बचपन में मैंने इक बंज़र धरती पर पौधा बोया था
धरती मां से पेड़ बड़ा होने को हमनें बोला था ,,
बंजर मिट्टी में इक अंकुर था फूटा भरकर पानी बरगद़ के पत्तों में मैंनें अंकुर को सींचा ,,
तब जाकर डाली निकली
और निकले पल्लव थोड़े
दिन में बड़ा हुआ लगे निकलने फूल-फल देख हर्षित हुआ मन फूली नही
समायी मैं ,,
लेकिन मन में थी उदासी
प्रकृति को सबने कर दिया
था बंज़र
शीत गया वसंत गया आकर ग्रीष्म ऋतु भी चली गयी ,,वर्षा आयी आये काले मेघ घुमर-घुमर के बरसा पानी हरी-भरी हो गयी बंज़र धरती ,,
गीला हो गया धरती मां का आंचल हंस रही थी सारी प्रकृति !!✍️📒
मुंबई महाराष्ट्र
सरिता मिश्रा पाठक "काव्यांशा