यूपी में भाजपा की अभूतपूर्व जीत को चुनौती देने से पहले हार के कारणों की चुनौती स्वीकार करने का माद्दा होना चाहिए। भाजपा की जीत के विश्लेषण हो रहे हैं, विरोधियों की हार के कारणों की चुनौती का माद्दा होना चाहिए। अगर भाजपा ने सांप्रदायिक हवा के ज़ोर से जीत हासिल की है तो पूछा जाना चाहिए कि इस हवा के ख़िलाफ़ मायावती, अखिलेश और राहुल ने क्या किया। क्या बीजेपी ने इन तीनों नेताओं से कहा था कि हम सांप्रदायिकता फैलायेंगे, आप लोग चुप रहना। सांप्रदायिकता से लड़ने का दावा करने वाला तीन तीन दलों को बीजेपी ने हराया है। इन दलों ने कैसे लड़ाई लड़ी, इस सवाल पर टिके रहेंगे तो बीजेपी की जीत से ज़्यादा इनकी हार के कारणों को समझ सकेंगे। बीजेपी की जीत के प्रति दुराग्रह ठीक नहीं है। दस साल से जनता सपा बसपा को पूर्ण बहुमत देकर सर्वसमाजी होने का मौका दे रही थी। इन दलों से पूछा जाना चाहिए कि दस सालों की सत्ता के दौरान दोनों ने कौन सा ऐसा समाज बनाया जो मात्र बिजली और कब्रिस्तान की अफवाहों से भरभरा गया। बिहार में तो गाय के मुद्दे पर भावुकता का उन्माद पैदा करने की कोशिश हुई, मगर कामयाब नहीं हो सकी। क्यों नहीं हुई? असम में तो गाय का मुद्दा थम ही गया और यूपी में तो कसाई घर बंद होने के अलावा सघन रूप से तो ज़िक्र ही नहीं आया।
उसी यूपी के लोग दस सालों से भाजपा को भूल गए थे। उससे ठीक पहले यूपी बाबरी मस्जिद ध्वंस के उन्माद में फंसा हुआ था। मगर लोग उससे निकल कर बसपा-सपा को वोट दे रहे थे,फिर उसकी जातिवादी पहचान कैसे बन गई। अगर बसपा और सपा ने एक जाति की राजनीति नहीं की है तो उन्होंने विज्ञापन देकर,बयान देकर या अपने काडर को घर घर घुमाकर क्यों नहीं बतवाया कि यह सच नहीं है। अखिलेश यादव ने क्यों नहीं विज्ञापन दिया कि यूपी के थानों में कितने यादव एस एच ओ हैं और कितने दूसरे हैं। बीजेपी के आरोप सही हैं या ग़लत हैं। उन्होंने लोगों में यह धारणा क्यों बनने दी। जब जवाब नहीं देंगे तो जनता को लगेगा कि सही है। कायदे से अखिलेश यादव को सभी नौकरियों का हिसाब देना चाहिए था। बताना चाहिए था कि कितने यादवों को नौकरी मिली है। यादवों के प्रति ये चिढ़ इन्हीं कारणों से फैलाई गई और उनके सबसे बड़े नेता चुप रह गए। यूपीए के दौरान किसी नेता ने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में थोक के भाव में राजपूत शिक्षकों की नियुक्ति का कागज दिया था. देखकर सन्न रह गया था मगर किसी ने हंगामा नहीं किया। मनमोहन सिंह को भी शिकायत की गई थी। कागज़ देने वाले नेता ब्राह्मण थे, वे हल्ला करते तो राजपूत उनको वोट नहीं करते इसलिए फाइल लेकर पत्रकारों से संपर्क कर रहे थे कि उनका काम कोई दूसरा आसान कर दे। बीएचयू में इसकी जांच तो अब भी हो सकती है। मुझे यकीन है थानों में यादवों को गिनने वाले अपर कास्ट के लोग एक यूनिवर्सिटी में वीसी की जाति के थोक के भाव में राजपूत शिक्षकों की नियुक्ति का भी विरोध करेंगे। बीएचयू के वीसी इस बात की जांच कर सकते