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समाज और गाँधी, गाँधी और समाज

24 जनवरी 2015

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मैं मुंबई सर्वोदय मंडल, का आभारी हूँ कि मुझ जैसे सामान्य लेखक को बापू के भारत आगमन की शताब्दी के इस वरेण्य अवसर पर हिराबाग, टन्क परिसर में बोलने का अवसर दिया, जहाँ बापू ने भारत आने के पाँच दिन बाद बंबई के नागरिकों के समक्ष, 100 वर्ष पूर्व, पहला भाषण दिया था। यह वही पवित्र स्थान है जहाँ मुझ जैसा अदना व्यक्ति बापू के अपरिमित सम्मान के सूर्य को दीपक दिखाने की धृष्टता करने का साहस कर रहा है। मैं डा. उषा ठक्कर, सुश्री उषा गोकाणी, मुंबई सर्वोद्य मंडल के मैनेज़िंग ट्रस्टी आदरणीय टी आरके सोमैया, मंडल के अध्यक्ष जयंत दिवान, भारतीय विद्या भवन के अध्यक्ष श्री एच एन दस्तूर, लेखक विचारक रामदास भटकल, एवं डा. श्रीराम जाधव का अभिनन्दन करता हूँ जो ऐसे समय में गाँधी विचार और कर्म को आगे बढ़ाने में सक्रिय हैं। यह गाँधी चिंतन के लिए परीक्षा का समय है। सबसे पहला सवाल किसी के भी सामने यही उठता है कि मोहनदास करमचंद गाँधी लंदन से बैरिस्ट्री पास कर लेने के बाद दक्षिण अफ्रीका क्यों गए? आज देश का हर नौजवान अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी आदि क्यों जाना चाहता है? शायद इसलिए कि उसे काम और सम्मान चाहिए। गाँधी गुजरात में लगभग अर्ध-बेरोज़गार थे। वे झूठ का सहारा न लेने के कारण और कोर्ट के लिए आवश्यक वाचालता के अभाव में, अदालतों में की जाने वाली पैरवी में नितांत असफल हो गए थे। अपने बड़े भाई लक्षमीदास की मदद से दूसरे वकीलों के लिए ब्रीफ़, मेमोरेंडम, और प्लेंट आदि लिखकर तीन सौ रुपया महीना कमा लेते थे, जो, दोनों जेठों पर निर्भर रहने वाली कस्तूर के लिए बहुत थे। वह अब दूसरों के लिए भी ख़र्च कर सकती थी। लेकिन मोहनदास को घुटन होती थी। जो वकील काम भेजते थे वे कमीशन चाहते थे जिसे वे भृष्टाचार की श्रेणी में गिनते थे। इस बात को लेकर बड़े भाई लक्षमीदास और उनके बीच तनाव रहता था। लक्षमीदास उसे प्रोफ़ेशन का हिस्सा मानते थे, मोहनदास अनैतिक। अंततः लक्षमीदास ने दक्षिण अफ़्रीका के भारतीय मूल के एक बड़े व्यवसायी दादा अब्दुल्ला के बड़े भाई से कहकर 105 रु पर, एक साल के गिरमिट यानी अनुबंध पर, दक्षिण अफ़्रीका भेजने का प्रबंध कर दिया। वह न आज के बी टेक, और बिज़नेस मैनेजमेंट के स्नातकों को मिलने वाले लाखों, करोड़ों डालरों का पैकेज था और न कोई सम्माजनक काम था। दरअसल दादा अब्दुल्ला का अपने एक रिश्तेदार तैयब सेठ के साथ चालीस हज़ार पौंड का मुक़दमा चल रहा था, जिसमें मि. बेकर दादा अबदुल्ला के वकील थे। मोहनदास गुजराती में उपलब्ध दस्तावेज़ों को बेकर को कानूनी ढंग से समझाने के लिए बुलाए गए थे। एक बैरिस्टर के लिए यह काम बहुत छोटा था। पर वे दो बातों को लेकर संतुष्ट थे एक, पोरबंदर और राजकोट की अदालतों में व्याप्त भृष्टाचार से मुक्त हो गए थे। दूसरे, साल भर का 105 रु का मेहनताना परिवार के काम आ गया था। मोहनदास के गिरमिट में भी वही सब शर्ते थीं जो सामान्य गिरमिटिया पर लागू होती थीं, यानी खाना, रहना, पहनना सब मालिक की ज़िम्मेदारी थी। अंतर इतना था कि गिरमिटिया को 10 पौंड मिलता था और अनुबंध का समय पाँच साल था। मोहनदास का बाहर जाने और रहने आदि का इंतज़ाम दादा अबदुल्ला के ज़िम्मे था। सवाल है कि एक बैरिस्टर इतनी कम पगार पर, इतना छोटा काम करने के बावजूद क्यों संतुष्ट था? शायद इसलिए कि वे किसी भी काम को छोटा नहीं समझते थे, यदि उसमें स्वतंत्रता और ईमानदारी हो। दूसरी बात छोटे काम में बड़ी संभावना देखने की कोशिश करते थे। इस मुक़दमें में भी उन्होंने एक प्रयोग किया। बेकर जैसे बड़े वकील के रहते हुए उन्होंने मुक़दमे को सेठ तैयब से बात करके दादा अबदुल्ला और तैयब के मित्र हाजी सेठ को सालिस बनाकर निष्पक्ष फ़ैसला कराया और अपनी इस मान्यता को साबित किया कि वकील और कचहरियों के बिना भी सही फ़ैसले संभव हो सकते हैं। जिस बात का उन्होंने प्रकारांतर से हिन्द स्वाराज में उल्लेख आक्रमक ढंग से किया है। उनका मानना था ‘वकील वह है जो सत्य और सेवा को सर्वोपरि माने।