शाम और रात के बिच का जो समय होता है ठिक उसी समय अजित उस जगह पर पोहचा।
उसे छोड़कर पगडंडी के धूल भरे रास्ते से वो बाइक चली गई जिसने उसे लिफ्ट दी थी, अपना मार्ग टेड़ा कर के लिफ्ट देने वाला वो सज्जन व्यक्ति वहाँ तक आया था जिसके सर पे एक भी बाल नहीं था फिर भी कड़ी धूप में सफर कर के अजित को यहाँ तक वो लेकर आया था।
उसे थैंक्यू कह के अजित उस कभी ना देखें गाव में आ गया।
वो खेड़ा बहोत गुजरे जमाने का लग रहा था। जैसे सालों से उस जगह पर किसीने कदम ना रखा हो। पर उसे क्या करना था उसे तो पुरखो की जमीन बेच कर वहाँ से निकल जाना था। वैसे भी पिछले पाच - छेह पिढी से उसके घर का कोई भी वहाँ नहीं गया था, वो तो उसे साफसफाई करते वक्त कुछ पुराने कागज मिले जिससे उसे इस जमीन के बारे में पता चला।
उसे बहोत भूख लग रही थी सुबह के नाश्ते के बाद से अजित ने कुछ खाया भी नहीं था।
"सुनिए जी यहाँ कोई खानावल, हॉटेल वगेरा कुछ है"..? उसने एक राह चलते आदमी से पूछा।
वो खेडूत आदमी कुछ भी ना बोलते हुए अपनी तर्जनी से एक जगह पर ईशारा कर उसे उपर से निचे तक देखता चला गया।
अजित ने एक गहरी आह भरी.. फिर चल दिया वहाँ जहाँ उस निनाम इन्सान ने ईशारा किया था।
वहाँ कोई भी नहीं था, सिवाय एक पतले इंसान के।
" यहाँ खाना मिलता है"...? अजित ने पूछा
"हा काहे नहीं मिलेगा जी, जरूर मिलेगा ना"..! आप यहन बैठीं ये मैं अंदर जा कर कह देता हु की शाम के नाश्ता की तयारी कर दीजियेगा, वो क्या है ना बाबु अंदर भी बहोत सारे लोगों की खाने की लाइन बैठीं है लेकिन किसी के पेट मे अब - तक कुछ वी ना पड़ा है अब तो आप भी आ गए हो, एक जगह खाली थी इसलिए नास्ता नहीन बनवाया आप ने वह जगह भर दी अब सब को पेट भर खाना मिलेगा....
"मैं नहीं आता तो क्या अपने ग्राहक को भूखा रखते आप, क्या ये हॉटेल कोई सवारी गाडी है जो एक सीट भरने से निकल पड़ेगी"...?
"ऐैसा नहीन है ना बापू, वो अंदर का हॉल जबतक खच्या -खच् भर नहीं जाता तबतक हम खाना बना ही नहीन सकते नियम है वैसा हमारे बाप - दादा वोका"...!
फिर उन् दोनों में बहोत सारी बाते हुई, बाते करते - करते वो अंदर वरदी दे कर आया की जल्दी खाना लगाओ..
उन् बातो मे अजित को एक बेहद हिला देने वाली चीज पता चली उस बजह से उसने टेबल पर जोर से मुका मार् दिया।
उसे पता चला की वो गलती से गलत गाव मे आया है, उसे जहाँ जाना था वो गाव बहोत आगे था नाम एक जैसा होने की वजह से वो यहाँ आ गया था।
अगर गाव का नाम एक जैसा हो तो ब्रैकेट के अंदर (खुर्द) या (बुद्रुक) ऐैसा लिखा हुवा होता है। इसका उसकी शहरी बुध्दी को जरा भी ज्ञान नहीं था।
"तो अब क्या करू, मैं यहाँ तो किसी को जानता भी नहीं हु रात को कहाँ रुकुगा मैं"..? अजित ने हड़बडा कर उस पतले से पूछा।
"इसमें कौनो चिंता की बात नहीं है, खाना खाने के बाद आप को आराम ही करना है तो उपर के कुछ कमरे खाली है। उन् मे से एक कमरे को आप भर दीजियेगा"..? वो आसानी से बोला...
तभी अंदर से... प्लेट बजाने की जोर - जोर से आवाजे होने लगी लग रहा था मानो नासमझ बच्चे ही खाने पर बैठे है। वो बजाते वक्त अपने मुह से सब एक साथ कोरस मे आवाज निकाल रहे थे,,,,,,... .. .. पंगत.. पंगत... पंगत.. पंगत.. पंगत.. पंगत.. पंगत.. पंगत.. पंगत.. पंगत.
पंगत.. पंगत.. पंगत.. पंगत.. पंगत.. पंगत.. पंगत.. पंगत... अंदर की आवाजे बढ़ती जा रही थी..।
"ये आवाजे "..?
" वो का है ना बापू की,, यही गाव के पास मानसिक विकलांग लोगों का स्कूल है तो सुबह उन लोगों की पिकनिक यहन आई थी। श्याम हो गई तो खाना खाके ही यहाँ से जायेंगे वो लोग आप समझ सकते है ना इसलिए ये आवाजे....
"नहीं नहीं.. कोई बात नहीं..! समझ सकता हु मैं, पर आप लोगों को उन्हें भूखा नहीं रखना चाहिए इतनी देर,, उनकी भी अलग - अलग दवाई का टाइम होता है जो खाना खा कर ही ली जा सकती है., ऐसे मे आपको ये नियम वगेरा बाजू मे रखने चाहिए".....
अंदर से कोई सिटी बजने जैसी आवाज आई।
चलो बापू अंदर वक्त हो गया है...!
उसके साथ जैसे ही उसने अंदर कदम रखा, तो वो भीड़ देख कर उसकी आँखे भौंचक्की गुनगुनि हो गई।
उस पतले आदमी ने अजित को सबके बीचो - बिच बैठाया
उसके सामने एक खाली प्लेट रख दी,, अजित ने उससे ये पूछा तक नहीं की उसे वहाँ क्यू बैठाया गया है। इतनी भीड़ में बैठने के लिए कहीं और जगह भी तो नहीं थी। आज का दिन ही एक बड़ा विचित्र अनुभव था अजित के लिए।
वो सारी भीड़ अपने दात एक दुसरे पर कट् - कटा रही थी, उनमें से कुछ लोग अपनी आँखे बड़ी कर रहे थे उसके बाद अपने आप से ही मुस्कुरा रहे थे।
वो पतला आदमी सबके प्लेट में चावल - दाल डाल रहा था।
सबकी प्लेटें भरते ही, उनके पीटी सर ने कहाँ,, एक साथ खाना शुरू कर.., बस.,,,,, वो बात सुनते ही इतनी देर से भूखी बैठी वो भीड़ अजित के मासल शरीर पर टुट पड़ी.,,,,,,,,,,,, अजित कुछ भी नहीं समज पाया बस आँखों में मृत्यु का आखरी चित्र लिए वो उस पतले आदमी को घूर रहा था।