हैं। क्या पता कागज़ देने वाला फर्ज़ी आंकड़े लेकर घूम रहा हो। लेकिन एक ग़लत को आप दूसरे ग़लत से सही नहीं ठहरा सकते। अखिलेश यादव की टीम ने बीजेपी को घेरने के लिए कोई मेहनत नहीं की, कोई नए तथ्य नहीं पेश किये। अखिलेश यादव ने बीजेपी के आरोपों और कथित रूप से फैलाये अफवाहों का तथ्यों से मुकाबला नहीं किया। क्या विरोधी पार्टियां बीजेपी के बारे में अफवाह नहीं फैलाती हैं। क्या वे हमेशा सही बातें ही करती हैं।
मायावती के पास अगर मीडिया नहीं था तो कैडर था ।कायदे से उन्हें जनता को हर रैली में बताना चाहिए था कि किस तरह अख़बार और टीवी उन्हें नहीं दिखाते हैं। उन्हें भी सामने आकर इंटरव्यू देना था। ऐसे कौन से सवाल हैं जिनके जवाब उनके पास नहीं थे। अगर वो खुद से प्रयास करतीं तो आज उनके पास बोलने के लिए होता कि किस किस चैनल ने उनके इंटरव्यू के लिए मना किया। रैलियों में बोल बोलकर बहस को मोड़ सकती थीं मैं नहीं मानता कि मीडिया से ही चुनाव लड़ा जा सकता है। मगर सवालों का जवाब दिए बग़ैर आप चुनाव नहीं लड़ सकते हैं। या तो वो जवाब मीडिया के ज़रिये दें या फिर अपने काडर के ज़रिये। मायावती हर सवाल से बच कर निकल रही थीं। उन्हें बताना चाहिए था और अब भी बताना चाहिए कि कितने ज़िलाध्यक्ष जाटव हैं और कितने ग़ैर जाटव दलित, ग़ैर यादव ओबीसी हैं। क्या यह बात गंभीर नहीं है कि मायावती ने बाल्मीकि समाज को एक भी टिकट नहीं दिया। बहुजन एकता की बात करने वालों ने मायावती से यह सवाल क्यों नहीं पूछा। क्यों नहीं पूछा कि कश्यप और मौर्या का प्रतिनिधित्व कौन कर रहा है। पासी समाज का नेता कौन है। अगर है तो इसे लोगों तक पहुंचाने की कोशिश क्यों नहीं हुई। क्या बसपा समर्थकों ने भी आंखें मूंद कर इसे जाटव पार्टी की छवि नहीं बनने दी जिसका लाभ बीजेपी ने लिया। बसपा बंद कमरे की पार्टी बन गई। काडर भी कहता मिला कि फीडबैक कैसे दें और किसको दें पता नहीं चलता। बहन जी के सामने सच कौन बोले। अगर ऐसा है तो बहन जी अपने कारण से हारी हैं।
कई जगहों से सुनने को मिल रहा है कि जाटवों ने भी भर-भर कर बीजेपी को वोट किया है क्योंकि मायावती ने सौ टिकट मुसलमानों को बांट दिये। अगर यह ज़रा भी सच है तो इसका मतलब है कि कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच अंबेडकरवाद कमज़ोर पड़ गया है। वे इसकी समझ के सहारे ज़मीन पर सांप्रदायिकता का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं। उनके तर्क धाराशायी हो जा रहे हैं। सत्ता के लिए हर समय टैक्टिकल होने की धुन ने सेकुलरिज़्म को गौण कर दिया है। जब तक सामाजिक स्तर पर ध्रुवीकरण के ख़िलाफ़ समझ नहीं बनती, आप फेसबुक पर लिखकर या टिकट देकर दलित मुस्लिम एकता नहीं बना सकते हैं। दलितों के सांप्रदायिकरण से खुलकर लड़ना होगा। बसपा को ये लड़ाई लड़नी होगी। क्या किसी ने मायावती या बसपा कैडर को मुज़फ़्फ़नगर के गांवों में घूम घूम कर दलितों को समझाते देखा है कि सांप्रदायिक नहीं होना है। मुसलमान हमारे सामाजिक और राजनीतिक सहयोगी हैं। वे भी नागरिक हैं। अति पिछड़े भी बहुजन का हिस्सा हैं। बसपा उनकी भी पार्टी है। एक जाति का वर्चस्व किसी एक पार्टी में कैसे हो सकता है। तब तो बाकी जातियां बाहर का रास्ता देखेंगीं ही।
