Rahul Sankrityayan in Hindi- भारत में एक से बढ़कर एक साहित्यकार हुए और इनकी हमेशा से यही कोशिश रही है कि वे हिंदी भाषा का समय-समय पर प्रचार करता रहता है। यहां हम बात हिंदी साहित्यिक राहुल सांकृत्यायन जी के बारे में बात करने जा रहे हैं। जब साहित्य की किताबें हिन्दी से ज्यादा हिंग्लिश की ओर जोर मारने लगे तो मानना पड़ेगा ही कि अब राहुल जी सरीखे लोगों को शायद ही कोई ज्यादा अहमियत देता हो।हिंदी साहित्य के महान पंडित श्री राहुल सांकृत्यायन जी का जन्म आजमगढ़, उत्तरप्रदेश के पंदहा नामक गांव में 9 अप्रैल सन् 1893 में हुआ था। राहुल जी के बचपन का नाम केदारनाथ पांडेय था। इनके पिता गोवर्धन पांडे व माता कुलवन्ती जी थी। बाल्यकाल में इनकी माता जी का देहांत हो जाने के कारण इनकी देख-रेख नाना श्री रामशरण पाठक के यहां हुआ।
राहुल सांकृत्यायन की जीवनी
प्राथमिक शिक्षा के लिए गांव में पास के स्कूल में इनका दाखिला कराया गया था। इनका विवाह बचपन में ही हो गया था और यह उनके जीवन की बहुत बड़ी घटना थी जिसकी वजह से इन्होंने किशोरावस्था में ही घर त्याग दिया। इसके बाद वे एक मठ में साधु हो गये और फिर 14 वर्ष की अवस्था मैं कलकत्ता भाग गये क्योंकि ज्ञान प्राप्त करने की बहुत लालसा थी इसी कारण ये कहीं भी टिकते नहीं थे। राहुल जी जहां भी गये, वहां की भाषा सीखकर लोगों से काफी घुल-मिल गये और वहां की संस्कृति, साहित्य व समाज को अपने दिल में बसा लिया। महापंडित कहलाना इनको अच्छा नहीं लगता था। राहुल जी हमेशा कहा करते थे 'कमर बांध लो भावी घुमक्कड़ो, संसार तुम्हारे ही स्वागत के लिए बेकरार है।' आधुनिक हिन्दी साहित्य में यात्राकार, इतिहासविद्, तत्वान्वेषी और युग परिवर्तनकारी साहित्यकार के रूप में इनको जाना जाता है। वर्षों तक हिमालय में यायावरी जीवनयापन किया । 36 भाषाओं के जानकार राहुल जी ने बनारस में संस्कृत का अध्ययन किया और आगरा में भी पढ़ाई की फिर लाहौर में मिशनरी का काम किया और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जेल भी भेजे गए। बौद्ध धर्म के लिए तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक घूमे और बहुत सारे साहित्य की रचना की। साम्यवादी विचारों के समर्थक होने के साथ राहुल जी हमेशा कहते थे कि, 'मैंने नाम बदला, वेशभूषा बदली, खान-पान बदला, संप्रदाय बदला लेकिन हिंदी के संबंध में मैंने अपने विचारों को कभी नहीं बदला और न बदलूंगा।'
आज के दौर में राहुल सांकृत्यायन जी को याद करने की फुर्सत किसे है?' सही बात है, एक समय था जब 1958 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया औऱ 1963 में पद्मभूषण से नवाजा गया लेकिन अब तो आज कल की सरकार भी याद करने से कतराती है। भला हो उन गांव, गलियों और छोटे शहर में बसे लेखकों, कवियों और पत्रकारों का जो राहुल जी को उनके जन्मदिन और पुण्यतिथि पर ही कम से कम याद तो कर लेते हैं।
राहुल सांकृत्यायन जी ने बिना उच्च स्तर की शिक्षा हासिल किए अलग-अलग विषयों पर करीब 150 ग्रंथों की रचना की और अपने जीवन लगभग पूरा समय यात्राओं में लगा दिया। जिसमें उन्होंने पूरे भारत के अलावा तिब्बत, सोवियत संघ, यूरोप और श्रीलंका की यात्रा की।
Rahul Sankrityayan ki Rachana -
कहानी, जीवन, उपन्यास, आत्मकथा व यात्रा वृत्तांत।
उनकी कुछ प्रमुख कृतियां-
उपन्यास: जीने के लिए, सिंह सेनापति, बाईसवीं सदी, जय यौधेय, भागो नहीं दुनिया बदलो, राजस्थान निवास, मधुर स्वप्न, दिवोदस व विस्मृत यात्री।
आत्मकथा : मेरी जीवन यात्रा
कहानी संग्रह : बहुरंगी मधुपूरी, वोल्गा से गंगा, सतमी के बच्चे, कनैला की कथा।
यात्रा साहित्य : इरान, जापान, लंका, किन्नर देश की ओर, चीन में क्या देखा, मेरी तिब्बत यात्रा, तिब्बत में सवा वर्ष, मेरी लद्दाख यात्रा, घुमक्कड़ शास्त्र, रूस में पच्चीस मास।
जीवनी : नए भारत के नए नेता, सरदार पृथ्वी सिंह, अतीत से वर्तमान, लेनिन, कार्ल मॉर्क्स, बचपन की स्मृतियां, स्ताालिन, माओ-त्से-तुंग, मेरे असहयोग के साथी, घुमक्कड़ स्वामी, वीर चंद्रसिंघ गढ़वाली, सिंघल घुमक्कड़ जयवर्धन, जिनका मैं कृतज्ञ, कप्तान लाल, सिंघल के वीर पुरूष, महामानव बुद्ध।
सम्मान: पद्म भूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार, त्रिपिटिकाचार्य।
निधन : दार्जिलिंग (प. बं.), 14 अप्रैल 1963
इन्होंने हिंदी साहित्य में बहुत ज्यादा योगदान दिया था और इन्हें लिखने का भी काफी शौक रहा है। राहुल जी अपने जीवन के आखिरी दिनों में दार्जिलिंग में थे और वहां पर इन्होने एक से बढ़कर एक कविताएं लिखी जो हिंदी साहित्य में छात्रों को आज भी पढ़ाए जाते हैं। इनकी रचनाओं को इनके निधन के बाद पब्लिश किया गया था और इन्हें मरणोपरांत कुछ अवॉर्ड्स भी मिले थे।