ये जो लाल रक्त का श्राव है
इसी के हर कतरे से हुआ तुम्हारा निर्माण है
अपवित्र होकर तुम्हें पवित्रता का हक दिलाती हूं
ये पांच दिन का पर्व है जो हर नारी मनाती है
असहनीय पीड़ा सहकर
भी तुम सबकी मुस्कान बन
जाती हूं ,,
अनगिनत पाबन्दियां सहकर भी हर रिश्ता निभाती हूं ,,
हर महीने की जब आती है
माहवारी की तारीख थोड़ा
मन व्याकुल होने लगता है
इसबार कितना होगा दर्द या कितना बहेगा लाल रक्त
कोई नही पूछता है क्या हुआ है तुम्हें ,,बह जाए
चाहे सारे शरीर का रक्त
जरा सी ऊंगली कट जाने पर दौड़ते हैं घर के सारे लोग ,,
वही नही पूछते हैं कितना
बहा है इसबार तुम्हारा रक्त
इसी रक्त की हर बूंद से तो हमने तुम्हारा निर्माण किया
है
फिर क्यों तुम्हें मेरे इस दर्द
से दर्द नही हुआ है!!✍️
स्वरचित स्वैच्छिक
सरिता मिश्रा पाठक "काव्यांशा