जब इस दुनिया में हमारा पदार्पण होता है तो कुछ रिश्ते हम अपनी मुट्ठी में बंद करके लाते हैं और वह मुट्ठी मरने तक खुलने नहीं देते। कुछ रिश्ते हम अपने पड़ोस और समाज में बनाते हैं, कुछ को ताउम्र निभाते भी है। लेकिन हर रिश्ता प्रेम और विश्वास पर ही आधारित होता है, जिसे हम अपनी आत्मीयता से सींचते है। यदि हम किसी अपरिचित व्यक्ति से अच्छा व्यवहार करेंगे तो उसे भी हम अपना बना लेते है पर अगर अपने स्वजनों से भी कटु व्यवहार करेंगे तो हमारे रिश्ते उनसे भी खराब हो जायेगें, जिनको निभाना नामुमकिन हो जाएगा। ऐसे रक्त सम्बंधी रिश्ते, जो हम बंद मुट्ठी में लेकर आते है, जन्म लेते ही हमारे साथ स्वतः जुड़ जाते हैं। परन्तु कुछ रिश्ते, समय के साथ अपने अस्तित्व का बोध कराते हैं।
लेकिन सच तो ये है कि रिश्ता चाहे कोई भी हो, हर रिश्ते का आधार संवेदना होता है। सम और वेदना, यानि कि सुख-दुख का मिलाजुला रूप जो प्रत्येक मानव को धूप - छाँव की भावनाओं से सराबोर कर देता हैं। रिश्तों रूपी सरिता में सभी भावनाओं और आपसी प्रेम की धारा के प्रवाह में बहते हुए हम, इस कलयुग की वैतरणी को पार कर जाते हैं। अपनेपन की यही धारा इंसान के जीवन को सबल बनाती है, वरना अकेले इंसान का जीवित रहना भी संभव नही है।
सुमधुर इंसानियत के रिश्ते ही इंसान की असली फितरत का आईना होते हैं । समय के साथ इन रिश्तों को संयम, सहिष्णुता तथा आत्मियता रूपी खाद पानी की आवश्यकता होती है। लेकिन फिर भी कुछ रिश्तेदार उसमे मट्ठा डाल ही देतें हैं।
मेरी बुआ की दूर की एक रिश्तेदार एक दिन हमारे घर मिलने आईं और बातों-बातों में उन्होंने बताया कि -
"बहनजी लड़का तो श्रवण कुमार है पर मां........! ना! ना! सब ठीक है।
अब क्या कहें? थोड़े कंजूस लोग है, पैसा दांत से पकड़ते है। किसी के यहां देना हो तो नही जाते, लेना हो तो पहले पहुंचते हैं, बाकी तो सब ठीक ही है।
दहेज की बात क्लियर नही की अभी तक!!!!! उनके सगे भतीजे की शादी टूट गई पिछले हफ्ते। लगन में अचानक 10 लाख रुपए मांग लिए। लड़की वालों ने तो हाथ खड़े कर दिए, बाकी सब ठीक है।
उनकी लड़की की शादी को पांच साल हो गए पर यहीं मायके में पड़ी रहती है, बाकी तो सब ठीक है।
लड़के की मां जरा जुबान की तेज है और दिल तो खैर किसने देखा है ? कॉलोनी की सब बहु बेटियां डरती है उनसे, बाकी तो सब ठीक है।
पैसों की कोई कमी नहीं है, पर जेब से निकलता ही नही, बाकी तो सब ठीक है। "
आखिरकार दूर की बुआजी दोलोदिमाग में खलबली मचाकर विदा हुईं।मेरा तो दिल बैठ गया। मुझे तो राम चाहिए, ये तो श्रवण कुमार निकला!
"कोई बात नही सब ठीक है, वहम में मत पड़ो।" पापा ने कहा।
"कोई बात कैसे नही? दहेज की बात क्लियर करनी पड़ेगी। कल ही आप बात करके आओ जी।" मम्मी की परेशानी अलग है और मेरी अलग।
उधर से राज के पापा का फोन आया। "आप लोगों ने बताया ही नहीं कि लड़की की नौकरी ऑल इंडिया ट्रांसफरेबल है। कल को ट्रांसफर हो गया उसका तो ? हमारा लड़का तो नही जायेगा। और लड़की की हाइट कितनी है?"