हर सवाल को अफवाह बताकर, संघ की साज़िश बताकर आप भाग नहीं सकते हैं। जब तक आप पश्चिम के दलितों के मन में मुसलमानों के लेकर बैठे दुराग्रह या पूर्वाग्रह का निपटारा नहीं करेंगे, टिकट बांट देने से समरसता नहीं बनती है। मायावती कभी यूपी के गांव कस्बों तक इस विचारधारा को लेकर नहीं गई कि हम जातिविहीन और नफ़रतविहीन समाज के लिए लड़ रहे हैं। भाईचारा किसी समाज के वैसे नेताओं के दम पर नहीं बन सकती है जो बसपा के आधारभूत वोट के आधार पर सिर्फ विधायक बनने का सपना देखते हैं। मौकापरस्ती से फ़िरकापरस्ती नहीं जाएगी। जब तक आप अपने सामाजिक आधार का नव-निर्माण नहीं करेंगे तो वो कभी न कभी धर्म के नाम पर बहकेगा ही। बसपा को बहुजन बनना होगा। बहुजन ही उसका सर्वजन है।
बसपा को कैडर की पार्टी कहते हैं। क्या इसके कैडर को पता ही नहीं चला होगा कि ग़ैर जाटव और जाटव घरों में किस तरह के पर्चे पहुंचाये जा रहे हैं। वो मुसलमानों को टिकट दिये जाने के ख़िलाफ़ वोट कर रहा है। क्या उनके पास उन पर्चों का जवाब देने के लिए कोई तर्क नहीं बचे थे। अंबेडकरवादी आंदोलन क्या सिर्फ फेसबुक और व्हाट्स अप पर रह गया है। इस परंपरा में दीक्षित तर्कशील लोगों की कोई कमी नहीं है। या तो ये बसपा के लिए आगे नहीं आए या बसपा ने इन्हें आगे नहीं किया। बसपा के मूल सामाजिक आधार जाटवों से पूछना चाहिए कि उन्होंने सामाजिक स्तर पर ग़ैर जाटव दलितों को अपनाया है, या अपने से दूर किया है। बहुजन नाम की राजनीतिक अवधारणा सामाजिक स्तर पर बनाए नहीं बन सकती है। एकाध बार बन भी गई तो टिकेगी नहीं। पहले भी तो मायावती ने 80 80 टिकट दिए हैं मगर अपनी हर रैली में नहीं बोलती थी। पहले दिन से वो सौ टिकट देने की बात कर रही हैं। क्या उन्हें नहीं पता था कि इससे बीजेपी को लाभ मिल सकता है। किसने कहा था बाहुबली की छवि रखने वाले मुख़्तार अंसारी से समझौता करने के लिए। उन्होंने यह क्यों नहीं कहा कि कितने ग़ैर जाटवों को टिकट दिया है,अति पिछड़ा को टिकट दिया है। उनके नेताओं के पोस्टर कहां थे।
बसपा के काडर को ग़ैर जाटव दलितों और ग़ैर यादव पिछड़ों के घर घर जाकर पूछना चाहिए कि वे मुसलमानों के बारे में क्या सोचते हैं। क्यों नफ़रत करते हैं। सांप्रदायिकता की लड़ाई वहां जाकर लड़नी होगी। उन्हें कौम का गद्दार कहने की ग़लती नहीं होनी चाहिए। दूसरे दल को वोट देना या बीजेपी को वोट देना गद्दारी नहीं है। अगर टिकट दिया है तो उसे डिफेंड करने के तर्क भी होने चाहिए। मुसलमानों को भी ख़ुद से पूछना चाहिए कि क्यों उन्हें समाज का एक तबका इस निगाह से देखता है। इसके लिए सिर्फ संघ पर हमला कर देने से नहीं होगा। उन्हें लोगों के घरों में जत्थों में जाना चाहिए। अपने बारे में बताना चाहिए और उन्हें बुलाना चाहिए। क्या उनकी तरफ से सामाजिक संबंध बनाने के प्रयास नहीं हुए जिसके कारण यह सब आसानी से टूटा है। वो क्यों हर बात मौलानाओं पर छोड़ देते हैं। जिनका मकसद हुकूमत से सेटिंग करने के अलावा कुछ और नहीं होता है।
