"तूने राज सर को कोट (quote) दिया? मैंने तो बड़ी प्यारी सी लाइंस लिखी थी उनके लिए आर्चीज के कार्ड पर।" दिशा ने चहकते हुए सहेलियों के बीच आकर एनाउसमेंट की।
"वाउ! उन्होंने एक्सेप्ट कर लिया?
बट हाउ? लकी गर्ल।"
बारहवीं की फेयरवेल पार्टी के बाद लड़कियां एक-दूसरे से चुहलबाजी करती हुई स्कूल गेट पर खड़ी है। यही वह द्वार है जिसके बाहर जाते ही उनके विद्यार्थी जीवन का एक अति महत्तवपूर्ण अध्याय समाप्त हो जाएगा और द्वार के बाहर दिखती हुई यह जानी पहचानी सड़क विभिन्न दिशाओं में जाते हुए उन्हें ले जाएगी अनंत संभावनाओं के संभावित लक्ष्यों की ओर।
इनमें से कुछ बालाएं ऐसी हैं जो महान वैज्ञानिक बनकर प्रकृति के रहस्यों की परतों को खोलने का प्रयास करेंगी, वहीं कुछ गैलीलियो, न्यूटन और आइंस्टाइन की कोटि में जाने की चेष्टा करेंगी तो कुछ मदर टेरेसा की तरह दूसरों की सेवा करना चाहती हैं। कुछ ऐसी भी महान हस्ती बलाएँ हैं, जिन्हें न तो इस क्षणभंगुर संसार में वैभव चाहिए ना कोई पद, उनका एकमात्र लक्ष्य है अमीर पति को प्राप्त करना और घर-गृहस्थी की गाड़ी खींचना।
तीन महीने पहले मैथ्स की पीजीटी टीचर के मातृत्व अवकाश पर जाने के कारण उनकी जगह मैथ्स के नए टीचर राज सर आए थे, पर वो टीचर लगते ही नहीं हैं। वजह यह है कि वो बहुत ही यंग और हैंडसम हैं और साथ में इंट्रोवर्ट भी। पीली रंगत लिए हुए हिन्दुतानी गोरा रंग, कद लगभग पांच फुट ग्यारह इंच, उठे हुए जेल से सँवारे हुए बाल, डेनिम जीन्स के ऊपर सफेद शर्ट, यह रूप नवपल्लवित हृदयकुसुमों पर बिजली गिराने के लिए काफी है।
लेकिन राज सर ने अपने गुरु होने की छवि को कभी धूमिल नहीं होने दिया और सदा ही गुरु गंभीर बने रहे। कभी किसी को भी ज्यादा लिफ्ट नही दी, बस अपने काम से काम।
जब वो ब्लैक बोर्ड पर ट्रिग्नोमेट्री पढ़ाते तो अंतिम पंक्ति की ढीठ और बहु-प्रतिभावान छात्राओं का सिरजुड़ाऊ त्रिकोणमितीय सम्मेलन गड़बड़ा जाता और वे एकाग्रचित होकर काले बोर्ड पर सफेद रेखाओं में ही अपना भविष्य तलाशने की असंभव कोशिश करतीं। डिफ्रेंसिएशन पढ़ाते हुए उन्हें किसी भी छात्रा में कभी कोई अंतर प्रतीत होता हो, ऐसा तनिक सा भी आभास कभी किसी को नहीं हुआ। इंटीग्रेशन का चैप्टर शुरू होने पर भी एकीकरण की कोई भी रणनीति काम नहीं आई और प्रोबेबिलिटी का लास्ट चैप्टर आते-आते तो अति क्षीण संभावना ने भी दम तोड़ ही दिया। इसलिए कुछ दिनों हेल्थी फ्लर्ट की कोशिशों के बाद लड़कियों ने उन्हे 'क्यूट इडियट' के नाम से नवाज दिया।
खैर, आज तो फेयरवेल हो गई, इसलिये कल से स्कूल आना नही है। और यह याद आते ही सब छात्राओं के मन में एक टीस सी उठी कि अब हम लोग कभी नहीं मिलेंगे! सबके साथ मोबाइल नंबर एक्सचेंज करने के बाद कुछ उत्साही लड़कियां राज सर के पास भी गईँ थीं पर उस ' क्यूट इडियट' ने बड़ी ही रुखाई से मना कर दिया।
"मैं तो यहां पर टेंपररी अरेंजमेंट पर हूँ, मोबाइल नंबर किसलिए चाहिए?"
