वेलु नामका एक छोटासा तालुका, आसपास जंगल का ईलाका वहाँ सबकुछ था!
था! हा था!
एक सिनेमा टाकी. एक नगर परिषद, एक इतिहास कालीन छोटा कॉलेज
कॉलेज में बहोत से पेड़, पौधें.अनेक वृक्ष वो सब कॉलेज मे नहीं थे, उनमें कॉलेज था
बारीश के दिनों में आड़े टेढ़े लालजर्ध फुल शरीर पर धारण किए एक् लाइन में खड़े,
आने जाने वाले रास्ते के दुतर्फा अपने फूलों की वर्षा वो लड़की वो पर कर देते,
बहारों फुल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है...
कैंटिग् का पुराना रेडियो यही गाना बजाता अक्सर् नहीं कभी कभी..
फिर लाल फुल हम खा लेते बड़े ही टेस्टी वाले लगते
कॉलेज के पीछे पुरा सागवान वृक्षों का सीधा जंगल था बिलकुल सीधा.
पढाई के लिए वो अच्छी जगह थी, पर इतनी अच्छी भी नहीं नीचे की काली मिट्टी पैरों को काटती.
पर उपर के साग के पत्ते एक नरम सी छाँव देते, एक सुकुन भरा अहसास.
जो Ac की हवा मुझे कभी नहीं दी सकती.
जो ताजगी मुझे वसंत देता है
पत्ते खिलते है..
फुल गिरते है..
हम हरबार एक नया इज़हार करते है...
वो भी इसी ऋतु मे,
श्री कृष्ण भगवान गीता मे कहते है सब ऋतु ओ मे मैं वसंत ऋतु हु..
इसे पुरानो मे कामदेव का छोटा पुत्र भी कहाँ गया है.
ये बात मुझे उसी कॉलेज मे पता चली पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर मेरे एक पागल मित्र ने मुझे ये बताया...
और ये भी बताया की, हमें पेड़ लगाने की कोई जरूरत नहीं है बस हम सारे इंसान इस पृथ्वी से नामशेष हो जाए फिर पेड़ उग आएँगे हर जगह.. हर जगह फैलेगी हरियाली
बाद मे वो मित्र मर् गया, लोग कहते है सुसाइड था पत्ते की तरहा बिखर गया उसका सारा जीवन, या तो उसीने सारा जीवन एक पत्ते मे समेटा होंगा और पीपल के नीचे बैठ कर उसे वही बात पता चल गई होंगी जो कभी बुद्ध जान गया होंगा और बहोत जोर से हँसा होंगा...
उस समय सारा कॉलेज, पुरा वेलु तालुका, और सारे पेड़, पौधें उस पुरातन असीम दुःख से भर गए थे!
और वसंत फुट फुट के रो रहा था, लेकिन आँसू नहीं निकल रहे थे!