नई दिल्ली: कवयित्री का जीना इस देश में बड़ा मुश्किल है. कोई अच्छा काव्य पाठ्य करे तो कोई माफिया टाइप मंत्री उस पर डोरे डालता है और फिर गोली मार कर लखनऊ जैसे शहर में कत्ल करवा देता है. कोई कविता जैसी सुन्दर हो तो उसे कोई घर से भगा ले जाता है, फिर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़वाता है. और कोई कविता में 'वीर्य रस' घोल दे तो फिर पूछिये ही मत. रातों रात आलोचक राज ठाकरे बन जाते हैं.
जाहिर है ज़माना महादेवी वर्मा का नही है. आज तो व्हाट्सएप युग है. लिहाजा 'देवी' अब 'बेबी' है. इसी तर्ज़ पर आज कविता को २५ साल की युवा कवयित्री शुभम श्री नए रंग ढंग में परिभाषित कर रही हैं. दो महीने पहले जब उनकी कविता "पोएट्री मैनेजमेंट" के लिए उन्हें प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरूस्कार से सम्मानित किया गया तो हिंदी के आलोचक अचानक मर्द हो गए थे. वैसे मर्दों पर जो कुछ शुभम ने लिखा है वो वाकई 'खूब लड़ी मर्दानी' जैसा ही है.
बहरहाल पहली बार देश की किसी अंग्रेज़ी पत्रिका ने किसी हिंदी कवयित्री की कविता को सराहा है और उस पर बिग स्टोरी की है. अक्टूबर अंक के ताज़ा संस्करण में 'कारवां' पत्रिका ने शुभम श्री पर अपने कई पृष्ठ समर्पित किये हैं. पत्रिका का कहना है कि शुभम किसी भी सोच को हिला कर रख देनी वाली कविता लिखती हैं भले ही उनपर कोई लेफ्ट होने का या अंग्रेजी के लव्ज़ हिंदी में ढालने के आरोप लगाए. जेएनयू की शुभम आज की युवा कवयित्रियों की भीड़ में काफी आगे खड़ीं है.
शुभम की कविताएं दरअसल आज के दौर की लड़की की डिजिटल अभिव्यक्ति है. वे अपने आसपास के हर रंग को, हर दर्द को, हर ट्रैजिक क्षण को बोलचाल की हिंदी में पिरोती चली जाती हैं. उनकी पुरस्कृत कविता तो कई जगह छपी है लेकिन कुछ पंक्तियाँ, जो पढ़ी ज्यादा गयी पर छपी कम,नीचे नमूने के तौर पर प्रस्तुत हैं. आपकी नज़र.
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मुझे पता है
तुम देरिदा से बात शुरू करोगे
अचानक वर्जीनिया कौंधेगी दिमाग में
बर्ट्रेंड रसेल को कोट करते करते
वात्स्यायन की व्याख्याएँ करोगे
महिला आरक्षण की बहस से
मेरी आजादी तक
दर्जन भर सिगरेटें होंगी राख
तुम्हारी जाति से घृणा करते हुए भी
तुमसे मैं प्यार करूँगी
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क्लासरूम कविता
पता नहीं क्यों
हिंदी पढ़नेवाली लड़कियाँ एनसीसी में जाती हैं
जबकि
अंग्रेजी की लड़कियाँ 'ज्वायन' करती हैं एनएसएस
बस इतना ही तो अंतर है
जितना आपके, वो क्या कहते हैं...
सीलमपुर और सफदरजंग में
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यूँ ही गुज़रती है ज़िन्दगी
पोलित-ब्यूरो का सपना
महिला-मोर्चे का काम
सेमिनारों में मेनिफ़ेस्टो बेचते
या लाठियाँ खाते सड़कों पर
रिमाण्ड में कभी-कभी
अख़बारों में छपते
पर जो तकिया गीला रह जाता है कमरे में
बदबू भरा
उसे कहाँ दर्ज करें कॉमरेड ?
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मुझे पता है ये बेहद कमज़ोर कविता है
मासिक-चक्र से गुज़रती औरत की तरह
पर क्या करूँ
मुझे समझ नहीं आता कि
वीर्य को धारण करनेवाले अंतर्वस्त्र
क्यों शान से अलगनी पर जगह पाते हैं
धुलते ही 'पवित्र' हो जाते हैं
और किसी गुमनाम कोने में
फेंक दिए जाते हैं
उस ख़ून से सने कपड़े
जो बेहद पीड़ा, तनाव और कष्ट के साथ
किसी योनि से बाहर आया है
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