कुछ उलझने थी जो सुलझा रही थी कुछ बातें हैं
जो खुद को बता रही थी
कुछ कर्त्तव्य हैं जो निभा रही थी..
कुछ अपने पराये भेद को
समझ और समझा रही थी
कुछ निराशाओं को मन से
हटा रही थी ,,
कुछ आशाओं के दीप जला रही थी..
अपनों के बीच कौन है अपना अपने दिल में बसा रही है अपनों के बीच कौन
है बेगाना उसे बाहर का रास्ता दिखा रही है..
कुछ झूठ थे जिन्हें सच का आईना दिखा रही थी कुछ
भटके थे जिन्हें सही रास्ता
दिखा रही थी..
कुछ उलझने थी जिन्हें सुलझा रही थी कुछ बातें थीं जो खुद को बता रही थी !!
स्वरचित स्वैच्छिक (मौलिक)
सरिता मिश्रा पाठक "कांव्याशा