"देख स्वामी, पिछली बार मैंने सिर्फ़ तुम्हारे कहने पर तुम्हारे और तुम्हारे सारे दोस्तों के साथ जी भर के होली खेली थी और दीवाली पर तुम्हारे घर पर आतिशबाज़ी के मज़े लिए थे।" मालगुडी के मुख्य पार्क के स्केटिंग मैदान में स्केटिंग करते वक़्त हामिद ने स्वामी से कहा, "कल तुम मेरे साथ मीठी ई़द मनाओगे न!"
"ई़द! क्या होता है ई़द में, ऐं! सिवैंया खालूँगा तुम्हारे घर आकर...और क्या! आतिशबाज़ी-पटाखे, रंग जैसी मस्ती तो होती नहीं न तुम्हारे त्योहारों में!" स्वामी ने हामिद के कंधे पर हाथ रखकर स्केटिंग का चक्कर लगाते हुए कहा।
"अरे, तुम्हें मालगुडी की ई़दगाह ले चलूँगा। सबेरे से नहा-धोकर कुर्ता-पाजामा पहन कर अपनी वाली टोपी लगाकर करप्पन के ऑटोरिक्शा के पास मिल जाना। हम अब्बू के साथ उसी ऑटो से ई़दगाह जायेंगे।
"चलूँगा। नमाज़ देखूँगा। सुना है सैंकड़ों लोग एक साथ नमाज़ पढ़ते हैं वहाँ!"
"पढ़ते नहीं, स्वामी! नमाज़ अदा करते हैं... इस तरह कहते हैं!" इतना कहकर हामिद ने स्वामी से हाथ मिलाया। स्वामी ने कल सुबह मिलने का वादा किया। दोनों ने स्केटिंग किट पैक कर पार्क की पानी की टंकी पर हाथ-पैर और मुँह धोया और फ़िर अपने-अपने घर चले गये।
अगले दिन बड़े सबेरे स्वामी को स्नान कर वॉशरूम से निकलते देख उसकी दादी एकदम चौंक गईं।
"श..श..श... दादी माँ ... चुपचाप मेरे सफ़ेद वाले कुर्ता-पाजामा और टोपी निकाल दो मेरी अलमारी से!"
"क्यों बेटा! आज तो छुट्टी है न। आज तो तुम्हें क्रिकेट खेलने जाना है न। क्रिकेट किट में जाओगे न! आज इतनी ज़ल्दी क्यों स्नान कर लिया, बेटा?" दादी ने ताड़ते हुए लड़खड़ाते धीमे स्वर में पूछा।
"डैडी को कुछ मत बताना। आज मैं क्रिकेट खेलने नहीं, दोस्त हामिद के साथ ई़दगाह जा रहा हूँ। बड़ा मज़ा आयेगा पहली बार!"
हमेशा की तरह पोते की ख़ूशी में ख़ुश होती दादी ने स्वामी को कपड़े लाकर दिये और अपने हैंडबैग से इत्र की शीशी निकाल कर इत्र लगाते हुए कहा, "ख़ुशबू भी यूँ लगायी जाती है। रुई के फाहे कानों में यूँ लगाते हैं!"
जब स्वामी पूरी तरह तैयार हो गया, तो अपने पर्स में से कुछ सिक्के और नोट निकाल कर दादी उससे बोलीं, "ई़दगाह पैदल जाने का रिवाज़ है। रास्ते में जो भी ग़रीब-मोहताज़ मिले, उसे पैसे देते जाना। ... हाँ... रास्ते में हर मिलने वाले से सलाम या नमस्ते ज़रूर कहना। तीस रुपये ई़दगाह में लगी दुकानों और झूलों के लिए बचा कर रखना। ... लौटते समय दूसरे रास्ते से आना, ताकि अन्य दूसरे लोगों से ई़द मुबारक कह कर मिल सको। ... हामिद के अब्बू तो रहेंगे न साथ में, बेटा!"
"हाँ, दादी माँ। हम सब करप्पन के ऑटोरिक्शा में जायेंगे। .... लेकिन मम्मा-डैडी को आप मना लोगी न! उन्हें बताऊंगा, तो वे न जाने देंगे मुझे!"
