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पूजा

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न्हात नंद सुधि करी स्यामकी, ल्यावहु बोलि कान्ह-बलराम । खेलत बड़ी बार कहुँ लाई, ब्रज भीतर काहू कैं धाम ॥ मेरैं संग आइ दोउ बैठैं, उन बिनु भोजन कौने काम । जसुमति सुनत चली अति आतुर, ब्रज-घर-घर टेरति लै

माखन बाल गोपालहि भावै । भूखे छिन न रहत मन मोहन, ताहि बदौं जो गहरु लगावै ॥ आनि मथानी दह्यौ बिलोवौं, जो लगि लालन उठन न पावै । जागत ही उठि रारि करत है, नहिं मानै जौ इंद्र मनावै ॥ हौं यह जानति बानि स्

भोर भयौ जागौ नँद-नंद । तात निसि बिगत भई, चकई आनंदमई,तरनि की किरन तैं चंद भयौ नंद ॥ तमचूर खग रोर, अलि करैं बहु सोर,बेगि मोचन करहु, सुरभि-गल-फंद । उठहु भोजन करहु, खोरी उतारि धरहु,जननि प्रति देहु सिसु

उठौ नँदलाल भयौ भिनसार, जगावति नंद की रानी । झारी कैं जल बदन पखारौ, सुख करि सारँगपानी ॥ माखन-रोटी अरु मधु-मेवा जो भावै लेउ आनी । सूर स्याम मुख निरखि जसोदा,मन-हीं-मन जु सिहानी ॥ भावार्थ :-- श्रीनन

जागिए, व्रजराज-कुँवर, कमल-कुसुम फूले । कुमुद-बृँद सकुचित भए, भृंग लता भूले ॥ तमचुर खग रोर सुनहु, बोलत बनराई । राँभति गो खरिकनि मैं, बछरा हित धाई ॥ बिधु मलीन रबि-प्रकास गावत नर-नारी । सूर स्याम प्

सुनि सुत, एक कथा कहौं प्यारी । कमल-नैन मन आनँद उपज्यौ, चतुर-सिरोमनि देत हुँकारी ॥ दसरथ नृपति हती रघुबंसी, ताकैं प्रगट भए सुत चारी । तिन मैं मुख्य राम जो कहियत, जनक-सुता ताकी बर नारी ॥ तात-बचन लगि

तुव मुख देखि डरत ससि भारी । कर करि कै हरि हेर्‌यौ चाहत, भाजि पताल गयौ अपहारी ॥ वह ससि तौ कैसेहुँ नहिं आवत, यह ऐसी कछु बुद्धि बिचारी । बदन देखि बिधु-बुधि सकात मन, नैन कंज कुंडल इजियारी ॥ सुनौ स्याम

किहिं बिधि करि कान्हहिं समुजैहौं ? मैं ही भूलि चंद दिखरायौ, ताहि कहत मैं खैहौं ! अनहोनी कहुँ भई कन्हैया, देखी-सुनी न बात । यह तौ आहि खिलौना सब कौ, खान कहत तिहि तात ! यहै देत लवनी नित मोकौं, छिन छि

ठाढ़ी अजिर जसोदा अपनैं, हरिहि लिये चंदा दिखरावत । रोवत कत बलि जाउँ तुम्हारी, देखौ धौं भरि नैन जुड़ावत ॥ चितै रहे तब आपुन ससि-तन, अपने के लै-लै जु बतावत । मीठौ लगत किधौं यह खाटौ, देखत अति सुंदर मन भ

जसुमति जबहिं कह्यौ अन्वावन, रोइ गए हरि लोटत री । तेल उबटनौं लै आगैं धरि, लालहिं चोटत-पोटत री ॥ मैं बलि जाउँ न्हाउ जनि मोहन, कत रोवत बिनु काजैं री । पाछैं धरि राख्यौ छपाइ कै उबटन-तेल-समाजैं री ॥ मह

बलि-बलि जाउँ मधुर सुर गावहु । अब की बार मेरे कुँवर कन्हैया, नंदहि नाच दिखावहु ॥ तारी देहु आपने कर की, परम प्रीति उपजावहु । आन जंतु धुनि सुनि कत डरपत, मो भुज कंठ लगावहु ॥ जनि संका जिय करौ लाल मेरे,

हरि अपनैं आँगन कछु गावत । तनक-तनक चरननि सौ नाचत, मनहीं मनहि रिझावत॥ बाँह उठाइ काजरी-धौरी गैयनि टेरि बुलावति । कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत ॥ माखन तनक आपनैं कर लै, तनक बदन मैं नावत ।

मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी किती बार मोहि दूध पियत भइ, यह अजहूँ है छोटी ॥ तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, ह्वै है लाँबी-मोटी । काढ़त-गुहत-न्हवावत जैहै नागिनि-सी भुइँ लोटी ॥ काँचौ दूध पियावति पचि-पचि, देत

बातनिहीं सुत लाइ लियौ । तब लौं मधि दधि जननि जसोदा, माखन करि हरि हाथ दियौ ॥ लै-लै अधर परस करि जेंवत, देखत फूल्यौ मात-हियौ । आपुहिं खात प्रसंसत आपुहिं, माखन-रोटी बहुत प्रियौ ॥ जो प्रभु सिव-सनकादिक द

नैकु रहौ, माखन द्यौं तुम कौं । ठाढ़ी मथति जननि आतुर, लौनी नंद-सुवन कौं ॥ मैं बलि जाउँ स्याम-घन-सुंदर, भूख लगी तुम्हैं भारी । बात कहूँ की बूझति स्यामहि, फेर करत महतारी ॥ कहत बात हरि कछू न समुझत, झू

गोपालराइ दधि माँगत अरु रोटी । माखन सहित देहि मेरी मैया, सुपक सुकोमल रोटी ॥ कत हौ आरि करत मेरे मोहन, तुम आँगन मैं लोटी? जो चाहौ सो लेहु तुरतहीं, छाँड़ौ यह मति खोटी ॥ करि मनुहारि कलेऊ दीन्हौ, मुख चु

कनक-कटोरा प्रातहीं, दधि घृत सु मिठाई । खेलत खात गिरावहीं, झगरत दोउ भाई ॥ अरस-परस चुटिया गहैं, बरजति है माई । महा ढीठ मानैं नहीं, कछु लहुर-बड़ाई ॥ हँसि कै बोली रोहिनी, जसुमति मुसुकाई । जगन्नाथ धरन

बाल गुपाल ! खेलौ मेरे तात । बलि-बलि जाउँ मुखारबिंदकी, अमिय-बचन बोलौ तुतरात ॥ दुहुँ कर माट गह्यौ नँदनंदन, छिटकि बूँद-दधि परत अघात । मानौ गज-मुक्ता मरकत पर , सोभित सुभग साँवरे गात ॥ जननी पै माँगत जग

माखन खात हँसत किलकत हरि, पकरि स्वच्छ घट देख्यौ । निज प्रतिबिंब निरखि रिस मानत, जानत आन परेख्यौ ॥ मन मैं माख करत, कछु बोलत, नंद बबा पै आयौ । वा घट मैं काहू कै लरिका, मेरौ माखन खायौ ॥ महर कंठ लावत,

जब दधि-मथनी टेकि अरै । आरि करत मटुकी गहि मोहन, वासुकि संभु डरै ॥ मंदर डरत, सिंधु पुनि काँपत, फिरि जनि मथन करै । प्रलय होइ जनि गहौं मथानी, प्रभु मरजाद टरै ॥ सुर अरु असुर ठाढ़ै सब चितवत, नैननि नीर ढ

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