"लो कर लो बात। वो तो ऑब्वियस है। इसमें बताने वाली क्या बात है। चलो कल जाते है उनके घर। शादी करनी हो करे नही तो ना करें।" पापा का मूड ऑफ़ हो गया। मेरा तो ऐसा सिर घूमा कि खाना-पीना सब बंद हो गया।
पता चला कि बुआजी की सो कॉल्ड दूर की रिश्तेदार जो हमारी हमदर्द बन कर आई थी, वो वहां भी गई थी हमदर्दी जताने। सो ये सब किया धरा उनका ही है।
दोनो तरफ तल्खियां थोड़ी बढ़ गईं। अनेक सवाल जवाब किए जाने लगे। ऐसा लग रहा था कि इंडिया पाकिस्तान के बॉर्डर पर दोनों देशों के कर्मठ सैनिक एक-दूसरे पर दनादन गोलियाँ दाग रहे है। लेकिन इस बात का भी ख्याल रखा जा रहा था कि दुश्मन केवल घायल हो मरे नहीं। कभी-कभी तो केवल एक छोटा सा कंकड़ ही फेंक दिया जाता और उसकी पुष्टि की जाती कि लगा या नहीं।
एक शाम मैं ऑफिस से निकली तो देखा बाहर राज खड़े मेरा इंतज़ार कर रहें है। हम लोग जाकर कनॉट प्लेस के कॉफी हाउस में बैठे। वे इस तनातनी के माहौल से काफी परेशान थे।
बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि मुझे तो वह मेरी फोटो देखते ही पहचान गए थे। मेरी अच्छी जॉब है, मैं इंडिपेंडेंट हूं, ये जानकर, उन्हें देखने-दिखाने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई इसलिए मुझे बिना देखे ही हाँ कर दी थी। उन्हें यह पहले से ही आभास था कि उनके घर में घरेलू लड़की का तो जीना ही दुश्वार हो जायेगा, इसलिए उन्हें अपने और घर के लिए एक इंडिपेंडेंट और सुलझी हुई लड़की चाहिए थी। क्योंकि वक्त तो बदला है लेकिन उनकी फैमिली के ख्यालात वही 40 साल पुराने है, जिसे बदलने की उन्होंने काफ़ी कोशिश की लेकिन बदल नही पाए।
उन्होंने और भी बहुत सी बातें बताई। "हां घर में कंजूसी तो होती है, पर उसमें बुराई क्या है? मम्मी जरा जुबान की तेज हैं, तो तुम्हे कौनसा दिन भर घर में रहना है? कॉलोनी की सब बहु-बेटियां डरती है उनसे, तो उनके सामने तुम्हे बहादुर बनने की जरूरत ही क्या है?" मेरे घर पर मुझे झोड़ते हुए उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया कि उनके रहते मुझे किसी प्रकार की परेशानी नहीं होगी।
फिर एक दिन राज की मम्मी का फोन आया।
"समिता किस स्कूल में पढ़ती थी?
"जी सी10 वाले में।"
"अच्छा राजू (राज) भी उसी में पढ़ता था और कुछ दिन पीछे पढ़ाया भी तो उसी में था। अच्छा! तो ये बात हैं! भाईसाब (मामाजी) ने तो बहुत बड़ा खेल खेला हमारे साथ। कुछ हवा ही नही लगने दी। तभी मैं कहूं, फोटो देखते ही तैयार बैठा था हां करने को।"
मैं, मेरे पेरेंट्स, मामाजी और राज समझा-समझा कर हार गए कि ऐसी कोई बात नहीं है, पर उनको ना मानना था ना उन्होंने माना। उनकी नजरों में हमारी लव मैरिज थी वो भी उनको बताए बिना। घोर कलयुग..... नारायण! नारायण!
अब तो उनकी शक की सूई रात-दिन हमारी तरफ ही घूमी रहती। राज के घर से निकलते ही हमारे घर फोन आता कि समिता कब निकली थी। राज थोड़ा शाम को लेट हो जाते तो हमारे घर फोन आता कि मैं पहुंची हूँ या नहीं?
खैर थोड़े दिनो में हमे ये सब एडजस्ट करना आ ही गया। निहायत ही सुनहरे दिन थे वो।
अब पंडितजी से पत्रा विचरवा कर, शादी की तारीख तय करनी थी। मेरी मम्मी ने राज की मम्मी से कहा कि आप भी अपने पंडितजी से पूछ लो और हम भी अपने पंडितजी से पूछ लेंगे। फिर जो डेट सुविधाजनक लगेगी, डिसाइड कर लेंगे। पर उन्होंने जवाब दिया "आप ही पूछ लो, दो पंडितों से क्यों पूछना!"
हुंह! कंजूस कहीं के!
क्रमश: