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महान कवि सुमित्रानंन्दन पंत जी की जीवनशैली व उनकी अमर कवितायें

6 जुलाई 2019

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सुमित्रानन्दन पन्त जी का जीवन परिचय - ( Biography of Sumitranandan Pant)

महान कवि सुमित्रानंदन पन्त जी का जन्म कुर्मांचल प्रदेश में अल्मोड़ा जिला के कौसानी नामक ग्राम में सन् 1900 ई. में हुआ था और इनके माता-पिता द्वारा रखा गया बचपन का नाम गुसाईं दत्त था | इनके जन्म के कुछ घंटों बाद ही इनकी माता जी का निधन हो गया और इनके पिता जी का नाम गंगादत्त पन्त था |


पालन-पोषण :- माँ का निधन हो जाने के बाद सुमित्रानन्दन पन्त जी का पालन-पोषण इनकी दादी के हाथों हुआ | मात्र 7 साल की उम्र में ही जब यह सातवी कक्षा में पढ़ाई रहे थे तभी इन्होने पहली बार एक छंद की रचना की | और जब आगे की पढ़ाई के लिए ये अल्मोड़ा आये तब इन्होंनें अपना नाम सुमित्रानंदन पन्त रख लिया | इससे पहले इनका नाम गुसाईं दत्त था | प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करके 1919 में प्रयाग के म्योर सेंट्रल कॉलेज में आगे की पढ़ाई के लिए प्रवेश लिया |

सुमित्रानंदन पन्त जी ने एक पत्रिका का सम्पादन दिया। जिसका नाम ‘रूपाभ’ था | इसके बाद कई सालों तक पंत जी ने आकाशवाणी के उच्च पद पर कार्यरत रहे | पन्त जी ने अपने पूरे जीवन काल में कभी शादी नहीं की और अपना जीवन का समर्पण माँ-भारती के चरणों में कर दिया | इनकी रूचि कविताओं में बचपन से ही कुछ ज्यादा ही थी|


सन् 1950 ई. में पंत जी आकाशवाणी में सम्बद्ध हुए और प्रयाग में रहकर साहित्य सृजन करने लगे | इनकी ‘कला’ और ‘बूढ़ा चाँद’ पर साहित्य अकादमी, ‘लोकायतन’ पर सोवियत और ‘चिदम्बरा’ के कारण ज्ञानपीठ पुरूस्कार प्राप्त हुआ | पन्तजी ने सुन्दरम के कवि के रूप में अपना साहित्यिक जीवन प्रारम्भ किया | इनकी शुरुआत की रचनाओं जैसे- वीणा, ग्रंथि, पल्लव, और गुंजन में इन्होने प्रकृति के विभिन्न रूपों का अनमोल अभिनन्दन किया है |


कविताओं की रचना की दृष्टि के विकास में इनके काव्य-संकलन ‘पल्लव’ की रचना ‘परिवर्तन’को विशेष महत्व दिया जाता है। भाषा-साहित्य के क्षेत्र में बात करें तो इनकी भाषा चित्र के रूप में रही है| उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि सादृश्यमूलक अलंकार इनके प्रिय अलंकार थे | इनकी काव्य-रचनाओं को पढ़कर यह तय नहीं किया जा सकता है कि ये कवि हैं या विचारक | इनका काव्य नारी, प्रकृति, मानवतावाद, तथा चेतनावाद से जुड़ा हुआ है| 21 दिसम्बर 1977 को पंत जी का स्वर्गवास हो गया।

सुख-दुख

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरन,
फिर घन में ओझल हो शशि
फिर शशि से ओझल हो घन।

मैं नहीं चाहता चिर-सुख
मैं नहीं चाहता चिर-दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख।।

जग पीड़ित है अति-दुख से
जग पीड़ित रे अति-सुख से,
मानव-जग में बँट जाएँ
दुख सुख से औसुख दुख से।।।

अविरत दुख है उत्पीड़न
अविरत सुख भी उत्पीड़न,
दुख-सुख की निशा-दिवा में
सोता-जगता जग-जीवन।।।।

यह साँझ-उषा का आँगन
आलिंगन विरह-मिलन का,
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का।।।।।

-सुमित्रानंदन पंत

जीना अपने ही में

जीना अपने ही मेंएक महान कर्म है
जीने का हो सदुपयोगयह मनुज धर्म है।
अपने ही में रहनाएक प्रबुद्ध कला है
जग के हित रहने मेंसबका सहज भला है।
जग का प्यार मिलेजन्मों के पुण्य चाहिए
जग जीवन कोप्रेम सिन्धु में डूब थाहिए।
ज्ञानी बनकरमत नीरस उपदेश दीजिए
लोक कर्म भव सत्यप्रथम सत्कर्म कीजिए।

-सुमित्रानंदन पंत

मोह

छोड़ द्रुमों की मृदु-छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को
तज कर तरल-तरंगों को
इन्द्र-धनुष के रंगों को।।
तेरे भ्रू-भंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
भूल अभी से इस जग को।
कोयल का वह कोमल-बोल
मधुकर की वीणा अनमोल।।।
कह, तब तेरे ही प्रिय-स्वर से कैसे भर लूँ सजनि! श्रवन?
भूल अभी से इस जग को
ऊषा-सस्मित किसलय-दल
सुधा रश्मि से उतरा जल।।।।
ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन?
भूल अभी से इस जग को

-सुमित्रानंदन पंत

झर पड़ता जीवन डाली से

झर पड़ता जीवन-डाली से
मैं पतझड़ का-सा जीर्ण-पात,
केवल, केवल जग-कानन में
लाने फिर से मधु का प्रभात,
मधु का प्रभात!लद लद जातीं
वैभव से जग की डाल-डाल,
कलि-कलि किसलय में जल उठती।।
सुन्दरता की स्वर्णीय-ज्वाल
नव मधु-प्रभात!गूँजते मधुर,
उर-उर में नव आशाभिलास
सुख-सौरभ, जीवन-कलरव से
भर जाता सूना महाकाश।
आः मधु-प्रभात!जग के तम में
भरती चेतना अमर प्रकाश
मुरझाए मानस-मुकुलों में,
पाती नव मानवता विकास
मधु-प्रात! मुक्त नभ में सस्मित
नाचती धरित्री मुक्त-पाश,
रवि-शशि केवल साक्षी होते
अविराम प्रेम करता प्रकाश।
मैं झरता जीवन डाली से
साह्लाद, शिशिर का शीर्ण पात,
फिर से जगती के कानन में
आ जाता नवमधु का प्रभात।।

-सुमित्रानंदन पंत

अमर स्पर्श

खिल उठा हृदय
पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय,

खुल गए साधना के बंधन
संगीत बना, उर का रोदन,
अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण
सीमाएँ अमिट हुईं सब लय,

क्यों रहे न जीवन में सुख दुख
क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख?
तुम रहो दृगों के जो सम्मुख
प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय।।

तन में आएँ शैशव यौवन,
मन में हों विरह मिलन के व्रण
युग स्थितियों से प्रेरित जीवन,
उर रहे प्रीति में चिर तन्मय।।

जो नित्य अनित्य जगत का क्रम,
वह रहे, न कुछ बदले, हो कम
हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम
जग से परिचय, तुमसे परिणय।।

तुम सुंदर से बन अति सुंदर
आओ अंतर में अंतरतर,
तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर
वरदान, पराजय हो निश्चय।।

-सुमित्रानंदन पंत


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