‘ लगभग तैंतीस हज़ार डालर का चिट्ठा तैयाब सेठ की तरफ़ निकला। तैयब सेठ भी जानते थे कि इतना पैसा भुगतान करके कोई व्यवसायी जीवित नहीं रह सकता। मोहनदास ने उस वक्त दादा अब्दुल्ला को किश्तों में भुगतान लेने के लिए तैयार करके तैयाब सेठ को पुनर्जीवन दे दिया। वकील हराने या जिताने का काम नहीं करता बल्कि उसे उसके तार्किक निर्णय तक पहुँचाता है। यह बात उन्होंने उस समय भी साबित की थी जब भारतीय मज़दूरों की बस्ती में काली प्लेग, सोने की खानों में रहने वाले कालों की बस्ती से आकर फैली थी, और जोहान्सबर्ग की म्युनिसपेलिटी ने भारतीय गिरमिटियों की बस्ती में आग लगवा दी थी। मोहनदास ने अपना पैसा लगाकर उनका मुक़दमा लड़ा था और जीतने पर अदालत ने जो वकील की फ़ीस तय की थी उसका आधा ही उन्होंने स्वीकार किया था। यह अहिंसा का व्यावसायिक पक्ष था। अहिंसा का प्रयोग सत्य की रक्षा के लिए करते हैं व्यक्तिगत लाभ के लिए। इंडियन ओपिनियन की आर्थिक हालत कमज़ोर थी। इसलिए उन्होंने अदालत से निर्धारित मेहनताने का आधा लिया था। वे नहीं चाहते थे कि अख़बार बंद करके भारतीय समाज और सरकार से संवाद समाप्त हो जाए। राजनीति में संवाद के महत्त्व को वे अच्छी तरह समझते थे। आज अहंकार और संवाद के बीच छत्तीस का रिश्ता है। यही कारण है राजनीतिक पार्टियों में संवाद की स्थिति ख़त्म होती जा रही है। बापू के जीवन में झांका जाए तो उनके सबसे पहले दो गुरु थे, उनकी बा पुतलीबा और पिता कर्मचंद। बा से उन्होंने सत्य, त्याग और संयम सीखा। बापू के पास आकर धार्मिक मुद्दों पर चर्चा करने वाले पारसी, मुस्लिम, ईसाई और हिन्दू धर्म के धर्मगुरूओं के विमर्श से धर्मों का मर्म जाना। यही कारण है कि मोहनदास ने बचपन से अपने धर्म से प्रतिबद्ध रहने के बावजूद दूसरे धर्मों का समान आदर करना सीखा। उन्होंने हिन्द स्वराज में स्पष्ट कहा यह देश किसी एक धर्मावलंबी वर्ग का नहीं सब धर्मों का है। मैं यहाँ तीन घटनाओं का संक्षिप्त उल्लेख करना चाहता हूं। 1909 में मदन मोहन मालवीय के कांग्रेस के अध्यक्षीय भाषण में निम्नलिखित बात कही थी। मालवीय जी हिन्दू महासभाव के संस्थापकों में से भी थे। ‘I wish that under guidance of a benign providence feelings of patriotism , brotherliness will continue to increase, among Hindu, Mohammadans, Christians and Parsees .’ जिस दिन गाँधी जी की हत्या हुई उसी दिन, उन्होंने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पास प्यारे लाल जी को संदेश लेकर भेजा था कि हिन्दु महासभा का एक कार्यकार्ता कांग्रेसी नेताओं की हत्या के लिए उकसाने वाले भाषण दे रहा है वे अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके क्या उसे रोक सकते हैं? लेकिन डा मुखर्जी का उत्तर पंगु और निराशाजनक था। प्यारे लाल जी ने इस घटना का उल्लेख किया है। मालवीय जी की उपरोक्त मान्यता से यह उत्तर एकदम भिन्न था। इसी तरह की एक घटना के बारे में मैंने पढ़ा था कि एक ही मंच से गोलवलकर जी ने गाँधी जी के लिए कहा था की गाँधी जी देश के महान हिंदू हैं। गाँधी जी जब बोलने खड़े हुए तो उन्होंने कहा कि मैं हिन्दू हूँ, पर ऐसा हिन्दू हूँ जो सब धर्मों को समान समझता है। आश्चर्य है कि हिन्दूवाद के कट्टर समर्थक न मालवीय जी की बात को महत्त्व देते हैं और न गुरू गोलवलकर की बात पर विश्वास करते हैं। गाँधी जी की हत्या हिन्दू कट्टरवाद के चलते की गई। उन्होंने पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपया दिलवाया था। क्यों दिलवाया था? क्योंकि बटवारे के वक्त भारत ने पाकिस्तान को पचपन करोड रूपया देना स्वीकार किया था। सरकार वायदे से पीछे हटती तो विश्व भर में नए नए आज़ाद हुए भारत की साख़ गिर जाती। बापू फ़रवरी 1948 में पाकिस्तान इस लिए जाने वाले थे कि दोनों देश में सौहार्द बने। जिन्ना भी चाहते थे। गाँधी की इस दूरदर्शिता को समझे बिना ही हत्या कर दी गई। आज हत्या करने वाले को, जिसका कारण मात्र अदूरदर्शिता और नफ़रत थी, महामंडित किया जा रहा है। बिना यह जाने कि वे अदूरदर्शिता और नफ़रत को पूज कर, आने वाली पीढ़ी को भ्रमित कर रहे हैं। महाराष्ट्र जैसे प्रबुद्ध प्रदेश को इस पर गहनता से विचार करना पड़ेगा, आज नहीं तो कल। गाँधी के तीन गुरु और थे। एक