टूट गयीं कच्ची दीवारें बन
गये पक्के मकान पर
परिवारों में सामजस्य नही हो रहें हैं पृथक सभी..
अब नही रहा अपनापन न रहा वो पहले जैसा प्यार
एक ही माता-पिता की संतानों में बदल रहें हैं विचार नही रहा अब वो सामजस्य जो होता था दो भाई-भाई बहन-भाई
के बीच ,,
खो गयीं वो गलियां जहां पर चलते थे एक साथ
छत की दीवारें भी अब ढूंढती हैं उस सामजस्य को
जो होता था कभी अब पड़ती जा रही हैं दरारें..
मेल-मिलाप खत्म हो रहा है तालमेल भी कहीं खो रहा है
बे रौनक हो रही है ये जिंदगी क्योंकि अब नही हो पा रहा है सामजस्य !!
मुंबई महाराष्ट्र
सरिता मिश्रा पाठक "काव्यांशा