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राजधानी

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पता चला है।पता चल गया अम्बानी अमीर कैसे हो रहा है?स्कूल फीस मांग रहा, माँ बाप का डाटा जिओ खा रहा।लाईन में दुनियाँ आ गई, ऑनलाइन सब काम हो रहा।मौसम बेतुके हो गए, बेरोज़गारी का जामा ओढ़ कर। पढ़े लिखे विद्वान, कलम तख्ती छोड़कर आई फोन में खो गए।अभी पूंजीपतियों की रेल सरपट दौड़ी नही, आशियाना उजाड़ने का फरमान आ

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बच्चों का नाम जहाँ आता है वहां बचपने की एक तस्वीर आँखों के सामने आ जाती है, पर बदलते समय के साथ इस बचपन की तस्वीर धुंधली होती जा रही है। रोज़ाना हम सड़कों पर कूड़ा उठाते बच्चों को देखते हैं और उन्हें देखते ही हमारे ज़हन में बाल मजदूरी का ख़्याल आता है, पर मांजरा यहां कुछ औ

कुछ जरूरी काम से मुझे राजधानी दिल्ली आना पड़ा. दोपहर की कड़कती धुप के बीच ऑटो से दिलशाद गार्डेन मेट्रो स्टेशन की तरफ जा रहा था. सच बताऊ तो इस दौरान बशीर बद्र साहब की शायरी अचानक जुबां पर आ गई. सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत.दरअसल , जिस ऑटो पर मै बैठा

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