रस्किन जिनकी पुस्तक ‘अनटु द लास्ट’, उनके साथी पोलक ने जोहान्सबर्ग के स्टेशन पर, चलती गाड़ी में उनके हाथ में दी थी। उस किताब ने उनका जीवन-दर्शन बदल दिया था। गाँधी दूसरों से सीखने में सदा तत्पर रहते थे, यहाँ तक कि उन्होंने डा. अबेंडकर से भी सीखा। दूसरे, गोपाल कृष्ण गोखले थे। उन्होंने देश की राजनीति में सक्रिय योगदान देने के लिए उन्हें सदा प्रेरित किया। दक्षिण अफ़्रीका की एक महीने की यात्रा समाप्त करके, विदा होते समय, यही वाक्य कहा था कि तुम एक साल में भारत आकर कांग्रेस के काम में जुट जाओ। मैं कोई बहाना नहीं सुनूँगा। तीसरे गुरु के बारे में लोग जानते भी नहीं होंगे, और उसे शायद उनका गुरू मानने में भी संकोच हो। वैसे वह व्यक्ति स्वयं उनकी शरण में गया था। उसने ही उन्हें किसानों की वास्तविक दुर्दशा से अवगत कराकर, उनका त्राता बनने का अवसर दिया। गोखले ने भी उन्हें राजनीति में आने से पूर्व पूरे भारत को जानने का निर्देश दिया था। ख़ैर, यह व्यक्ति जिसको मैं तीसरे गुरु के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ वह चंपारन का एक किसान राजकुमार शुक्ला था। वह तीन बार उनसे मिलने कांग्रेस अधिवेशनों में गया। दो बार तो उन्होंने टरका दिया। तीसरी बार वे केवल यह देखने गए वहाँ नील के किसानों की क्या स्थिति है। उनका आंदोलन करने का कोई इरादा नहीं था। राजकुमार कोई सामान्य व्यक्ति नहीं था। तब भारत में और ख़ासकर चंपारन में मोहनदास को कौन जानता था। लेकिन जब वह उन्हें लेकर पहुँचा तो स्टेशन पर इतनी भारी भीड़ का होना यह साबित करता है कि की उसकी जनमानस में कितनी गहरी पैठ थी। वहाँ आने के बाद गाँधी, वहीं के हो गए। जब तक निलहों के द्वारा बनाए दमनात्मक कानून नहीं बदले, वे वहाँ से नहीं हिले। बाद में कस्तूरबा को भी उस आंदोलन में हिस्सेदार बना लिया। मैं मानता हूँ गोखले जैसे महान व्यक्ति ने जिस तरह गाँधी को देश के भविष्य का नायक चुना था, वैसे ही राजकुमार ने गाँधी को पहचाना था कि वे ही चंपारन के किसानों को शोषण से मुक्ति दिला सकते हैं। आश्चर्य है कि गाँधी को असली भारत का दर्शन कराकर वह चला गया। किसी ने जानने की कोशिश नहीं की राजकुमार, गाँधी को देश के जन के दुःख दर्द से जोड़कर कहाँ अंतर्ध्यान हो गया। कस्तूरबा पहली भारतीय महिला थी जो सत्याग्रह करके दक्षिण अफ़्रीका में जेल गई थी। बापू ने ही उन्हें प्रेरित किया था कि महिलाओं के लिए तुम्हें जेल जाना होगा।। भारत में भी वे पहली महिला थीं जिन्होंने चंपारन के किसान आन्दोलन के प्रति महिलाओं को जागरूक किया था। बच्चे गंदे रहते थे, स्त्रियों के पास पहनने को कपड़े नहीं थे। वे उन्हें नदी के किनारे ले गईं। महिलाओं से पहले बच्चों के कपड़े धोने के लिए कहा फिर उन्हें दो वर्गों में बाटा। एक वर्ग पहले नदी के जल में गर्दन तक उतरा और अपने कपड़े धोए। दूसरा वर्ग बच्चों को देखता हुआ, गाँवों की महिलाओं के सामने पर्दे की तरह बना रहा। फिर यही काम दूसरे वर्ग ने किया। सवाल यह है कि कस्तूरबा ने एक गृहिणी होकर आन्दोलन की इन बारीकियो को कैसे सीखा। शायद यही समाज के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह था। उनका दूसरा बेटा ग्रमीणों का पढ़ाता था। सब झोपड़ियों में रहते थे। पीटरमेरिट्ज़बर्ग में फर्स्ट क्लास से बाहर फेंक दिए जाने वाली घटना ने जिस प्रकार मोहनदास का जीवन बदल दिया था वैसे ही राजकुमार शुक्ला ने गाँधी को चंपारन लाकर उनका तन मन बदल दिया था। दक्षिण अफ़्रीका में तो बीस साल तक लड़कर भारतीय गिरमिटियों पर लगाए गए प्रतिरोधी कानून बदलवा दिए थे। चंपारन में भी उन्होंने नीलहों के बनाए क़ानून बदलवा दिए थे। लेकिन किसानों के प्रति अपने सरोकारों को आज़ादी के बाद बनी अपने देश की सरकार में क्रियान्वित कराने में नाकाम रहे। उन्होंने 1945 में भारत के प्रधानमंत्री को लिखा था अब समय आ गया है जब हमें ग्रामोद्धार की दिशा में काम करना चाहिए। वे सत्ता के विकेन्द्रीकरण के पक्ष में थे। वे उन्हें आत्म निर्भर देखना चाहते थे। नेहरू का जवाब था गाँव स्वयं पिछड़े हुए हैं, अज्ञान के अंधेरे में हैं, वे देश को क्या रोशनी देंगे। गाँव आज तक नहीं बढ़ पाए। गाँवों को पीछे धकेलने की स्थिति, बताते