हनुमान जी के बारे में कहा जाता है कि उन्हें ख़ुद पता ही नहीं था कि वह कितने शक्तिशाली हैं और क्या कर सकते हैं, लिहाजा, अपने आपको वह साधारण वानर समझते थे। जब जामवंत ने उन्हें याद दिलाया कि वह तो सूर्य जैसे आग के प्रचंड गोले वाले देवता को बचपन में ही निगल गए थे, तब हनुमानजी को अहसास हुआ कि वाक़ई उनके पास बहुत ज़्यादा ताकत है और वह बहुत कुछ कर सकते हैं। यही हाल कमोबेश भारत का है, कमज़ोर लीडरशिप के चलते इस देश को पता ही नहीं है कि वह कितना ताकतवर है और क्या-क्या कर सकता है। कहने का मतलब इस देश को भी उसकी शक्ति का अहसास कराने के लिए जामवंत की ज़रूरत है।
बस इस एक संधि को रद्द कर दें मोदी, हिल जाएगा पूरा पाकिस्तान, टेक देगा घुटने, क्या ब्रम्हास्त्र ही भूल गया भारत?
दरअसल, देश के तथाकथित महान नेताओं ने जनता को सहिष्णुता और शांति की ऐसी घुट्टी पिलाई कि सब के सब सहिष्णु और शांति का उपासक हो गए। यह सर्वविदित है कि पूरी दुनिया केवल और केवल ताक़त को सलाम करती है और सहिष्णुता या शांति की बात करने वाले को कायर और कमज़ोर मानती है। प्रधानमंत्री के सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल भी मानते हैं कि इतिहास केवल ताकतवर लोगों को ही याद रखता है। लिहाज़ा, हरदम सहिष्णुता और शांति की पूजा करने के कारण दुनिया में भारत की इमैज सॉफ़्ट और वीक नेशन की बन गई है।
आज अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नज़र में भारत ऐसा लाचार देश है, जो अपने ही नागरिकों की रक्षा कर पाने में सक्षम नहीं और अपने निर्दोष नागरिकों की हत्या करने वाले आतंकवादियों और उन्हें पनाह देने वालों के ख़िलाफ़ ऐक्शन नहीं ले पाता। भारत ऐक्शन लेने की जगह हत्यारों के ख़िलाफ़ प्रमाण पेश करता है। आबरत की इस नीति पर दुनिया हंसती है।
जैसा कि सर्वविदित है, भारत जैसा विशाल देश सन् 1947 में विभाजन के बाद से पाक जैसे छोटे शरारती देश की हरकतों से खासा परेशान रहा है। अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस आतंकी देश की हरकतों की मय सबूत शिकायत करता रहता है, लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती। सब हंसकर कह देते हैं, ये प्रमाण पर्याप्त नहीं हैं। लिहाज़ा, कोई एक्शन नहीं लिया जा सकता।
दरअसल, सबसे मज़ेदार बात यह है कि इस देश के पास एक ऐसा ब्रम्हास्त्र है, जिसे इस्तेमाल करके वह शरारती पाकिस्तान को सबक ही नहीं सिखा सकता है, बल्कि इस्लामाबाद को आतंकवाद का समर्थन और आतंकवादी शिविर बंद करने पर विवश भी कर सकता है। इसके अलावा दाऊद इब्राहिम, हाफिज़ सईद और मौलाना मसूद जैसे आतंकवादियों को अपने हवाले करने पर पाकिस्तान को मज़बूर भी कर सकता है।
भारत सक्षम और समर्थ होने के बावजूद बेचारा बना हुआ है। यह सब बेहद कमज़ोर बिल पावर वाली लीडरशिप के कारण हो रहा है। भारतीय नेता अपने यहां, ख़ासकर कश्मीर में आतंकवाद के खात्मे के लिए पाकिस्तान पर निर्भर हैं। अब भी भारतीय नेताओं को लगता है कि वार्ता से बात बन जाएगी और अंततः वह बददिमाग़ देश मान जाएगा और अपनी हरकत से बाज आएगा। इस उम्मीद के साथ वार्ताओं का सिलसिला कई दशक से चल रहा है।
उधर, देश का हर नागरिक, ख़ासकर शहरों में रहने वाले लोग, इस बात को लेकर तनाव में रहता है कि पाकिस्तान पोषित सिरफिरे आतंकवादी जेहाद के नाम पर कब और कहां बम न फोड़ दें या सशस्त्र हमला न कर दे और सैकड़ों मासूमों की जान न ले लें।
भारत का वह अचूक ब्रह्मास्त्र है, इंडस वॉटर ट्रीटी यानी सिंधु जल संधि। दरअसल, इंटरनैशनल बैंक फॉर रिकंस्ट्रक्शन ऐंड डेवलपमेंट (अब विश्वबैंक) की मध्यस्थता में 19 सितंबर 1960 को कराची में इंडस वॉटर ट्रीटी पर भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब ख़ान हस्ताक्षर किए। भारत पिछले 56 साल से सिधु वॉटर ट्रीटी यानी सिंधु जल संधि को ढो रहा है। आधुनिक विश्व के इतिहास में यह संधि सबसे उदार जल बंटवारा है।
