आज कुसुम बहोत खुश थी, घर की साफ- सफाई हो गई थी दीवारों पे नया रंग लगा था, दरवाजो पर फूलो के हार, और आंगन मे रंगोली बनी थी।
कुसुम को देखने आज विनयबाबू आ रहें थे।
वो दोपहर को आ गये, उनको कच्ची सड़क से घर तक शरद ही लेकर आया।
शरद खेत का सारा काम देखता था बचपन से घर मे ही था कई सालों पहले जब कुसुम पैदा भी नहीं हुई थी तब पिताजी को वो बस्टैंड पर पड़ा मिला था एक अर्भक् के रूप मे, उसके गले मे रस्सी बांध कर एक क्यारी बैग में डालकर किसने उसे नाली के पास फेका था।
वो आज नाराज़ था बहोत बहोत नाराज क्यु की उसे पता था विनयबाबू तो कुसुम के साथ कॉलेज मे ही पड़ते थे और बहोत चाहतें भी थे ऊसे वो ईसलिए शादी तो एकदम पक्की थी, फिर कुसुम परदेश चली जाएगी न जाने कब फिर मुलाकात होंगी फिर कब उसे मै देखुंगा ऐैसा वो सोच रहा था।
ये दौर था १९४७ का।
विनयबाबू कराची के रहने वाले थे और कुसुम थी महाराष्ट्र के कोकन के एक छोटे गाव से।
पढाई ने दोनों को मिला दिया था। विनयबाबू की माँ ने भी हा कर दी थी माँ के सीवाय ऊनका था भी कौन, सब खुश थे बहोत खुश।
लेकिन एक राज की बात बताऊँ...कुसुम के पीता जी नहीं जानते थे की विनय और कुसुम पहलें से एकदुसरे को जानते है.. ये तो शरद ने दिमाग लढाया और पंडित जी को बिच मे लेकर लव शादी को अरेंज शादी में बदल दिया...
शादी हो गई कुसुम चलीं गई घर बहोत सुना सुना लग रहा था।
शरद थोड़ा उदास जरूर था। लेकिन ऊसे एक खुशी थी..
उसने कुसुम को घर दिया था। उसका अपना घर जैसे पीता जी ने बचपन में उसे दिया था उसका अपना घर...
शरद ने फिर हाथ में आज का ताजा पेपर लिया और वो पढनें लगा।
पढतें पढतें उसका हाथ सुन्न पड गया और शरीर बरफ की तरहा एकदम थंडा।
वो खबर थी बटवारें की.. ऊस पेपर मे लाशें लाशें और लाशें ही बीछी थी...
विनयबाबू कुसुम, कुसुम विनयबाबू.... वो इतना ही बडबडा रहा था।
हाथ से पेपर कब निचे गिरा, ये डूबती हुई आँखों को पता भी न चला।
एक सर्द गरम हवा घर के सारे माहौल मे बह रही थी।