हैं, नई सरकार द्वारा ज़मीन अधिकरण अध्यादेश के कारण पहले से भी अधिक विषम हो जाएगी। गाँधी जी का हिन्द स्वराज, जिसे बाइबिल के बाद दूसरा ग्रंथ बताया जाता है, पहले की तरह उपेक्षित रह जाएगा। किसान से बिना पूछे उसकी ज़मीन पर अधिकार कर लेना तानाशाही की तरफ़ बढ़ने वाले क़दम की तरह देखा जा रहा है। अब तो विदर्भ और बुदेलखंड में किसानों की आत्महत्याएं हो रही हैं, कहीं यह महामारी दूसरे राज्यों में न फैल जाए। ज़मीन का सौभाग्य किसान से है। वह देश की रीढ़ है। वह टूटी तो देश कहाँ बचेगा। गाँधी इस बात को जानते थे। जल, जंगल और पानी ख़तरे में पहले भी थे, आज और भी ज्यादा है। अंत में अपनी बात कहकर यह लंबा वक्तव्य समाप्त करूँगा, अहिंसा की कसौटी है हिंसा का सामना अहिंसा से करने की सामर्थ्य अर्जित करना। गाँधी ने इसे अर्जित कर ली थी। दक्षिण अफ़्रीका में अनेक बार उन्होंने हिंसा का सामना अहिंसा से किया था। मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि अगर बापू गोली लगने के बाद बच गए होते तो वे अपने कातिल को क्षमा कर देते। (महात्मा गाँधी के दक्षिण अफ़्रीका से भारत आगमन की, मुम्बई सर्वोदय मंडल के तत्त्वाधान में आयोजित. शताब्दी के अवसर पर, 13 जनवरी 2015 को हिराबाग, सी.पी. टन्क, गिरगाँव में श्री गिरिराज किशोर द्वारा दिया गया भाषण। (यह वही स्थल है जहाँ सौ वर्ष पूर्व गाँधी जी ने भारत में आने के पाँच दिन बाद पहला भाषण दिया था।) देहरादून उत्तराखंड के भाई धीरेन्द्रनाथ तिवारी के द्वारा पता चला कि संसार की गाँधीवादी विचार और उनके जीवन के निष्कर्षों की महान पुस्तक हिंद स्वराज को केन्द में लाने की दृष्टि से ‘अंतर्राष्ट्रीय हिन्द स्वराज संवाद अभियान(अहिंसा)’ की नींव रखी जा रही है। आज जिस प्रकार राजनीतिक मूल्यों का विघटन हो रहा है और हिंसा का साम्राज्य बढ़ रहा है, यही नहीं, गाँधी जी का नाम लेकर पूँजीवादी हितों का पोषन किया जा रहा है और ग्रामीण हितों की अनदेखी और उपेक्षा की जा रहा है, उससे समाज और देश को हिन्द स्वराज ही बचा सकता है। यही नहीं गाँधी विचार को जन जन तक पहुँचाने के लिए ‘अनिवार हिंसा’ नाम से पत्रिका के प्रकाशन का विचार है। मैं मुंबई सर्वोदय मंडल, का आभारी हूँ कि मुझ जैसे सामान्य लेखक को बापू के भारत आगमन की शताब्दी के इस वरेण्य अवसर पर हिराबाग, टन्क परिसर में बोलने का अवसर दिया, जहाँ बापू ने भारत आने के पाँच दिन बाद बंबई के नागरिकों के समक्ष, 100 वर्ष पूर्व, पहला भाषण दिया था। यह वही पवित्र स्थान है जहाँ मुझ जैसा अदना व्यक्ति बापू के अपरिमित सम्मान के सूर्य को दीपक दिखाने की धृष्टता करने का साहस कर रहा है। मैं डा. उषा ठक्कर, सुश्री उषा गोकाणी, मुंबई सर्वोद्य मंडल के मैनेज़िंग ट्रस्टी आदरणीय टी आरके सोमैया, मंडल के अध्यक्ष जयंत दिवान, भारतीय विद्या भवन के अध्यक्ष श्री एच एन दस्तूर, लेखक विचारक रामदास भटकल, एवं डा. श्रीराम जाधव का अभिनन्दन करता हूँ जो ऐसे समय में गाँधी विचार और कर्म को आगे बढ़ाने में सक्रिय हैं। यह गाँधी चिंतन के लिए परीक्षा का समय है। सबसे पहला सवाल किसी के भी सामने यही उठता है कि मोहनदास करमचंद गाँधी लंदन से बैरिस्ट्री पास कर लेने के बाद दक्षिण अफ्रीका क्यों गए? आज देश का हर नौजवान अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी आदि क्यों जाना चाहता है? शायद इसलिए कि उसे काम और सम्मान चाहिए। गाँधी गुजरात में लगभग अर्ध-बेरोज़गार थे। वे झूठ का सहारा न लेने के कारण और कोर्ट के लिए आवश्यक वाचालता के अभाव में, अदालतों में की जाने वाली पैरवी में नितांत असफल हो गए थे। अपने बड़े भाई लक्षमीदास की मदद से दूसरे वकीलों के लिए ब्रीफ़, मेमोरेंडम, और प्लेंट आदि लिखकर तीन सौ रुपया महीना कमा लेते थे, जो, दोनों जेठों पर निर्भर रहने वाली कस्तूर के लिए बहुत थे। वह अब दूसरों के लिए भी ख़र्च कर सकती थी। लेकिन मोहनदास को घुटन होती थी। जो वकील काम भेजते थे वे कमीशन चाहते थे जिसे वे भृष्टाचार की श्रेणी में गिनते थे। इस बात को लेकर बड़े भाई लक्षमीदास और उनके बीच तनाव रहता था। लक्षमीदास उसे प्रोफ़ेशन का हिस्सा मानते थे, मोहनदास अनैतिक। अंततः लक्षमीदास ने दक्षिण अफ़्रीका के भारतीय मूल के