढ़ावा नहीं देता, किन्तु वह लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि सिर्फ 'बुद्धिजीविता' और 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' से ही काम चल जाता तो पूरा विश्व 'अहिंसा के सिद्धांत' पर ही चलता और तमाम देश अपनी 'सेनाएं' नहीं रखते! क्या हम अपने घर में किसी और को घुसने देने की परमिशन दे सकते हैं, जो आज़ादी के नाम पर, लालच के नाम पर हमारे घर को, बच्चों को, युवकों को, महिलाओं को भ्रष्ट करे? अगर ऐसा है तो फिर ऐसे लोगों को इस बात से भी इंकार कर देना चाहिए कि टीवी, फिल्मों के कंटेंट से हमारी पीढ़ियों पर बुरा असर नहीं पड़ रहा है? ज़रा देखिये हमारी बुद्धिजीविता की बिडम्बना कि जो आरएसएस अपनी स्थापना काल से ही जातिगत बेड़ियों को तोड़ने में लगा हुआ है, उसकी शाखाओं से लेकर प्रत्येक कार्यक्रम में ऐसा कोई एक वाकया भी देखने-सुनने को नहीं मिलता जहाँ किसी की जाति पूछी गयी हो, उसी आरएसएस से एक बड़े चैनल के तथाकथित धुरंधर एंकर सवाल पूछते हैं कि 'आरएसएस में कोई दलित या पिछड़ा कब सरसंघचालक बनेगा?' जेएनयू में देशविरोधी कार्यों पर कुछ गिरफ्तारियों की वजह से अपनी टीवी स्क्रीन काली कर देने वाले ऐसे एंकर यह कहते नहीं थकते हैं कि 'भाजपा और आरएसएस' एक ही है. अरे भई! जब भाजपा आरएसएस एक ही है तो क्या आपको पिछड़े वर्ग का एक प्रधानमंत्री नहीं दिखता है, जिसके लिए पूरी आरएसएस ने जान लगा दी है? पूरा भारत तो परेशान है इस कुर्सी के खेल से, अब आप अगर यह चाहते हो कि छः छः महीने के टर्म पर आरएसएस के सरसंघचालक भी बदले जाएँ तो आप इसके लिए भाजपा से सम्पर्क करो... उन दोनों में कोई अंतर नहीं है, आप ही तो कहते हो!
दुसरे मुद्दों पर गौर किया जाय तो इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि आज पूरी दुनिया 'इस्लामी चरमपंथ' से परेशान है. अमेरिका जैसे देश में इस पर आतंरिक तूफ़ान मचा हुआ है तो भारत अपेक्षाकृत अन्य देशों से कम पीड़ित है. इसका कारण अगर कोई यह मानने से इंकार करे कि आरएसएस द्वारा 'प्रतिरोधी तंत्र' तैयार करने और 'राष्ट्रीय मुस्लिम मंच' द्वारा समन्वय विकसित करने से ऐसा हुआ है तो उसकी बुद्धि पर तरस ही आएगा. परदे के पीछे राहुल के कांग्रेसी और दुसरे बुद्धिजीवी संघियों की पीठ थपथपाते हुए नहीं थकते हैं कि आपने 'चरमपंथ' के खिलाफ 'सक्षम सामाजिक तंत्र' तैयार किया है. निश्चित रूप से भारतीय मुसलमान अपेक्षाकृत शेष विश्व के मुसलमानों से उदारवादी हैं, किन्तु छद्म विचारकों और सेक्यूलरों को समझना चाहिए कि अगर देश में आरएसएस का सामाजिक प्रतिरोधी तंत्र नहीं हो तो भारत में स्थिति अन्य देशों के मुकाबले कहीं ज्यादे बदतर होगी. उपदेश देने वालों को इन कोर मुद्दों पर अपनी राय जरूर देनी चाहिए, बाकी मुंह से कुछ भी कह देने की बात ही और है.