सिंधु जल संधि के अनुसार भारत अपनी छह प्रमुख नदियों का अस्सी (80.52) फ़ीसदी से ज़्यादा यानी हर साल 167.2 अरब घन मीटर जल पाकिस्तान को देता है। तीन नदियां सिंधु, झेलम और चिनाब तो पूरी की पूरी पाकिस्तान को भेंट कर दी गई हैं। यह संधि दुनिया की इकलौती संधि है, जिसके तहत नदी की ऊपरी धारा वाला देश निचली धारा वाले देश के लिए अपने हितों की अनदेखी करता है। ऐसी उदार मिसाल दुनिया की किसी संधि में नहीं मिलेगी।
सबसे हैरान करने वाली बात है कि इस बेजोड़ संधि का लाभार्थी देश पाकिस्तान भारत की उदारता का जवाब आतंकवादी वारदातों से देता रहा है। लाभार्थी पाकिस्तान संधि के बाद जलदाता देश भारत के साथ दो बार (1965 और 1971 के भारत पाक युद्ध) घोषित तौर पर, एक बार (1999 का कारगिल घुसपैठ) अघोषित तौर पर युद्ध छेड़ चुका है।
इतना ही नहीं, सीमा पर गोलीबारी और घुसपैठ हमेशा करता रहता है। भारत के पानी पर जीवन यापन करने वाला यह देश जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों को शुरू से शह और मदद देता रहा है। जबकि किसी देश के संसाधन पर दूसरे देश का अधिकार तभी तक माना जाता है, जब तक लाभार्थी देश का रवैया दोस्ताना हो। सिंधु जल संधि की बात करें तो यहां तो पाकिस्तान का रवैया दुश्मन की तरह है, इसलिए भारत को उसे पानी देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
लिहाज़ा, इन परिस्थितियों में भारत को अपने इस ब्रम्हास्त्र का इस्तेमाल करना चाहिए। पाकिस्तान के सामने पानी देने के लिए स्पष्ट रूप से तीन शर्त रख देनी चाहिए। पहली शर्त, कश्मीरी आतंकवादियों को समर्थन बंद करे। दूसरी शर्त, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के आतंकवादी शिविर को नष्ट करे और शिविर नष्ट किया या नहीं, यह जांच भारतीय एजेंसियों को करने की इजाज़त दे। तीसरी शर्त, पाकिस्तान हाफिज़ सईद, ज़कीउररहमान लखवी (दोनों लश्करे तैयबा), मौलाना अज़हर मसूद (जैशे मोहम्मद), सैयद सलाउद्दीन (हिजबुल मुजाहिद्दीन), भटकल बंधु (इंडियन मुजाहिद्दीन) और दाऊद इब्राहिम एवं टाउगर मेमन (1993 मुंबई बम ब्लास्ट के आरोपी) को भारत को सौंपे।
अगर पाकिस्तान तीनों शर्तें माने तब उसे सिंधु, झेलम, चिनाब, सतलुज, व्यास और रावी का पानी देना चाहिए अन्यथा पानी की आपूर्ति बंद कर देनी चाहिए। यक़ीनी तौर पर पानी बंद करने से पाकिस्तान की खेती पूरी तरह नष्ट हो जाएगी, क्योंकि पाकिस्तान की खेती बारिश पर कम, इन नदियों से निकलने वाली नहरों पर ज़्यादा निर्भर है। यह नुकसान सहन करना पाकिस्तान के बस में नहीं है। भारत से पर्याप्त पानी न मिलने से इस्लामाबाद की सारी अकड़ ख़त्म हो जाएगी और वह न तो आतंकवादियों का समर्थन करने की स्थिति में होगा और न ही कश्मीर में अलगाववादियों का।
ज़ाहिर है सिधु जल संधि का पाकिस्तान बेज़ा फायदा उठाता रहा है। आतंकवाद को समर्थ देने के अलावा इस्लामाबाद बगलिहार परियोजना के लिए भारत को ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी। किशन-गंगा, वूलर बैराज और तुलबुल परियोजनाएं अधर में लटकी हैं। पाकिस्तान बगलियार और किशनगंगा पावर प्रोजेक्ट्स समेत हर छोटी-बड़ी जल परियोजना का अंतरराष्ट्रीय मंच पर विरोध करता रहा है। पाकिस्तान का मुंह बंद करने के लिए एक मात्र विकल्प है, सिधु जल संधि का ख़ात्मा।
सिधु जल संधि भंग करने के बाद पूरी संभावना है कि पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर विलाप करेगा। निश्तिच तौर पर वह अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का भी दरवाज़ा खटखटाएगा। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय या अंतरराष्ट्रीय संस्थान को बताने के लिए भारत के पास पर्याप्त कारण और आधार हैं। भारत इस संधि को निरस्त किए बिना रिपेरियन कानून के तहत अपनी नदियों के पानी पर उस तरह अपना अधिकार नहीं जता सकता जैसा कि स्वाभाविक रूप से जताना चाहिए। फिर 2002 में जम्मू-कश्मीर की विधान सभा आम राय से प्रस्ताव पारित कर सिंधु जल संधि को निरस्त करने की मांग कर चुकी है। राज्य की सबसे बड़ी जनपंचायत का यह सीरियस फ़ैसला था।