एक बड़े व्यवसायी दादा अब्दुल्ला के बड़े भाई से कहकर 105 रु पर, एक साल के गिरमिट यानी अनुबंध पर, दक्षिण अफ़्रीका भेजने का प्रबंध कर दिया। वह न आज के बी टेक, और बिज़नेस मैनेजमेंट के स्नातकों को मिलने वाले लाखों, करोड़ों डालरों का पैकेज था और न कोई सम्माजनक काम था। दरअसल दादा अब्दुल्ला का अपने एक रिश्तेदार तैयब सेठ के साथ चालीस हज़ार पौंड का मुक़दमा चल रहा था, जिसमें मि. बेकर दादा अबदुल्ला के वकील थे। मोहनदास गुजराती में उपलब्ध दस्तावेज़ों को बेकर को कानूनी ढंग से समझाने के लिए बुलाए गए थे। एक बैरिस्टर के लिए यह काम बहुत छोटा था। पर वे दो बातों को लेकर संतुष्ट थे एक, पोरबंदर और राजकोट की अदालतों में व्याप्त भृष्टाचार से मुक्त हो गए थे। दूसरे, साल भर का 105 रु का मेहनताना परिवार के काम आ गया था। मोहनदास के गिरमिट में भी वही सब शर्ते थीं जो सामान्य गिरमिटिया पर लागू होती थीं, यानी खाना, रहना, पहनना सब मालिक की ज़िम्मेदारी थी। अंतर इतना था कि गिरमिटिया को 10 पौंड मिलता था और अनुबंध का समय पाँच साल था। मोहनदास का बाहर जाने और रहने आदि का इंतज़ाम दादा अबदुल्ला के ज़िम्मे था। सवाल है कि एक बैरिस्टर इतनी कम पगार पर, इतना छोटा काम करने के बावजूद क्यों संतुष्ट था? शायद इसलिए कि वे किसी भी काम को छोटा नहीं समझते थे, यदि उसमें स्वतंत्रता और ईमानदारी हो। दूसरी बात छोटे काम में बड़ी संभावना देखने की कोशिश करते थे। इस मुक़दमें में भी उन्होंने एक प्रयोग किया। बेकर जैसे बड़े वकील के रहते हुए उन्होंने मुक़दमे को सेठ तैयब से बात करके दादा अबदुल्ला और तैयब के मित्र हाजी सेठ को सालिस बनाकर निष्पक्ष फ़ैसला कराया और अपनी इस मान्यता को साबित किया कि वकील और कचहरियों के बिना भी सही फ़ैसले संभव हो सकते हैं। जिस बात का उन्होंने प्रकारांतर से हिन्द स्वाराज में उल्लेख आक्रमक ढंग से किया है। उनका मानना था ‘वकील वह है जो सत्य और सेवा को सर्वोपरि माने।‘ लगभग तैंतीस हज़ार डालर का चिट्ठा तैयाब सेठ की तरफ़ निकला। तैयब सेठ भी जानते थे कि इतना पैसा भुगतान करके कोई व्यवसायी जीवित नहीं रह सकता। मोहनदास ने उस वक्त दादा अब्दुल्ला को किश्तों में भुगतान लेने के लिए तैयार करके तैयाब सेठ को पुनर्जीवन दे दिया। वकील हराने या जिताने का काम नहीं करता बल्कि उसे उसके तार्किक निर्णय तक पहुँचाता है। यह बात उन्होंने उस समय भी साबित की थी जब भारतीय मज़दूरों की बस्ती में काली प्लेग, सोने की खानों में रहने वाले कालों की बस्ती से आकर फैली थी, और जोहान्सबर्ग की म्युनिसपेलिटी ने भारतीय गिरमिटियों की बस्ती में आग लगवा दी थी। मोहनदास ने अपना पैसा लगाकर उनका मुक़दमा लड़ा था और जीतने पर अदालत ने जो वकील की फ़ीस तय की थी उसका आधा ही उन्होंने स्वीकार किया था। यह अहिंसा का व्यावसायिक पक्ष था। अहिंसा का प्रयोग सत्य की रक्षा के लिए करते हैं व्यक्तिगत लाभ के लिए। इंडियन ओपिनियन की आर्थिक हालत कमज़ोर थी। इसलिए उन्होंने अदालत से निर्धारित मेहनताने का आधा लिया था। वे नहीं चाहते थे कि अख़बार बंद करके भारतीय समाज और सरकार से संवाद समाप्त हो जाए। राजनीति में संवाद के महत्त्व को वे अच्छी तरह समझते थे। आज अहंकार और संवाद के बीच छत्तीस का रिश्ता है। यही कारण है राजनीतिक पार्टियों में संवाद की स्थिति ख़त्म होती जा रही है। बापू के जीवन में झांका जाए तो उनके सबसे पहले दो गुरु थे, उनकी बा पुतलीबा और पिता कर्मचंद। बा से उन्होंने सत्य, त्याग और संयम सीखा। बापू के पास आकर धार्मिक मुद्दों पर चर्चा करने वाले पारसी, मुस्लिम, ईसाई और हिन्दू धर्म के धर्मगुरूओं के विमर्श से धर्मों का मर्म जाना। यही कारण है कि मोहनदास ने बचपन से अपने धर्म से प्रतिबद्ध रहने के बावजूद दूसरे धर्मों का समान आदर करना सीखा। उन्होंने हिन्द स्वराज में स्पष्ट कहा यह देश किसी एक धर्मावलंबी वर्ग का नहीं सब धर्मों का है। मैं यहाँ तीन घटनाओं का संक्षिप्त उल्लेख करना चाहता हूं। 1909 में मदन मोहन मालवीय के कांग्रेस के अध्यक्षीय भाषण में निम्नलिखित बात कही थी। मालवीय जी हिन्दू महासभाव के संस्थापकों में से भी थे। ‘I wish that under guidance of a benign providence feelings of patriotism , brotherliness will continue to increase, among Hindu, Mohammadans, Christians and Parsees .’ जिस दिन गाँधी जी की हत्या हुई उसी दिन, उन्होंने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पास प्यारे लाल जी को संदेश लेकर भेजा था कि हिन्दु महासभा का एक कार्यकार्ता कांग्रेसी नेताओं की हत्या के लिए उकसाने वाले भाषण दे रहा है वे अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके क्या उसे रोक सकते हैं? लेकिन डा मुखर्जी का उत्तर पंगु और निराशाजनक था। प्यारे लाल जी ने इस घटना का उल्लेख किया है। मालवीय जी की उपरोक्त मान्यता से यह उत्तर एकदम भिन्न था। इसी तरह की एक घटना के बारे में मैंने पढ़ा था कि एक ही मंच से गोलवलकर जी ने गाँधी जी के लिए कहा था की गाँधी जी देश के महान हिंदू हैं। गाँधी जी जब बोलने खड़े हुए तो उन्होंने कहा कि मैं हिन्दू हूँ, पर ऐसा हिन्दू हूँ जो सब धर्मों को समान समझता है। आश्चर्य है कि हिन्दूवाद के कट्टर समर्थक न मालवीय जी की बात को महत्त्व देते हैं और न गुरू गोलवलकर की बात पर विश्वास करते हैं। गाँधी जी की हत्या हिन्दू कट्टरवाद के चलते की गई। उन्होंने पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपया दिलवाया था। क्यों दिलवाया था? क्योंकि बटवारे के वक्त भारत ने पाकिस्तान को पचपन करोड रूपया देना स्वीकार किया था। सरकार वायदे से पीछे हटती तो विश्व भर में नए नए आज़ाद हुए भारत की साख़ गिर जाती। बापू फ़रवरी 1948 में पाकिस्तान इस लिए जाने वाले थे कि दोनों देश में सौहार्द बने। जिन्ना भी चाहते थे। गाँधी की इस दूरदर्शिता को समझे बिना ही हत्या कर दी गई। आज हत्या करने वाले को, जिसका कारण मात्र अदूरदर्शिता और नफ़रत थी, महामंडित किया जा रहा है। बिना यह जाने कि वे अदूरदर्शिता और नफ़रत को पूज कर, आने वाली पीढ़ी को भ्रमित कर रहे हैं। महाराष्ट्र जैसे प्रबुद्ध प्रदेश को इस पर गहनता से विचार करना पड़ेगा, आज नहीं तो कल। गाँधी के तीन गुरु और थे। एक रस्किन जिनकी पुस्तक ‘अनटु द लास्ट’, उनके साथी पोलक ने जोहान्सबर्ग के स्टेशन पर, चलती गाड़ी में उनके हाथ में दी थी। उस किताब ने उनका जीवन-दर्शन बदल दिया था। गाँधी दूसरों से सीखने में सदा तत्पर रहते थे, यहाँ तक कि उन्होंने डा. अबेंडकर से भी सीखा। दूसरे, गोपाल कृष्ण गोखले थे। उन्होंने देश की राजनीति में सक्रिय योगदान देने के लिए उन्हें सदा प्रेरित किया। दक्षिण अफ़्रीका की एक महीने की यात्रा समाप्त करके, विदा होते समय, यही वाक्य कहा था कि तुम एक साल में भारत आकर कांग्रेस के काम में जुट जाओ। मैं कोई बहाना नहीं सुनूँगा। तीसरे गुरु के बारे में लोग जानते भी नहीं होंगे, और उसे शायद उनका गुरू मानने में भी संकोच हो। वैसे वह व्यक्ति स्वयं उनकी शरण में गया था। उसने ही उन्हें किसानों की वास्तविक दुर्दशा से अवगत कराकर, उनका त्राता बनने का अवसर दिया। गोखले ने भी उन्हें राजनीति में आने से पूर्व पूरे भारत को जानने का निर्देश दिया था। ख़ैर, यह व्यक्ति जिसको मैं तीसरे गुरु के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ वह चंपारन का एक किसान राजकुमार शुक्ला था। वह तीन बार उनसे मिलने कांग्रेस अधिवेशनों में गया। दो बार तो उन्होंने टरका दिया। तीसरी बार वे केवल यह देखने गए वहाँ नील के किसानों की क्या स्थिति है। उनका आंदोलन करने का कोई इरादा नहीं था। राजकुमार कोई सामान्य व्यक्ति नहीं था। तब भारत में और ख़ासकर चंपारन में मोहनदास को कौन जानता था। लेकिन जब वह उन्हें लेकर पहुँचा तो स्टेशन पर इतनी भारी भीड़ का होना यह साबित करता है कि की उसकी जनमानस में कितनी गहरी पैठ थी। वहाँ आने के बाद गाँधी, वहीं के हो गए। जब तक निलहों के द्वारा बनाए दमनात्मक कानून नहीं बदले, वे वहाँ से नहीं हिले। बाद में कस्तूरबा को भी उस आंदोलन में हिस्सेदार बना लिया। मैं मानता हूँ गोखले जैसे महान व्यक्ति ने जिस तरह गाँधी को देश के भविष्य का नायक चुना था, वैसे ही राजकुमार ने गाँधी को पहचाना था कि वे ही चंपारन के किसानों को शोषण से मुक्ति दिला सकते हैं। आश्चर्य है कि गाँधी को असली भारत का दर्शन कराकर वह चला गया। किसी ने जानने की कोशिश नहीं की राजकुमार, गाँधी को देश