सोमवार को आफिस में मेरा मन नहीं लगा। सारे दिन पेट में खलबली सी मची रही। वो कहते है ना! "बटरफ्लाईज इन स्टमक" टाइप की फीलिंग आ रही थी। फिर भी कर्म ही पूजा को ध्येय मानने वाली इस लड़की को अपने काम के साथ कोई नाइंसाफी मंजूर नहीं है। इसलिए मन को काबू में रखकर और ध्यान को भटकन से भटका कर मैंने अपना कार्यालयीन कार्य समय से निपटा ही लिया।
शाम 6 बजे कार्य से निवृत होने के बाद संतुष्टि की एक गहरी सांस ली, अपने मन को समेट कर बैग में डाला और अपनी ख्वाइशों को कंधे पर लटकाकर, यथार्थ के धरातल की बस पकड़ने बस स्टॉप पर चल दी।
बस में आंखे मूंदकर बैठी तो बचपन के दिन चलचित्र की भांति मानस-पटल पर भागने लगे। छोटी थी तो कितने मजे थे। न कोई आज की चिंता, न कोई कल की फिकर। सारा साल पढ़ाई करके मम्मी-पापा पर एहसान जताओ, गर्मियों की छुट्टियों में गांव में जाने पर गन्ने का ताजा गुड़ खाओ, कच्चे पक्के आम तोड़ो और सहेलियों के साथ सुबह शाम खेत में जाओ। अब तो.....
यही सोचते-सोचते निया के घर का स्टॉप आ गया। स्टॉप के आस-पास बनी झोपड़ियों के पास भीड़ लगी थी।
"अरे चट्टान का हाथ टूट गया। सामने वाली छत पर पतंग लूटने गया था और देखो इसकी मां को! डॉक्टर के पास भी नहीं ले जा रही।" वहां खड़ी एक औरत हाथ नचा कर बोली।
"चट्टान को ले जाइए ना प्लीज़ नहीं तो हाथ खराब हो जाएगा इसका। पैसे नहीं है तो मैं दे देती हूँ।" मैने स्थिति को परखते हुए उस लड़के की मां से कहा।
लड़के की माँ ने खा जाने वाली नजरों से मुझे देखा और फिर पलटकर दो थप्पड़ उस चट्टान नाम के लड़के को मार दिए। वह बिचारा लड़का गला फाड़कर रोने लगा। उसकी मम्मी ने दूसरे हाथ मे ली हुई मुठ्ठी भर चीनी चट्टान के मुँह में ठूंस दी, भीड़ को हिकारत भरी नजर से देखा और उसका दूसरा हाथ पकड़कर बोली "चल ! पल्लू पहलवान के पास। नासपीटे दोपहर को भी आराम न करने दे है।"
मेरा मूड ऑफ हो गया। कितना विरोधाभास है अमीर और गरीब लोगों में। अमीर अपने बच्चों को कितनी नफासत से पालते है और बच्चों के लिए तरसते रहते हैं वही बच्चे बड़े होकर विदेश में बस जाते हैं और उनके मां-बाप अनाथाश्रम में रहते है। जबकि गरीब ........ आह! उनके घर बच्चों की लाइन लगी होती है। बड़ा बच्चा पांच साल में इतना बड़ा हो जाता है कि दूसरे बच्चो की जिम्मदारियां उठाता है और बुढ़ापे में अपने मां-बाप को भी संभालता है।
घर पहुंच कर मैंने फ्रेश होकर चाय पी ट्यूशन के बच्चों को भी जल्दी ही पढ़ाकर छुट्टी दे दी और एक मैगज़ीन ले कर बैठ गई।
"फिर घुस गई किताब में! अरे! तैयार हो जा बेटा, वे लोग आते ही होंगे।"
रात साढ़े दस बजे लड़के और उसकी बहन का आगमन हुआ। समझ नही आ रहा था चाय दी जाए या फिर डिनर। पर फिर रिवाज के मुताबिक चाय ही दी गई।