कुछ दिनों बाद बारहवीं का रिजल्ट आने पर सब अपने-अपने कॉलेज एडमिशन में व्यस्त हो गए और अंततः धीरे धीरे आपस में बातचीत भी बहुत कम हो गई।
इन्ही लड़कियों में से एक लड़की 'अनुभा चौहान' का कॉमर्स में स्नातकोत्तर करने के बाद इनकम टैक्स विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर चयन हो गया।
ट्रांसफरेबल जॉब में अकेले रहते हुए लेखिनी को ही उसने अपना साथी बना लिया। कोरे कागज पर कभी वह कवितायें लिखती और कभी कोई कहानी। जैसे कोई नौनिहाल दीवार पर अपना प्रथम सांसारिक चित्र बना रही हो। एक अच्छा नहीं बना, तो दूसरी दीवार पर पिकासो बनने की कोशिश करती हुई यह नौनिहाल लेखक बच्ची एक दिन अपनी आत्मकथा लिखने बैठी तो नायिका का नाम रखा, 'समिता' जिसमें उसके पापा प्यार से उसे कभी-कभी 'मीता' कहते।
.......
"राम वही जो सिया मन भाये"
मैं समिता, यानी घर की लाडली बेटी, पापा की परी नहीं, पापा का अभिमान और उनकी दोस्त भी।
मेरे घर में एक छोटी बहन, एक भाई और मम्मी हैं बस! छोटा सा सुखी परिवार। मम्मी कभी-कभी झुंझलाकर समिता से कहती है "तुझमे लड़कियों से ज्यादा लड़कों के गुण हैं।"
वो इठला कर कहती "पर हूँ तो इंसान ना! थोड़ी जिम्मेदार, थोड़ी नासमझ, थोड़ी नकचढ़ी और थोड़ी जिद्दी भी" और मम्मी के गले में बाहें डालकर ठठाकर हँस पड़ती।
सुबह-सुबह आफिस जाने की जल्दबाजी में कुर्ते के गले में से अपना सिर बाहर निकालती हुई ही बाथरूम से बाहर आते हुए चिल्लाती, "मम्मी मेरी चुन्नी नहीं मिल रही...... यार!...मम्मी!.. मेरा बैग कहाँ है?"
"ये लड़की भी ना! अभी तक बड़ी नही हुई। पता नहीं आफिस कैसे संभालेगी?" मम्मी लंच बॉक्स को बंद करती हुई किचेन से निकलती और उसके हाथों में थमाती हुई गुस्से से बड़बड़ाती।
"मुझे पूरा आफिस नहीं संभालना है, केवल अपनी सीट देखनी है।" मैं लंच बॉक्स बैग में डालते हुए जवाब देती, मम्मी के हाथ से चुन्नी झपटती और चप्पलों में पैर फंसाती हुई, आफिस के लिए भागती। धीरे-धीरे ये भाग दौड़ मेरे जीवन का स्थायी हिस्सा बनने लगी।
तीन-चार साल बीतते बीतते, मेरे माता-पिता को मेरी शादी की चिंता सताने लगी। कभी लड़के वालों को मैं पसंद नही आती, कभी मुझे उनका दहेज लेना और लड़के का स्वभाव। लेकिन ऐसा कब तक चलता? एक दिन पापा ने एक लड़के के साथ मेरी बात पक्की कर दी।
पर पता नही क्यों, मैं उससे अपने आप को जोड़ नही पा रही थी। यह बात शायद पापा को समझ आ रही थी इसलिए लड़के वालों के बार-बार कहने पर भी उन्होंने अभी तक किसी फॉर्मल सेरेमनी के लिए हां नही की थी।
लेकिन जल्दी ही लड़के वालों ने जल्दी शादी के लिए दवाब बढ़ाना शुरू कर दिया। और कहीं बात जम नही रही थी, तो मन मारकर पापाजी और हमारे दूर के रिश्ते के एक मामाजी सगाई की तारीख पक्की करने लडके वालों के यहां चले गए। लेकिन जो एक खुशी वाली बात होती है वो किसी के भी चेहरे पर नही थी। अलबत्ता, मम्मी के चेहरे पर जरूर एक राहत का भाव आ गया था कि चलो फाइनली कहीं तो फाइनल होने जा रहा है, बाद में सब ठीक हो जायेगा ।