के जन के दुःख दर्द से जोड़कर कहाँ अंतर्ध्यान हो गया। कस्तूरबा पहली भारतीय महिला थी जो सत्याग्रह करके दक्षिण अफ़्रीका में जेल गई थी। बापू ने ही उन्हें प्रेरित किया था कि महिलाओं के लिए तुम्हें जेल जाना होगा।। भारत में भी वे पहली महिला थीं जिन्होंने चंपारन के किसान आन्दोलन के प्रति महिलाओं को जागरूक किया था। बच्चे गंदे रहते थे, स्त्रियों के पास पहनने को कपड़े नहीं थे। वे उन्हें नदी के किनारे ले गईं। महिलाओं से पहले बच्चों के कपड़े धोने के लिए कहा फिर उन्हें दो वर्गों में बाटा। एक वर्ग पहले नदी के जल में गर्दन तक उतरा और अपने कपड़े धोए। दूसरा वर्ग बच्चों को देखता हुआ, गाँवों की महिलाओं के सामने पर्दे की तरह बना रहा। फिर यही काम दूसरे वर्ग ने किया। सवाल यह है कि कस्तूरबा ने एक गृहिणी होकर आन्दोलन की इन बारीकियो को कैसे सीखा। शायद यही समाज के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह था। उनका दूसरा बेटा ग्रमीणों का पढ़ाता था। सब झोपड़ियों में रहते थे। पीटरमेरिट्ज़बर्ग में फर्स्ट क्लास से बाहर फेंक दिए जाने वाली घटना ने जिस प्रकार मोहनदास का जीवन बदल दिया था वैसे ही राजकुमार शुक्ला ने गाँधी को चंपारन लाकर उनका तन मन बदल दिया था। दक्षिण अफ़्रीका में तो बीस साल तक लड़कर भारतीय गिरमिटियों पर लगाए गए प्रतिरोधी कानून बदलवा दिए थे। चंपारन में भी उन्होंने नीलहों के बनाए क़ानून बदलवा दिए थे। लेकिन किसानों के प्रति अपने सरोकारों को आज़ादी के बाद बनी अपने देश की सरकार में क्रियान्वित कराने में नाकाम रहे। उन्होंने 1945 में भारत के प्रधानमंत्री को लिखा था अब समय आ गया है जब हमें ग्रामोद्धार की दिशा में काम करना चाहिए। वे सत्ता के विकेन्द्रीकरण के पक्ष में थे। वे उन्हें आत्म निर्भर देखना चाहते थे। नेहरू का जवाब था गाँव स्वयं पिछड़े हुए हैं, अज्ञान के अंधेरे में हैं, वे देश को क्या रोशनी देंगे। गाँव आज तक नहीं बढ़ पाए। गाँवों को पीछे धकेलने की स्थिति, बताते हैं, नई सरकार द्वारा ज़मीन अधिकरण अध्यादेश के कारण पहले से भी अधिक विषम हो जाएगी। गाँधी जी का हिन्द स्वराज, जिसे बाइबिल के बाद दूसरा ग्रंथ बताया जाता है, पहले की तरह उपेक्षित रह जाएगा। किसान से बिना पूछे उसकी ज़मीन पर अधिकार कर लेना तानाशाही की तरफ़ बढ़ने वाले क़दम की तरह देखा जा रहा है। अब तो विदर्भ और बुदेलखंड में किसानों की आत्महत्याएं हो रही हैं, कहीं यह महामारी दूसरे राज्यों में न फैल जाए। ज़मीन का सौभाग्य किसान से है। वह देश की रीढ़ है। वह टूटी तो देश कहाँ बचेगा। गाँधी इस बात को जानते थे। जल, जंगल और पानी ख़तरे में पहले भी थे, आज और भी ज्यादा है। अंत में अपनी बात कहकर यह लंबा वक्तव्य समाप्त करूँगा, अहिंसा की कसौटी है हिंसा का सामना अहिंसा से करने की सामर्थ्य अर्जित करना। गाँधी ने इसे अर्जित कर ली थी। दक्षिण अफ़्रीका में अनेक बार उन्होंने हिंसा का सामना अहिंसा से किया था। मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि अगर बापू गोली लगने के बाद बच गए होते तो वे अपने कातिल को क्षमा कर देते। (महात्मा गाँधी के दक्षिण अफ़्रीका से भारत आगमन की, मुम्बई सर्वोदय मंडल के तत्त्वाधान में आयोजित. शताब्दी के अवसर पर, 13 जनवरी 2015 को हिराबाग, सी.पी. टन्क, गिरगाँव में श्री गिरिराज किशोर द्वारा दिया गया भाषण। (यह वही स्थल है जहाँ सौ वर्ष पूर्व गाँधी जी ने भारत में आने के पाँच दिन बाद पहला भाषण दिया था।) देहरादून उत्तराखंड के भाई धीरेन्द्रनाथ तिवारी के द्वारा पता चला कि संसार की गाँधीवादी विचार और उनके जीवन के निष्कर्षों की महान पुस्तक हिंद स्वराज को केन्द में लाने की दृष्टि से ‘अंतर्राष्ट्रीय हिन्द स्वराज संवाद अभियान(अहिंसा)’ की नींव रखी जा रही है। आज जिस प्रकार राजनीतिक मूल्यों का विघटन हो रहा है और हिंसा का साम्राज्य बढ़ रहा है, यही नहीं, गाँधी जी का नाम लेकर पूँजीवादी हितों का पोषन किया जा रहा है और ग्रामीण हितों की अनदेखी और उपेक्षा की जा रहा है, उससे समाज और देश को हिन्द स्वराज ही बचा सकता है। यही नहीं गाँधी विचार को जन जन तक पहुँचाने के लिए ‘अनिवार हिंसा’ नाम से पत्रिका के प्रकाशन का विचार है।
श्री बिलास सिंह

