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पूजा

hindi articles, stories and books related to puja


खीजत जात माखन खात । अरुन लोचन, भौंह टेढ़ी, बार-बार जँभात ॥ कबहुँ रुनझुन चलत घुटुरुनि, धूरि धूसर गात । कबहुँ झुकि कै अलक खैँचत, नैन जल भरि जात ॥ कबहुँ तोतरे बोल बोलत, कबहुँ बोलत तात । सूर हरि की न

आजु भोर तमचुर के रोल । गोकुल मैं आनंद होत है, मंगल-धुनि महराने टोल ॥ फूले फिरत नंद अति सुख भयौ, हरषि मँगावत फूल-तमोल । फूली फिरति जसोदा तन-मन, उबटि कान्ह अन्हवाई अमोल ॥ तनक बदन, दोउ तनक-तनक कर, तन

लालन, वारी या मुख ऊपर । माई मोरहि दौठि न लागै, तातैं मसि-बिंदा दियौ भ्रू पर ॥ सरबस मैं पहिलै ही वार्‌यौ, नान्हीं नान्हीं दँतुली दू पर । अब कहा करौं निछावरि, सूरज सोचति अपनैं लालन जू पर ॥ भावार्थ :

जननी बलि जाइ हालक हालरौ गोपाल । दधिहिं बिलोइ सदमाखन राख्यौ, मिश्री सानि चटावै नँदलाल ॥ कंचन-खंभ, मयारि, मरुवा-डाड़ी, खचि हीरा बिच लाल-प्रवाल । रेसम बनाइ नव रतन पालनौ, लटकन बहुत पिरोजा-लाल ॥ मोतिनि

हरि किलकत जसुमति की कनियाँ । मुख मैं तीनि लोक दिखराए, चकित भई नँद-रनियाँ ॥ घर-घर हाथ दिवापति डोलति, बाँधति गरैं बघनियाँ । सूर स्याम की अद्भुत लीला नहिं जानत मुनिजनियाँ ॥ भावार्थ :-- हरि श्रीयशोद

जसुमति मन अभिलाष करै । कब मेरो लाल घटुरुवनि रेंगै, कब धरनी पग द्वैक धरै ॥ कब द्वै दाँत दूध के देखौं, कब तोतरैं मुख बचन झरै । कब नंदहिं बाबा कहि बोलै, कब जननी कहि मोहिं ररै ॥ कब मेरौ अँचरा गहि मोहन

गोद लिए हरि कौं नँदरानी, अस्तन पान करावति है । बार-बार रोहिनि कौ कहि-कहि, पलिका अजिर मँगावति है ॥ प्रात समय रबि-किरनि कोंवरी, सो कहि, सुतहिं बतावति है । आउ घाम मेरे लाल कैं आँगन, बाल-केलि कौं गावति

जननी देखि, छबि बलि जाति । जैसैं निधनी धनहिं पाएँ, हरष दिन अरु राति ॥ बाल-लीला निरखि हरषति, धन्य धनि ब्रजनारि । निरखि जननी-बदन किलकत, त्रिदस-पति दै तारि ॥ धन्य नँद, धनि धन्य गोपी, धन्य ब्रज कौ बास

यह सुख सुनि हरषीं ब्रजनारी । देखन कौं धाईं बनवारी ॥ कोउ जुवती आई , कोउ आवति । कोउ उठि चलति, सुनत सुख पावति ॥ घर-घर होति अनंद-बधाई । सूरदास प्रभु की बलि जाई ॥ यह आनन्द-संवाद (कि कन्हाई ने आज स्वयं

जो सुख ब्रज मैं एक घरी । सो सुख तीनि लोक मैं नाहीं धनि यह घोष-पुरी ॥ अष्टसिद्धि नवनिधि कर जोरे, द्वारैं रहति खरी । सिव-सनकादि-सुकादि-अगोचर, ते अवतरे हरी ॥ धन्य-धन्य बड़भागिनि जसुमति, निगमनि सही पर

