(मध्यवर्गीय परिवार के फ़्लैट का एक कमरा। एक महिला रसोई में व्यस्त है। घंटी बजती है। बाई दरवाज़ा खोलती है। रजनी का प्रवेश।)
रजनी: लीला बेन कहाँ हो...बाज़ार नहीं चलना क्या?
लीला: (रसोई में से हाथ पोंछती हुई निकलती है) चलना तो था पर इस समय तो अमित आ रहा होगा अपना रिज़ल्ट लेकर। आज उसका रिज़ल्ट निकल रहा है न। (चेहरे पर खुशी का भाव)
रजनी: अरे वाह! तब तो मैं मिठाई खाकर ही जाऊँगी। अमित तो पढ़ने में इतना अच्छा है कि फर्स्ट आएगा और नहीं तो सेकंड तो कहीं गया नहीं। तुमको मिठाई भी बढ़िया खिलानी पड़ेगी...सूजी के हलवे से काम नहीं चलने वाला, मैं अभी से बता देती हूँ।
लीला: हाँ रजनी तुम कुछ करोगी-कहोगी तो अगले साल कहीं और ज्यादा परेशान न करें इसे। अब जब रहना इसी स्कूल में है तो इन लोगों से झगड़ा।
रजनी: (बात को बीच में ही काटकर गुस्से से) यानी कि वे लोग जो भी जुलुम-ज्यादती करें, हम लोग चुपचाप बर्दाश्त करते जाएँ? सही बात कहने में डर लग रहा है तुझे, तेरी माँ को! अरे जब बच्चे ने सारा पेपर ठीक किया है तो हम कॉपी देखने की माँग तो कर ही सकते हैं...पता तो लगे कि आखिर किस बात के नंबर काटे हैं?
अमित: (झुँझलाकर) बता तो दिया आंटी। आप...
रजनी: (गुस्से से) ठीक है तो अब बैठकर रोओ तुम माँμबेटे दोनों।
लीला : (दनदनाती निकल जाती है। दोनों के चेहरे पर एक असहाय-सा भाव।) अब यह रजनी कोई और मुसीबत न खड़ी करे।
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हैडमास्टर: देखिए यह टीचर्स और स्टूडेंट्स का अपना आपसी मामला है, वो पढ़ने जाते हैं और वो पढ़ाते हैं। इसमें न स्कूल आता है, न स्कूल के नियम! इस बारे में हम क्या कर सकते हैं?
रजनी: कुछ नहीं कर सकते आप? तो मेहरबानी करके यह कुर्सी छोड़ दीजिए। क्योंकि यहाँ पर कुछ कर सकने वाला आदमी चाहिए। जो ट्यूशन के नाम पर चलने वाली धाँधलियों को रोक सके...मासूम और बेगुनाह बच्चों को ऐसे टीचर्स के शिकंजों से बचा सके जो ट्यूशन न लेने पर बच्चों के नंबर काट लेते हैं...और आप हैं कि कॉपियाँ न दिखाने के नियम से उनके सारे गुनाह ढक देते हैं।
हैडमास्टर: (चीखकर) विल यू प्लीज़ गेट आउट ऑफ दिस रूम। (शोर-शोर से घंटी बजाने लगता है। दौड़ता हुआ चपरासी आता है) मेमसाहब को बाहर ले जाओ।
रजनी: मुझे बाहर करने की शरूरत नहीं। बाहर कीजिए उन सब टीचर्स को जिन्होंने आपकी नाक के नीचे ट्यूशन का यह घिनौना रैकेट चला रखा है। (व्यंग्य से) पर आप तो कुछ कर नहीं सकते, इसलिए अब मुझे ही कुछ करना होगा और मैं करूँगी, देखिएगा आप। (तमतमाती हुई निकल जाती है।) (हैडमास्टर चपरासी पर ही बिगड़ पड़ता है) जाने किस-किस को भेज देते हो भीतर।
चपरासी: मैंने तो आपको स्लिप लाकर दी थी साहब। (हैडमास्टर गुस्से में स्लिप की चिंदी-चिंदी करके फेंक देता है, कुछ इस भाव से मानो रजनी की ही चि्ांदियाँ बिखेर रहा हो।) नया दृश्य
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(रजनी का फ़्लैट। शाम का समय। घंटी बजती है। रजनी आकर दरवाज़ा खोलती है। पति का प्रवेश। उसके हाथ से ब्रीफकेस लेती है।)