सन् 2005 में इंटरनैशन वॉटर मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट (आईडब्ल्यूएमआई) और टाटा वॉटर पॉलिसी प्रोग्राम (टीडब्ल्यूपीपी) भी अपनी रिपोर्ट में भारत को सिंधु जल संधि को रद्द करने की सलाह दे चुका है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस जल संधि से केवल जम्मू-कश्मीर को ही हर साल 65000 करोड़ रुपए की हानि हो रही है। "इंडस वॉटर ट्रीटी: स्क्रैप्ड ऑर अब्रोगेटेड" शीर्षक वाली रिपोर्ट में बताया गया है कि इस संधि के चलते घाटी में बिजली पैदा करने और खेती करने की संभावनों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक घाटी में 20000 मेगावाट से भी ज़्यादा बिजली पैदा करने की क्षमता है, लेकिन सिधु जल संधि इस राह में रोड़ा बनी हुई है।
इसके अलावा हर साल देश के कई हिस्सों में सूखा पड़ता है। जिन्हें पानी की बड़ी ज़रूरत पड़ती है। ऐसे में भारत अपने राज्यों को पानी क्यों न दे। जो देश ख़ुद पानी के संकट से दो चार हो, वह दूसरे देश, ख़ासकर जो देश दुश्मनों जैसा काम करे, उसे पानी देने की बाध्यता नहीं। अगर भारत जम्मू-कश्मीर में तीनों नदियों पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बांध बना दे और हर बांध से थोड़ा पानी सिंचाई के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दे, तब निश्चित तौर पर पाकिस्तान घुटने टेक देगा। पाकिस्तान को मिसाइल, तोप या बम से मारने की जरूरत नहीं, उसके लिए सिंधु जल संधि ही पर्याप्त है।
चूंकि रावी, ब्यास, सतलुज, झेलम, सिंधु और चिनाब नदियों का आरंभिक बहाव भारतीय इलाके से है। इस हिसाब से रिपेरियन सिद्धांत के मुताबिक नदियों का नियंत्रण भारत के पास होना चाहिए। यानी नदियों के पानी पर सबसे पहला हक़ भारत का होना चाहिए। हां, अपनी ज़रूरत पूरी होने पर चाहे तो भारत अपना पानी पाकिस्तान को दे सकता है। वह भी उन परिस्थितियों में जब पाकिस्तान दोस्त और शुभचिंतक की तरह व्यवहार करे। पाकिस्तान का रवैया शत्रु जैसा होने पर भारत उसे एक बूंद भी पानी देने के लिए बाध्य नहीं है।
भारत को चीन से सीख लेनी चाहिए। राष्ट्रीय हित का हवाला देते हुए चीन ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फ़ैसला मानने से इनकार कर दिया है। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने 3.5 वर्गकिलोमीटर में फैले दक्षिण चीन सागर क्षेत्र पर बीजिंग के दावे को खारिज़ करके फिलीपींस के अधिकार को मान्यता दी। चीन ने दो टूक शब्दों में कहा कि इसे मानने की बाध्यता नहीं है। चीनी के डिफेंस प्रवक्ता ने कहा कि चीनी सेना राष्ट्रीय संप्रभुता और अपने समुद्री हितों एवं अधिकारों की रक्षा करेगी। राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि देश की संप्रभुता और समुद्री अधिकारों पर असर डालने वाले किसी भी फ़ैसले या प्रस्ताव को उनका देश खारिज करता है।
भारत ख़ासकर मोदी सरकार को यह पॉइंट नोट करना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फ़ैसले पर चीनी लीडरशिप की प्रतिक्रिया का फिलीपींस के अलावा किसी राष्ट्र ने विरोध नहीं किया। संयुक्त राष्ट्रसंघ के अमेरिका, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे शक्तिशाली देश भी ख़ामोश रहे।
कुल मिलाकर इसका मतलब यह है कि कोई राष्ट्र भी अपने राष्ट्रीय हित का हवाला देकर दुनिया की सबसे बड़ी अदालत के फ़ैसले को भी मानने से इनकार कर सकता है। इसे कहते हैं, विल पावर, जो कम से कम अभी तक सिंधु जल संधि को लेकर भारतीय लीडरशिप में अब तक नहीं रहा है। सवाल यह है कि क्या बलूचिस्तान का मामला उठाने वाले भारतीय प्रधानमंत्री सिंधु जल संधि के मुद्दे को आतंकवाद, दाऊद इब्राहिम और हाफ़िज़ सईद से जोड़ने का साहस करेंगे।