"वैसे तुम्हें कल रात को ही उन से अनुमति लेनी चाहिए थी अच्छे बेटे की तरह! ख़ैर, मैं समझा दूंगी... मना लूंगी।"
स्वामी ने राहत की साँस ली और दरवाज़े की ओर चल पड़ा। पीछे से दादी भी आ गईं और बोलीं, "मेरा यह मोबाइल फ़ोन साथ में ले जाओ और हर आधे घंटे बाद एक मिसकॉल मम्मा के फ़ोन पर करना। जब ई़द की नमाज़ हो जाये, तो एक साथ दो मिसकॉल करना। कोई परेशानी हो, तो वाट्सएप कर देना या फ़ोन कर देना।... और यदि नेटवर्क ठीक-ठाक रहे और भीड़भाड़ न हो, तो बेटा वीडियो कॉल ही कर देना, तो हम भी ई़दगाह के लाईव नज़ारे देख लेंगे, है न!"
स्वामी ने लपक कर मोबाइल लेकर कुर्ते के ज़ेब में रख कर टोपी लगाकर दादी माँ के चरण-स्पर्श कर बोला, "अच्छा, चलता हूँ अल्लाहहाफ़िज़, मम्मा-डैडी मॉर्निंग वॉक से लौटने ही वाले होंगे; सब सँभाल लेना, ओके!"
"जय सियाराम, बेटा! ज़ल्दी समय पर लौटना!" स्वामी के सिर पर हाथ फेरकर दादी ने कहा।
अब स्वामी दौड़ लगाता हुआ करप्पन के ऑटोरिक्शा तक पहुंच गया और सीधे उसके अंदर बैठ गया, ताकि उसका कोई पड़ोसी भी न देख पाये। कुछ ही मिनटों में हामिद अपने अब्बू और चचाजान के साथ वहाँ पहुंच गया। करप्पन भी वायदे के मुताबिक़ वहां पहुंचा। लेकिन स्वामी को देख कर एकदम दंग रह गया। हामिद के अब्बू ने इशारे से उसे चुप रहने को कहा।
ई़दगाह से क़रीब एक किलोमीटर पहले ऑटोरिक्शा स्टैंड पर उन्हें उतरना पड़ा, क्योंकि सड़क पर बहुत भीड़ थी। लोग सड़क के दोनों तरफ़ बैठे ग़रीब, लाचारों और भिखारियों को अनाज या पैसे दान कर रहे थे। पहली बार ऐसा मुस्लिम समूह दृश्य नज़दीक़ से देखकर स्वामी बहुत ख़ुश हो रहा था। हालांकि ऐसे भीड़भाड़ वाले, दान-पुण्य वाले दृश्य वह परिवार के साथ तीर्थयात्राओं और धार्मिक मेलों में देख चुका था।
स्वामी गुनगुनाने लगा, "ताना ना ताना ना ना ना... ताना ना ताना ना ना ना... ताना ना ताना ना ना ना... ।" तभी हामिद ने इशारा करके उसे चुप होने को कहा। स्वामी हामिद, उसके अब्बू व चचाजान की ओर देखने लगा। वे सभी धीरे-धीरे अरबी में कुछ बार-बार दोहरा रहे थे, 'अल्लाहु अकबर... व लाइलाहा....'। हामिद ने स्वामी के कान में धीरे से कहा, "हमारे यहाँ ई़दगाह जाते और वहाँ से लौटते समय यह बोलना, दोहराना होता है।
ई़दगाह के मुख्य द्वार के बाहर एक तरफ़ गाड़ियों की पार्किंग के लिए व्यवस्था थी, तो दूसरी तरफ़ चादरें और बैनर लिए कुछ बच्चे और नौजवान मस्जिदों, मदरसों और अन्य समाजसेवी कार्यों के लिए चंदा जमा करने के लिए नमाज़ियों से आग्रह कर रहे थे यह कहते हुए कि ''... मस्जिद के लिए इमदाद कीजिए...'।सबको दान देते हुए देख कर स्वामी ने भी मदरसे के अनाथ बच्चों के लिए पाँच रुपये का एक नोट फैली हुई चादर में डाल दिया।