कुछ औपचारिक और कुछ राजनीतिक बातों के बाद मुझे बुलाया गया। वैसे मैं बहुत शेर हूँ पर पता नही क्यों उस वक्त गर्दन झुकाकर बैठ गई और लड़के की बहन के दागे गए सभी सवालों के जवाब बड़े नाप-तौल कर दिए। जब उनके सवालों का पिटारा खाली हो गया तो मैं उनकी करीने से बांधी गई साड़ी और उसका बॉर्डर देखने में व्यस्त होने का नाटक करने लगी, जबकि मैं लड़के को देखना चाहती थी जो मेरे बराबर में बैठा था। वहीं उसकी दीदी की निगाहें मेरे लंबे और तराशे हुए पेंटिड नेल्स पर अटक कर रह गईं। जब हम ननद-भाभी की एक दूसरे को ताड़ने की रस्म से भी दिल भर गया तो मेरे दिमाग की खुराफात चालू हो गई।
मुझे लगा लड़का गूंगा है क्या! या फिर शायद उसे शादी में इंटरेस्ट ही नही है। या फिर शायद मैं पसंद नही आई या घर पसंद नही आया। नही.... इस टाइम तक थकान हो गई होगी। शायद.........…
और तभी मेरी सोच पर ब्रेक लगाते हुऐ लड़के की बहन बोली,
"तुम दोनो आपस में बात कर लो भई! मेरे सामने शरमा रहे होगे।" और फिर सभी हम दोनों पर नजर डालते हुए उठकर दूसरे कमरे में चले गए।
"क्या जानना है आपको? मेरी फोटो पसंद नही आई थी? समय निकालना कितना मुश्किल है पता भी है आपको? उसने कहा।
"इतनी धौंस और बेरुखी! बच्चू! मैं मना ही कर देती हूं। तब पता चलेगा!" मैंने मन ही मन उसको जवाब दिया।
पर प्रत्यक्षत: बोला, "आप तो मुझे अब भी पसंद नही है!"
लेकिन यह कहकर जैसे ही मैंने उसकी और देखा, मेरे तो होश उड़ गए। राज सर.....
"सॉरी सर! मैं तो.... उसे.... आप...? वो लड़का कहां है?"
मुझे उस बदतमीज लड़के पर इतना गुस्सा आ रहा था कि पूछो मत। तो क्या राज सर उसके रिश्तेदार है? वाउ! मैं कल फ्रेंड्स को बताऊंगी।
"रिलेक्स ! शायद मैं थकान में कुछ ज्यादा ही बोल गया। मैं ही आपको देखने आया हूं। पूछिए! क्या जानना है मेरे बारे में? और हां, सर मत बोलिए, मेरा नाम राजेंद्र प्रताप सिंह है।" राज सर ने कहा।
मैं तो सातवें आसमान पर थी। जिस हैंडसम सर के लिए आधा स्कूल दीवाना था, वो मेरे सामने है। मेरी उनके साथ शादी होगी। सो कूल यार!
"मुझे आप पसंद है। आप को कुछ जानना था मेरे बारे में, पूछिए।" राज सर ने अबतक मेरा कोई जवाब ना पाकर बोला।
"BE में क्या-क्या सब्जेक्ट्स हैं आपके पास?"
"बस ये जानना था?"
"नहीं! ...आपको किस लेखक की बुक्स पढ़ना पसंद है?"
मेरे दिमाग से उनकी सर वाली इमेज निकल ही नही रही थी। और एक मिनिट, राज सर ने मुझे पहचाना ही नहीं? मैं! फ्रंट मिडिल रो (row) की पढ़ाकू लड़की ...को।
"आप भी मुझे पसंद है।" मैने धीरे से कहा।
बस हमारी इतनी ही बातचीत हुई प्रथम औपचारिक मीटिंग में और फिर डिनर के बाद सभी चले गए। लेकिन उस रात इतनी सुकून की नींद आई, जैसी पहले कभी नही आई थी । घर में सभी बहुत ही खुश थे।
एक हफ्ते बाद सगाई हो गई.....मेरी, राज सर मतलब राज की नहीं। क्योंकि वह सगाई में आया ही नहीं क्योंकि उनके यहां सगाई में लड़के नही जाते। लड़के की बहन होने वाली भाभी को अंगूठी पहना देती है और हो गई सगाई। हा! हा! क्या वाहियात रिवाज है।
अगले दिन मैंने ढूंढ ढूंढकर अपनी सारी फ्रेंड्स को इस बारे में बताया। मेरी खुशी संभाले नहीं संभल रही थी। कुछ सहेलियां तो मरी जलभुन कर राख हो गईं।
पर कहते है ना ज्यादा खुशी को नजर लग जाती है। तो एक दुर्घटना मेरा इंतजार कर रही थी।
क्रमश...