श्री बिलास सिंह

गाँधी हमारे लिए प्रकाशस्तंभ स्वरूप हैं. उनके संबंध में आपको पढ़ना एवं सुनना सदैव नई दृस्टि देता है. साधुवाद !

24 सितम्बर 2015

पंकज त्रिवेदी

पंकज त्रिवेदी

बेहतरीन आलेख

12 अप्रैल 2015

योगिता वार्डे ( खत्री )

योगिता वार्डे ( खत्री )

सराहनीय ,बहुत बढ़िया, धन्यवाद

27 फरवरी 2015

mgs pravesh

mgs pravesh

बापू और उनके सपनों का भारत बनाने का सार्थक प्रयास हेतु साधुवाद !!

24 फरवरी 2015

शिवराज

शिवराज

बहुत बड़िया लेख है जी

21 फरवरी 2015

10 फरवरी 2015

विजय कुमार शर्मा

विजय कुमार शर्मा

लेख जनता में नैतिकता बढ़ाएगा

7 फरवरी 2015

वैष्णवी गुप्ता

वैष्णवी गुप्ता

आपका लेख मुझे बहुत पसंद आया

29 जनवरी 2015

रितेश कुमार

रितेश कुमार

गांधीजी के बारे में कुछ भी कहना हमेशा कम ही रहेगा

29 जनवरी 2015

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