सवाल यह होना चाहिए कि सेकुलर पहचान और राजनीति के लिए बसपा और सपा ने क्या किया है। क्या दोनों ने उन कारणों की पहचान की और दूर करने का प्रयास किया है, जिनसे सांप्रदायिक बातों को हवा मिलती है। सेकुलरिज़्म की लड़ाई आज़म ख़ान और नसीमुद्दीन सिद्दीकी को आगे करके नहीं लड़ी जा सकती है। क्योंकि इनके बहुत से बयान उसी सांप्रदायिकता के लिए ख़ुराक बन जाते हैं जिनसे लड़ने की उम्मीद की जाती है। ये वो नेता है जो अपने समुदाय के बीच भाषण देकर सांप्रदायिकता से लड़ते हैं। लड़ने के नाम पर सामुदायिक गोलबंदी करते हैं। ये भी कभी अपने समुदाय से बाहर के समुदायों में जाकर इसके ख़तरों पर बात नहीं करते। क्या ओवैसी देख पाए कि इन दस सालों की राजनीति में बसपा सपा के टिकट पर बड़ी संख्या में मुसलमान विधायक बने हैं। जो अब घट गई है। क्या कोई इस बात के लिए आलोचना करेगा कि बीजेपी के टिकट पर जीत कर आए 44 फीसदी विधायक अपर कास्ट के हैं। क्या ये जातिवाद नहीं है। 15 फीसदी अपर कास्ट के 44 फीसदी विधायक और वो भी सब के सब जातिवाद से ऊपर राष्ट्रवादी। बीजेपी के विधायकों में ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ा है मगर इनके आने से ब्राह्मण, क्षत्रिय और बनिया को ही ज़्यादा लाभ हुआ है। ( 44 फीसदी वाली बात अशोका यूनिवर्सिटी के त्रिवेदी डेटा सेंटर की है जिसके बारे में scroll.in पर छपा है)
लोगों ने बसपा और सपा की कमियों के कारण भी बीजेपी को वोट किया है। अगर सपा लोगों को यकीन नहीं दिला सकी कि उसकी सरकार की नौकरियों में रिश्वत नहीं ली गई है और सबको दी गई है तो इसमें बीजेपी की ग़लती नहीं है। अगर सपा और कांग्रेस के नेता नहीं बता सके कि 90 फीसदी से ज्यादा बिजली दोनों ने पहुंचाई है और हर जगह तो इसमें बीजेपी के ग़लती नहीं है। क्योंकि सपा और बसपा के पास राजनतिक मानव संसाधन भी हैं और आर्थिक भी। इनसे कहीं कमज़ोर तो आज भी बिहार में जे डी यू और आर जे डी है फिर भी लालू यादव ने गोलवलकर की किताब बंच आफ थाट्स लेकर संघ को घेर लिया। इनसे कहीं ज़्यादा राहुल गांधी ने संघ से लोहा लिया। सीधा हमला किया,कोर्ट कचहरी का सामना किया मगर राहुल की समस्या ये है कि जो वो बोलते हैं उनके नेता नहीं बोलते, जो उनके नेता बोलते हैं वो राहुल नहीं बोलते। कांग्रेस के पास राजनीतिक मानव संसाधन नहीं है जो राहुल की बातों को लोगों तक पहुंचा सके। इसीलिए ढाई साल में राहुल ने जिस ग़रीब को राजनीति पूंजी के तौर पर विकसित करने का प्रयास किया उसे बीजेपी आसानी से हड़प ले गई। राहुल का ही साहस का था कि भूमि अधिग्रहण का विरोध किया, सूट बूट का मामला उठाया और किसानों की कर्ज़ माफी को केंद्र में ला दिया। इसमें कमाल नरेंद्र मोदी का है। विपक्ष के इन तीनों हमलो को उन्होंने समझ लिया और रियल टाइम में इस चुनौती का सामना किया। यूपी चुनाव तक आते आते किसानों के कर्ज़ माफ़ी का वादा करने लगे। अब ग़रीब केंद्रित राजनीति का यह लाभ होगा कि किसानों की कर्ज़ माफी होगी। यूपी से शुरूआत होगी तो इसका लाभ देश भर के किसानों को मिलने वाला है। बीजेपी की जीत का सबसे सुखद पक्ष यही है।