"अरे! समिता...... समिता की मम्मी ...... कहां हो भई! चाय- वाय पिलाओ!" पापाजी ने वापिस घर में घुसते हुए आवाज लगाई।
उनकी आवाज में खनकती खुशी देखकर सब खुश हो गए। छोटी अपनी किताबें टेबल पर ही फेंक कर, चाय बनाने किचेन में चली गई और मम्मी पापा के पास जाकर सिर पर पल्ला रख कर बैठ गईं। किसी बड़े के सामने तो वो सर पर पल्ला रखतीं ही है, पर किसी महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर बातचीत करने से पहले सर पर पल्ला खींचकर बैठना कभी भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा।
एक इकलौती मैं ही, बुझी सी, झुकी गर्दन लिए परदे के पीछे से उन लोगों की बातें सुनने लगी।
"क्या फाइनल हुआ? कब की कह रहे है? " मम्मी अपनी उत्सुकता दबा नही पाई।
पापाजी ने मुस्कराते हुए छोटी-छोटी चमकती आंखों से मामाजी की तरफ देखा और कहा, "भई! तुम ही बताओ"।
मामाजी ने कुर्ते का कॉलर ऊपर खींचा, गला खंखारा और बड़ी गंभीर मुद्रा में सबको ताका। जब उन्हें विश्वास हो गया कि पब्लिक की पूरी अटेंशन उनकी तरफ है तो संजीदगी से कहा "देखो जिज्जि! हमें वो लड़का तो पसंद आया नही।"
मम्मी ने परेशानी और बौखलाहट से पापाजी की तरफ गर्दन घुमाइ पर मैंने राहत की लंबी सांस ली। लेकिन टेबल पर चाय की ट्रे रखती छोटी की ट्रे से थोड़ी सी चाय छलक कर उसके हाथ पर गिर ही गई।
"इसलिए हम जीजाजी को अपनी एक दूर की बहन का लड़का दिखाने ले गए। घर-वर ठीक है। उन्हे लड़की की नौकरी से कोई परेशानी नहीं है। जो दहेज दोगे वही ले लेंगे। जिज्जि! हम तो 1100 रुपए लड़के के हाथ पर रख कर रिश्ता पक्का कर आए हैं। सगाई की तारीख पंडित जी से निकलवा लो, तो उन्हे भी बता दें।" बम फोड़ कर मामाजी चले गए।
मुझे काटो तो खून नहीं। उस लड़के और उसकी फैमिली को कम से कम देखा तो था और बातचीत भी की थी। इसको तो .....ऐसे कैसे किसी को बिना देखे ही?...... अब तो वो जमाना भी नही है। और क्या......नौकरी से दिक्कत नही है, दहेज भी? माय फुट! इसीलिए बिना लड़की देखे मान गए!
"मुझे लड़का देखना है" मैने भी एक बम गिरा ही दिया।
"पागल हो गई हो क्या? जब वो मान गए तो तुम्हे क्या दिक्कत है? और अगर तुम्हें देखकर लड़के ने मना कर दिया तो....?"
पर मैं ठहरी जिद्दी, नहीं मानना था तो नहीं मानी और मामाजी को भेजना पड़ा उनसे यह बात किसी और तरीके से कहने के लिए ताकि उनको बुरा ना लगे।
अगले सोमवार को रात दस बजे का दिन ....नहीं....नहीं... रात पक्की हुई।
"वर्किंग डे ? वो भी रात दस बजे। ?" मैं फिर भुनभुनायी।
"क्योंकि लड़का दिन में जॉब करता है और इवनिंग कॉलेज BE (इलेक्ट्रिकल) कर रहा है।" छोटी ने अपने दोनों हाथ कमर पर रखकर बोलते हुए ज्ञान बघारा।
"ठीक है !" मैने भी सहमति दे दी।
क्रमश: