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पूजा

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कल बल कै हरि आरि परे । नव रँग बिमल नवीन जलधि पर, मानहुँ द्वै ससि आनि अरे ॥ जे गिरि कमठ सुरासुर सर्पहिं धरत न मन मैं नैंकु डरे । ते भुज भूषन-भार परत कर गोपिनि के आधार धरे ॥ सूर स्याम दधि-भाजन-भीतर

मैं मोही तेरैं लाल री । निपट निकट ह्वै कै तुम निरखौ, सुंदर नैन बिसाल री ॥ चंचल दृग अंचल पट दुति छबि, झलकत चहुँ दिसि झाल री । मनु सेवाल कमल पर अरुझे, भँवत भ्रमर भ्रम-चाल री ॥ मुक्ता-बिद्रुम-नील-पीत

जसोदा, तेरौ चिरजीवहु गोपाल । बेगि बढ़ै बल सहित बिरध लट, महरि मनोहर बाल ॥ उपजि परयौ सिसु कर्म-पुन्य-फल, समुद-सीप ज्यौं लाल । सब गोकुल कौ प्रान-जीवन-धन, बैरिन कौ उर-साल ॥ सूर कितौ सुख पावत लोचन, निर

झुनक स्याम की पैजनियाँ । जसुमति-सुत कौ चलन सिखावति, अँगुरी गहि-गहि दोउ जनियाँ ॥ स्याम बरन पर पीत झँगुलिया, सीस कुलहिया चौतनियाँ । जाकौ ब्रह्मा पार न पावत, ताहि खिलावति ग्वालिनियाँ ॥ दूरि न जाहु नि

हरि हरि हँसत मेरौ माधैया । देहरि चढ़त परत गिर-गिर, कर पल्लव गहति जु मैया ॥ भक्ति-हेत जसुदा के आगैं, धरनी चरन धरैया । जिनि चरनि छलियौ बलि राजा, नख गंगा जु बहैया ॥ जिहिं सरूप मोहे ब्रह्मादिक, रबि-सस

साँवरे बलि-बलि बाल-गोबिंद । अति सुख पूरन परमानंद ॥ तीनि पैड जाके धरनि न आवै । ताहि जसोदा चलन सिखावै ॥ जाकी चितवनि काल डराई । ताहि महरि कर-लकुटि दिखाई ॥ जाकौ नाम कोटि भ्रम टारै । तापर राई-लोन उत

सो बल कहा भयौ भगवान ? जिहिं बल मीन रूप जल थाह्यौ, लियौ निगम,हति असुर-परान ॥ जिहिं बल कमठ-पीठि पर गिरि धरि, जल सिंधु मथि कियौ बिमान । जिहिं बल रूप बराह दसन पर, राखी पुहुमी पुहुप समान ॥ जिहिं बल हिर

भीतर तैं बाहर लौं आवत । घर-आँगन अति चलत सुगम भए, देहरि अँटकावत ॥ गिरि-गिरि परत, जात नहिं उलँघी, अति स्रम होत नघावत । अहुँठ पैग बसुधा सब कीनी, धाम अवधि बिरमावत ॥ मन हीं मन बलबीर कहत हैं, ऐसे रंग बन

कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी । जो मन मैं अभिलाष करति ही, सो देखति नँद-घरनी ॥ रुनुक-झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहीं मन-हरनी । बैठि जात पुनि उठत तुरतहीं सो छबि जाइ न बरनी ॥ ब्रज-जुवती सब देखि थकित भ

गहे अँगुरियाँ ललन की, नँद चलन सिखावत । अरबराइ गिरि परत हैं, कर टेकि उठावत ॥ बार-बार बकि स्याम सौं कछु बोल बुलावत । दुहुँघाँ द्वै दँतुली भई, मुख अति छबि पावत ॥ कबहुँ कान्ह-कर छाँड़ि नँद, पग द्वैक र

बाल-बिनोद आँगन की डोलनि । मनिमय भूमि नंद कैं आलय, बलि-बलि जाउँ तोतरे बोलनि ॥ कठुला कंठ कुटिल केहरि-नख, ब्रज-माल बहु लाल अमोलनि । बदन सरोज तिलक गोरोचन, लट लटकनि मधुकर-गति डोलनि ॥ कर नवनीत परस आनन स

सूच्छम चरन चलावत बल करि । अटपटात, कर देति सुंदरी, उठत तबै सुजतन तन-मन धरि ॥ मृदु पद धरत धरनि ठहरात न, इत-उत भुज जुग लै-लै भरि-भरि । पुलकित सुमुखीभई स्याम-रस ज्यौं जल मैं दाँची गागरि गरि ॥ सूरदास स

भावत हरि कौ बाल-बिनोद । स्याम -राम-मुख निरखि-निरखि सुख-मुदित रोहिनी, जननि जसोद ॥ आँगन-पंक-राग तन सोभित, चल नूपुर-धुनि सुनि मन मोद । परम सनेह बढ़ावत मातनि, रबकि-रबकि हरि बैठत गोद ॥ आनँद-कंद, सकल सु

सिखवति चलन जसोदा मैया । अरबराइ कर पानि गहावत, डगमगाइ धरनी धरै पैया ॥ कबहुँक सुंदर बदन बिलोकति, उर आनँद भरि लेति बलैया । कबहुँक कुल देवता मनावति, चिरजीवहु मेरौ कुँवर कन्हैया ॥ कबहुँक बल कौं टेरि बु

चलन चहत पाइनि गोपाल । लए लाइ अँगुरी नंदरानी, सुंदर स्याम तमाल ॥ डगमगात गिरि परत पानि पर, भुज भ्राजत नँदलाल । जनु सिर पर ससि जानि अधोमुख, धुकत नलिनि नमि नाल ॥ धूरि-धौत तन, अंजन नैननि, चलत लटपटी चाल

हरिकौ बिमल जस गावति गोपंगना । मनिमय आँगन नदराइ कौ, बाल-गोपाल करैं तहँ रँगना ॥ गिरि-गिरि परत घुटुरुवनि रेंगत, खेलत हैं दोउ छगना-मगना । धूसरि धूरि दुहूँ तन मंडित, मातु जसोदा लेति उछँगना ॥ बसुधा त्रि

नंद-धाम खेलत हरि डोलत । जसुमति करति रसोई भीतर, आपुन किलकत बोलत ॥ टेरि उठी जसुमति मोहन कौं, आवहु काहैं न धाइ । बैन सुनत माता पहिचानी, चले घुटुरुवनि पाइ ॥ लै उठाइ अंचल गहि पोंछै, धूरि भरी सब देह ।

किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत । मनिमय कनक नंद कै आँगन, बिंब पकरिबैं धावत ॥ कबहुँ निरखि हरि आपु छाहँ कौं, कर सौं पकरन चाहत । किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ॥ कनक-भूमि पद कर-पग-छाया

मैं बलि स्याम, मनोहर नैन । जब चितवत मो तन करि अँखियन, मधुप देत मनु सैन ॥ कुंचित, अलक, तिलक गोरोचन, ससि पर हरि के ऐन । कबहुँक खेलत जात घुटुरुवनि, उपजावत सुख चैन ॥ कबहुँक रोवत-हँसत बलि गई, बोलत मधुर

बाल बिनोद खरो जिय भावत । मुख प्रतिबिंब पकरिबे कारन हुलसि घुटुरुवनि धावत ॥ अखिल ब्रह्मंड-खंड की महिमा, सिसुता माहिं दुरावत । सब्द जोरि बोल्यौ चाहत हैं, प्रगट बचन नहिं आवत ॥ कमल-नैन माखन माँगत हैं क

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