यूपी की जनता ने 2014 में बीजेपी को सारे सांसद देकर सपा बसपा को संकेत कर दिया था कि उन्हें क्या सुधार करना है। दो साल हो गए मगर कुछ सुधार नहीं हुआ। गायत्री प्रजापति को बचाव किया गया और शिवपाल को निकाला गया। मुख़तार अंसारी को लाया गया मगर बीजेपी से नहीं पूछा गया कि राजा भैया या दूसरे बाहुबलियों के बारे में उनकी राय क्या है। एक बाहुबली हिन्दू होकर राष्ट्रवाद में खप गया और दूसरा बाहुबली मुसलमान होकर सांप्रदायिक हो गया। यह दौर भाजपा का है इसलिए उससे लड़ने वालों को सुधार ख़ुद में करना होगा। भाजपा तो नरेंद्र कश्यप को भी अपने पाले में ले सकती है जिसे मायावती ने बहु हत्या के आरोप में जेल जाने के कारण निकाल दिया था। विपक्ष ने इन सब बातों को नहीं उभारा। बीजेपी ने भी तमाम जातिवादी समझौते किये हैं। उसकी जीत जातिवाद के बग़ैर नहीं है मगर विरोधियों की हार भी जातिवाद के कारण है। बीजेपी के जातिवाद में संतुलन है। उसके विरोधियों के जातिवाद में अतिरेक है। मुलायम सिंह यादव के परिवार के कितने लोग विधायक बनेंगे। यह ठीक है कि बीजेपी में भी परिवारवाद है मगर इस तरह से एक खानदान के लोग विधायक सांसद नहीं हैं। जनता एक हद तक बर्दाश्त कर लेती है, एक हद से ज़्यादा नहीं। जैसे उसने सपा का बर्दाश्त किया अब कुछ दिन वह बीजेपी का बर्दाश्त कर लेगी। मगर यह कहना कि जनता ने दिल दिमाग़ सब बीजेपी को दे दिया, उस जनता के साथ इंसाफ नहीं होगा जो सीमित विकल्पों में एक ख़राब के बदले दूसरे ख़राब को चुनने के लिए मजबूर है।
इस वक्त जनता बीजेपी की अनैतिकता और उसके समझौते नहीं देखना चाहती, फिलहाल वह उसके विरोधियों की नैतिकता का इम्तहान देखना चाहती है। विरोधियों को अपने कर्मों का हिसाब देना होगा। यूपी की जनता ने सपा बसपा को दो साल का ही वक्त दिया है। 2019 बहुत दूर नहीं है। इतना ग्रेस मार्क्स तो कहीं की भी जनता किसी दल को नहीं देती है। ये चाहें तो कम से कम समय में सुधार कर सकते हैं। मिलकर नहीं लड़ेंगे तो लड़कर बिखर जायेंगे। यादव और जाटव आराम से बीजेपी में जा सकते हैं इसलिए इन नेताओं को भी यह सब बकवास भूल कर मिल जाना चाहिए कि जाटव और यादव एक दूसरे के शत्रु हैं। मगर सारा प्रयास सिर्फ बीजेपी को हराने के लिए होगा तो मिलकर भी हारेंगे। सवालों के जवाब पहले देंगे होंगे, अपनी ग़लतियां स्वीकार करनी होगी और जो तथ्य हैं उन्हें लेकर गांव गांव जाना होगा। दूसरी बात बीजेपी की कामयाबी में केंद्र सरकार के कार्यों को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। उज्ज्वला और आवास योजना के असर को भी देखा जाना चाहिए। हवा से जनता में हवा नहीं बनती है।