सुलग-सुलग गयी रात जब
नींद आयी तो सुबह हो गयी बीत गयी रैना नींद नही आयी ,,
जब आंखों में नींद आयी तो सुबह हो गयी..
जागती नही सुबह सबकी
तरह एक निश्चित समय पर
बैठ कर बिताती हूं सारी रात ,,
कुछ लिखती हूं कुछ
बुनती हूं कुछ सुनती अपनी
कहानी कविता व्यथा ,,
फिर वही बीत जाती है रात
आ जाती है एक नई सुबह
सुख दु:ख का आलिंगन नृत्य और जीवन के हर संताप ,,
सुन लेती हूं मौन होकर हर
विकल आलाप ,,
सुबह चिड़ियों का फड़फड़ाना गिरना उठना फिर संभलना ,,
सुबककर सोये हुए किसी
बच्चे की आंखों पर सुबह
की रोशनी का पड़ जाना ,,
नही होती सुबह यूं ही औचक से ,,वह चलती रहती है
रात से जैसे कोई स्वप्न देखकर सोकर उठा हो..
आंख मसलते हुए जगा देती है सुबह फिर सारा दिन भगाती रहती है हर नई सुबह ,,
सूर्य के ताप को सात घोड़ो
के रथ को हांकती हुई आती है सुबह ,,
गर्माहट को फैलाकर शाम की ठंडी परछाईं को देकर
जाती है सुबह ,,
एक नई उमंग एक नई तरंग एक नया उल्लास
ला देती है सुबह फिर वही थककर चूर हो जाना ,,
अकेले बैठकर कुछ र्निणय
करना कुछ सोचना विचार
करना और अगली सुबह
का इंतजार करना ,,
यही चक्र चलता रहता है
जीवन में आना और जाना
लगा रहता है ,,
हर दिन एक नया संदेश ला
देती है ,,सुबह फिर जाते-जाते दूसरे संदेश का
संकेत दे जाती है सुबह!!
स्वरचित
सरिता मिश्रा पाठक"काव्यांशा