प्रश्न अभिव्यक्ति का है,
मित्र!
किसी मर्मस्पर्शी शब्द से
या क्रिया से,
मेरे भावों, अभावों को भेदो
प्रेरणा दो!
यह जो नीला
ज़हरीला घुँआ भीतर उठ रहा है,
यह जो जैसे मेरी आत्मा का गला घुट रहा है,
यह जो सद्य-जात शिशु सा
कुछ छटपटा रहा है,
यह क्या है?
क्या है मित्र,
मेरे भीतर झाँककर देखो।
छेदो! मर्यादा की इस लौह-चादर को,
मुझे ढँक बैठी जो,
उठने मुस्कराने नहीं देती,
दुनियाँ में आने नहीं देती।
मैं जो समुद्र-सा
सैकड़ों सीपियों को छिपाए बैठा हूँ,
सैकड़ों लाल मोती खपाए बैठा हुँ,
कितना विवश हूँ!
मित्र, मेरे हृदय का यह मंथन
यह सुरों और असुरों का द्वन्द्व
कब चुकेगा?
कब जागेगी शंकर की गरल पान करने वाली करुणा?
कब मुझे हक़ मिलेगा
इस मंथन के फल को प्रगट करने का?
मूक!
असहाय!!
अभिव्यक्ति हीन!!
मैं जो कवि हूँ,
भावों-अभावों के पाटों में पड़ा हुआ
एकाकी दाने-सा
कब तक जीता रहूँगा?
कब तक कमरे के बाहर पड़े हुए गर्दख़ोरे-सा
जीवन का यह क्रम चलेगा?
कब तक ज़िंगदी की गर्द पीता रहूँगा?
प्रश्न अभिव्यक्ति का है मित्र!
ऐसा करो कुछ
जो मेरे मन में कुलबुलाता है
बाहर आ जाए!
भीतर शांति छा जाए!