महरि मुदित उलटाइ कै मुख चूमन लागी । चिरजीवौ मेरौ लाड़िलौ, मैं भई सभागी ॥ एक पाख त्रय-मास कौ मेरौ भयौ कन्हाई । पटकि रान उलटो पर्‌यौ, मैं करौं बधाई ॥ नंद-घरनि आनँद भरी, बोलीं ब्रजनारी । यह सुख सुनि

हरषे नंद टेरत महरि । आइ सुत-मुख देखि आतुर, डारि दै दधि-डहरि ॥ मथति दधि जसुमति मथानी, धुनि रही घर-घहरि । स्रवन सुनति न महर बातैं, जहाँ-तहँ गइ चहरि ॥ यह सुनत तब मातु धाई, गिरे जाने झहरि । हँसत नँद-

जसुदा मदन गोपाल सोवावै । देखि सयन-गति त्रिभुवन कंपै, ईस बिरंचि भ्रमावै ॥ असित-अरुन-सित आलस लोचन उभय पलक परि आवै । जनु रबि गत संकुचित कमल जुग, निसि अलि उड़न न पावै ॥ स्वास उदर उससित यौं, मानौं दुग्

चरन गहे अँगुठा मुख मेलत । नंद-घरनि गावति, हलरावति, पलना पर हरि खेलत ॥ जे चरनारबिंद श्री-भूषन, उर तैं नैंकु न टारति । देखौं धौं का रस चरननि मैं, मुख मेलत करि आरति ॥ जा चरनारबिंद के रस कौं सुर-मुनि

कर पग गहि, अँगूठा मुख । प्रभु पौढ़े पालनैं अकेले, हरषि-हरषि अपनैं रँग खेलत ॥ सिव सोचत, बिधि बुद्धि बिचारत, बट बाढ्यौ सागर-जल झेलत । बिडरि चले घन प्रलय जानि कै, दिगपति दिग-दंतीनि सकेलत ॥ मुनि मन भी

कन्हैया हालरौ हलरोइ । हौं वारी तव इंदु-बदन पर, अति छबि अलग भरोइ ॥ कमल-नयन कौं कपट किए माई, इहिं ब्रज आवै जोइ । पालागौं बिधि ताहि बकी ज्यौं, तू तिहिं तुरत बिगोइ ॥ सुनि देवता बड़े, जग-पावन, तू पति य

नैंकु गोपालहिं मोकौं दै री । देखौं बदन कमल नीकैं करि, ता पाछैं तू कनियाँ लै री ॥ अति कोमल कर-चरन-सरोरुह, अधर-दसन-नासा सोहै री । लटकन सीस, कंठ मनि भ्राजत, मनमथ कोटि बारने गै री ॥ बासर-निसा बिचारति

कन्हैया हालरु रे । गढ़ि गुढ़ि ल्यायौ बढ़ई, धरनी पर डोलाइ, बलि हालरु रे ॥ इक लख माँगे बढ़ई, दुइ लख नंद जु देहिं बलि हालरु रे । रतन जटित बर पालनौ, रेसम लागी डोर, बलि हालरु रे ॥ कबहुँक झूलै पालना, कब

सुत-मुख देखि जसोदा फूली । हरषित देखि दूध की दँतियाँ, प्रेममगन तन की सुधि भूली ॥ बाहिर तैं तब नंद बुलाए, देखौ धौं सुंदर सुखदाई । तनक-तनक-सी दूध-दँतुलिया, देखौ, नैन सफल करौ आई ॥ आनँद सहित महर तब आए,

हरि किलकत जसुदा की कनियाँ । निरखि-निरखि मुख कहति लाल सौं मो निधनी के धनियाँ ॥ अति कोमल तन चितै स्याम कौ बार-बार पछितात । कैसैं बच्यौ, जाउँ बलि तेरी, तृनावर्त कैं घात ॥ ना जानौं धौं कौन पुन्य तैं,

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