रजनी: देखो, तुम मुझे फिर गुस्सा दिला रहे हो रवि...गलती करने वाला तो है ही गुनहगार, पर उसे बर्दाश्त करने वाला भी कम गुनहगार नहीं होता जैसे लीला बेन और कांति भाई और हज़ारों-हज़ारों माँ-बाप। लेकिन सबसे बड़ा गुनहगार तो वह है जो चारों तरफ़ अन्याय, अत्याचार और तरह-तरह की धाँधलियों को देखकर भी चुप बैठा रहता है, जैसे तुम। (नकल उतारते हुए) हमें क्या करना है, हमने कोई ठेका ले रखा है दुनिया का। (गुस्से और हिकारत से) माई फुट (उठकर भीतर जाने लगती है। जाते-जाते मुड़कर) तुम जैसे लोगों के कारण ही तो इस देश में कुछ नहीं होता, हो भी नहीं सकता! (भीतर चली जाती है।)
पति: (बेहद हताश भाव से दोनों हाथों से माथा थामकर) चढ़ा दिया सूली पर।
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साथ में एक-दो महिलाएँ और भी हैं। फिर एक के बाद एक तीन-चार घरों में माँ-बाप से मिल रही है उन्हें समझा रही है। साथ में लीला बेन और तीन-चार महिलाएँ और भी हैं।)
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(किसी अखबार का दफ्तर। कमरे में संपादक बैठे हैं, साथ में तीन-चार स्त्रियों के साथ रजनी बैठी है।)
संपादक: आपने तो इसे बाकायदा एक आंदोलन का रूप ही दे दिया। बहुत अच्छा किया। इसके बिना यहाँ चीशें बदलती भी तो नहीं हैं। शिक्षा के क्षेत्र में फैली इस दुकानदारी को तो बंद होना ही चाहिए।
रजनी: (एकाएक जोश में आकर) आप भी महसूस करते हैं न ऐसा?... तो फिर साथ दीजिए हमारा। अखबार यदि किसी इश्यू को उठा ले और लगातार उस पर चोट करता रहे तो फिर वह थोड़े से लोगों की बात नहीं रह जाती। सबकी बन जाती है...आँख मूँदकर नहीं रह सकता फिर कोई उससे। आप सोचिए ज़रा अगर इसके खिलाफ़ कोई नियम बनता है तो (आवेश के मारे जैसे बोला नहीं जा रहा है।) कितने पेरेंट्स को राहत मिलेगी...कितने बच्चों का भविष्य सुधर जाएगा, उन्हें अपनी मेहनत का फल मिलेगा, माँ-बाप के पैसे का नहीं, ...शिक्षा के नाम पर बचपन से ही उनके दिमाग में यह तो नहीं भरेगा कि पैसा ही सब कुछ है...वे...वे...
संपादक: इसमें आप अखबारवालों को अपने साथ ही पाएँगी। अमित के उदाहरण से आपकी सारी बात मैंने नोट कर ली है। एक अच्छा-सा राइट-अप तैयार करके पीटीआई के द्वारा मैं एक साथ फ्लैश करवाता हूँ।
रजनी: (गद्गद होते हुए) एक काम और कीजिए। 25 तारीख को हम लोग पेरेंट्स की एक मीटिंग कर रहे हैं, राइट-अप के साथ इसकी सूचना भी दे दीजिए तो सब लोगों तक खबर पहुँच जाएगी। व्यक्तिगत तौर पर तो हम मुश्किल से सौ-सवा सौ लोगों से संपर्क कर पाए हैं... वह भी रात-दिन भाग-दौड़ करके (ज़रा-सा रुककर) अधिक-से-अधिक
लोगों के आने के आग्रह के साथ सूचना दीजिए।
संपादक: दी। (सब लोग हँस पड़ते हैं।)
रजनी: ये हुई न कुछ बात।
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(मीटिंग का स्थान। बाहर कपड़े का बैनर लगा हुआ है। बड़ी संख्या में लोग आ रहे हैं और भीतर जा रहे हैं, लोग खुश हैं, लोगों में जोश है। विरोध और विद्रोह का पूरा माहौल बना हुआ है। दृश्य कटकर अंदर जाता है। हॉल भरा हुआ है। एक ओर प्रेस वाले बैठे हैं, इसे बाकायदा फ़ोकस करना है। एक महिला माइक पर से उतरकर नीचे आती है। हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट। अब मंच पर से उठकर रजनी माइक पर आती है। पहली पंक्ति में रजनी के पति भी बैठे हैं।)