एक अलग प्रसंग 'आरक्षण' के रूख को लेकर चल रहा है, जिसे संघ ने बिहार चुनाव के समय से ही टटोलना शुरू कर दिया था. विपक्ष तो विपक्ष, भाजपाई समर्थक भी चुपके से कह रहे हैं कि बिहार तो 'भागवत जी' के बयान ने हरा दिया, ऐसा लगता है यूपी चुनाव भी ... !! अब अगर कोई बुद्धिजीवी यह कहे कि इस आंकलन की समझ संघ विचारकों को नहीं है तो यह अपनी आँख मूँद लेने जैसा होगा. समझ उनको भी है तात्कालिक नुक्सान का, किन्तु सवाल यह है बदलाव और यथार्थ के सिद्धांत का! आरक्षण ने निश्चित रूप से भारत में पिछड़ों को ऊपर किया है, इस बात में दो राय नहीं और यह संविधान में इसीलिए अस्थायी रूप में शामिल भी हुआ था, किन्तु अब 70 सालों में इस आरक्षण पर 'जोंक' जैसी लेयर चढ़ गयी है, जो दूसरों को सामने नहीं आने दे रही है. क्रीमी लेयर अब 'कृमि' के रूप में आरक्षण के सही लाभार्थियों को दूर रख रही है तो संपन्न वर्ग द्वारा इसका लाभ लगातार लिए जाने से देश में बड़े 'वर्ग संघर्ष' की भूमिका भी तैयार हो रही है. आखिर, वगैर किन्तु-परन्तु के 70 साल तक आरक्षण व्यवथा चली है तो इसमें सिर्फ संविधान या सरकार का ही रोल नहीं है, बल्कि समाज के उच्च तबकों का भी योगदान रहा है, जिन्होंने इस बात को महसूस किया था कि पिछड़ों, दबे-कुचलों को उनका हक़ मिल रहा है, जो कि मिलना चाहिए. अब यह स्थिति बदल रही है, जिसके फलस्वरूप गुजरात में पटेलों से लेकर हरियाणा के जाट और राजस्थानी गुज्जर और अब राजपूतों भी इस जंग में कूदने लगे हैं. अब अगर समाज से यह मांग उठ रही है कि 'गरीबों को आरक्षण' दो, धनवानों को नहीं तो इस बात से किसी के पेट में राजनैतिक 'मरोड़' क्यों उठना चाहिए?
जब राहुल गांधी और दुसरे बुद्धिजीवी 'एसी कमरों' में आराम फरमाते हुए आरएसएस को 'पंचिंग बैग' के रूप में इस्तेमाल करते हैं तब आरएसएस के विचारक इन गूढ़ प्रश्नों पर विचार करते हैं, राजनीतिक नुक्सान उठाने को तत्पर रहते हैं और ग्राउंड पर उसके कार्यकर्ता समन्वय बनाने में लगे रहते हैं. क्या तमाम बुद्धिजीवी इन प्रश्नों एवं आरएसएस द्वारा उस पर लिए गए इनिशिएटिव से 'इंकार' कर सकते हैं? आरएसएस के निक्कर से पतलून में बदलाव पर चुटकी लेते हुए लालू यादव ने अपने विशेष अंदाज में कहा कि इसका श्रेय राबड़ी देवी को मिलना चाहिए. सही है, इस बात का विरोध शायद ही किसी संघी ने किया हो, क्योंकि वह बदलाव में यकीन रखते हैं, बेशक उन्हें श्रेय मिले अथवा गंधारी द्वारा कृष्ण के रूप में 'श्राप' ही क्यों न मिले! जाहिर तौर पर 21 वीं सदी में मुद्दे बदले हैं, परिस्थितियां बदली हैं तो चुनौतियां भी बदली हैं. ऐसे में प्रतीकात्मक ही सही संघ ने पतलून अपनाकर अपनी आतंरिक विचारधारा की झलक पेश की है कि उसे बदलाव और यथार्थ से कोई परहेज नहीं है. हाँ, उसकी राष्ट्रीय दृढ़ता हमेशा की तरह मजबूत है, बेशक उसे कोई कम बुद्धि वाला कहे अथवा उसे राहुल गांधी की तरह रोज कोसे. वह तो यथार्थ के धरातल पर अपने 'चरैवेति चरैवेति' के मन्त्र का जाप करते हुए बढ़ता जा रहा है, बढ़ता ही जा रहा है...
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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