बहनों और भाइयों,
इतनी बड़ी संख्या में आपकी उपस्थिति और जोश ही बता रहा है कि अब हमारी मंजिल दूर नहीं है। इन दो महीनों में लोगों से मिलने पर इस समस्या के कई पहलू हमारे सामने आए...कुछ अभी आप लोगों ने भी यहाँ सुने। (कुछ रुककर) यह भी सामने आया कि बहुत से बच्चों के लिए ट्यूशन ज़रूरी भी है। माँएँ इस लायक नहीं होतीं कि अपने बच्चों को पढ़ा सकें और पिता (ज़रा रुककर) जैसे वे घर के और किसी काम में ज़रा-सी भी मदद नहीं करते, बच्चों को भी नहीं पढ़ाते। (ठहाका, कैमरा उसके पति पर भी जाए) तब कमजोर बच्चों के लिए ट्यूशन ज़रूरी भी हो जाती है। (रुककर) बड़ा अच्छा लगा जब टीचर्स की ओर से भी एक प्रतिनिधि ने आकर बताया कि कई प्राइवेट स्कूलों में तो उन्हें इतनी कम तनख्वाह मिलती है कि ट्यूशन न करें तो उनका गुज़ारा ही न हो। कई जगह तो ऐसा भी है कि कम तनख्वाह देकर ज्यादा पर दस्तखत करवाए जाते हैं। ऐसे टीचर्स से मेरा अनुरोध है कि वे संगठित होकर एक आंदोलन चलाएँ और इस अन्याय का पर्दाफ़ाश करें (हॉल में बैठा हुआ पति धीरे से फुसफुसाता है, लो, अब एक और आंदोलन का मसाला मिल गया, कैमरा फिर रजनी पर) इसलिए अब हम अपनी समस्या से जुड़ी सारी बातों को नज़र में रखते हुए ही बोर्ड के सामने यह प्रस्ताव रखेंगे कि वह ऐसा नियम बनाए (एक-एक शब्द पर शोर देते हुए) कि कोई भी टीचर अपने ही स्कूल के छात्रें का ट्यूशन नहीं करेगा। (रुककर) ऐसी स्थिति में बच्चों के साथ शोर-ज़बरदस्ती करने, उनके नंबर काटने की गंदी हरकतें अपने आप बंद हो जाएँगी। साथ ही यह भी हो कि इस नियम को तोड़ने वाले टीचर्स के खिलाफ़ सख्त-से-सख्त कार्यवाही की जाएगी...। अब आप लोग अपनी राय दीजिए।
(सारा हॉल, एप्रूव्ड, एप्रूव्ड की आवाजों और तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता है।)
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(रजनी का फ़्लैट। सवेरे का समय। कमरे में पति अखबार पढ़ रहा है। पहला पृष्ठ पलटते ही रजनी की तस्वीर दिखाई देती है, जल्दी-जल्दी पढ़ता है, फिर एकदम चिल्लाता है।)
पति: अरे रजनी...रजनी, सुनो तो बोर्ड ने तुम लोगों का प्रस्ताव ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया।
रजनी: (भीतर से दौड़ती हुई आती है। अखबार छीनकर जल्दी-जल्दी पढ़ती है। चेहरे पर संतोष, प्रसन्नता और गर्व का भाव।)
रजनी: तो मान लिया गया हमारा प्रस्ताव...बिलकुल जैसा का तैसा और बन गया यह नियम। (खुशी के मारे अखबार को ही छाती से चिपका लेती है।) मैं तो कहती हूँ कि अगर डटकर मुकाबला किया जाए तो कौन-सा ऐसा अन्याय है, जिसकी धज्जियाँ न बिखेरी जा सकती हैं।
पति: (मुग्ध भाव से उसे देखते हुए) आई एम प्राउड ऑफ यू रजनी...रियली, रियली...आई एम वैरी प्राउड ऑफ यू।
रजनी: (इतराते हुए) हूँ दो महीने तक लगातार मेरी धज्जियाँ बिखेरने के बाद। (दोनों हँसते हैं।)
(लीला बेन, कांतिभाई और अमित का प्रवेश)
लीला बेन: उस दिन तुम्हारी जो रसमलाई रह गई, वह आज खाओ।
कांतिभाई: और सबके हिस्से की तुम्हीं खाओ।
(अमित दौड़कर अपने हाथ से उसे रसमलाई खिलाने जाता है पर रजनी उसे अमित के मुँह में ही डाल देती है।)
(सब हँसते हैं। हँसी के साथ ही धीरे-धीरे दृश्य समाप्त हो जाता है।)