जूते-चप्पल उतार कर वे सभी ई़द की नमाज़ अदा करने हेतु निर्धारित बड़े से ऊँचे प्लेटफार्म पर पहुंचे। जहाँ शहर क़ाज़ी साहब तकरीर कर रहे थे। स्वामी चारों तरफ़ नज़रें दौड़ा कर प्रफुल्लित हो रहा था। लोग कतारों में कंधे से कंधा मिलाकर बिछी हुई दरियों या घर से लायी हुई जानमाज़ों पर बैठे हुए थे; शहर क़ाज़ी साहब के प्रवचन सुन रहे थे। हामिद के अब्बू ने कहा, "बेटा स्वामी, बस कुछ ही देर में यहां दस-पंद्रह मिनटों में नमाज़-ए-ई़द अदा की जायेगी और सभी के लिए दुआएँ की जायेंगी। फ़िर सब एक-दूसरे से गले मिलते हुए 'ई़द मुबारक' कहेंगे।" इतना कहकर वे उसे सामने नगर निगम द्वारा व्यवस्थित टेंट के नीचे ले गये और बोले ,"तुम यहाँ इन सब बच्चों के बीच कुर्सी में बैठ कर नमाज़ अदा होते देखना। नमाज़ पूरी होते ही सबसे पहले हम यहाँ तुम्हारे पास आ जायेंगे। घबराना मत। हाँ, हमारे ये झोले वगै़रह तुम सँभाल लो अभी।" यह कहकर वे नमाज़ वाली जगह पर चले गये।
बहुत ही कौतूहल से स्वामी सारे दृश्य देखने लगा। पुलिसकर्मी ड्यूटी दे रहे थे। फेरीवाले दूर-दूर तक नज़र आ रहे थे। गेट के दूसरी तरफ़ कुछ झूले भी लगे हुए थे। चाट, मोमोज़, चाउमिन वग़ैरह की कुछ स्टॉल्स भी लगी हुईं थीं। कुर्सियों पर रंग-बिरंगी पोषाकें पहने बच्चे और दूसरे मज़हबों के कुछ अतिथिगण और पत्रकार वग़ैरह भी बैठे हुए थे कैमरे लिये हुए।
स्वामी ने मोबाइल निकाल कर दादी माँ को दो बार मिसकॉल कीं। फ़िर एक वीडियो कॉल कर वहाँ के दृश्य दिखा दिये। दादी ने उसकी मम्मी से भी बात करवा दी। स्वामी बहुत ख़ुश हुआ। फ़िर उसने मोबाइल से कुछ फोटोज़ भी खींचे, सेल्फीज़ लीं और वीडियो भी बना डाले। कुछ ही मिनटों में उसने देखा कि सभी नमाज़ी कंधे से कंधा मिला कर खड़े हो गये और स्कूल की सामूहिक पी.टी. और योगा की तरह सामूहिक दो चरणों (रक़ात) की नमाज़ शुरू हो गई। यह सब जीवन में पहली बार वह देख रहा था। एकदम शांत वातावरण में एकसाथ नमाज़ अदा होते देख वह हैरान हो रहा था और ख़ुश भी। लेकिन एक सवाल भी था उसके दिलोदिमाग़ में कि वह भी सबके साथ नमाज़ अदा क्यों नहीं कर सकता था।
इधर ई़द-उल-फ़ित्र की नमाज़ अदा हो रही थी .. उधर स्वामीनाथन के पिता वकील साहब डब्ल्यू. टी. श्रीनिवासन आगबबूला हो रहे थे कि स्वामी उनको बताए बिना क्यों ई़दगाह गया।
"माहौल वैसे भी आजकल ख़राब है! कहाँ बैठा होगा वह नमाज़ के समय! भीड़-भाड़ में कहीं परेशान न हो जाये।" बड़बड़ाते हुए वे अपनी पत्नी पर बरस ही रहे थे कि स्वामी की दादी माँ ने उन्हें बताया, "बेटा, तुम परेशान मत हो! मुझसे अनुमति लेकर गया है और सब कुछ मैंने उसे समझा दिया था। कुछ मिनटों पहले ही वीडियो कॉल पर हम दोनों की उससे बात भी हो गई है। ... बड़ा ख़ुश नज़र आ रहा था... है न बहू!" यह कहकर वे स्वामी की मम्मी की ओर मुस्कुराकर देखने लगीं।
"वो तो ठीक है... लेकिन मुझसे तो कहता एक बार! मैं ही उसे वहां ले जाता!" वकील साहब अब तसल्ली के साथ बोले।
"दरअसल बच्चों को बच्चों के साथ जाना अच्छा लगता है। अपने सहपाठी दोस्त हामिद के साथ आज अपना स्वामीनाथन भी ई़द का आनंद तो लेगा ही... बहुत कुछ सीखेगा भी।" यह कहकर वे स्वामी की मम्मी से बोलीं, "बहू, तुम आज कुछ सिवैंया भी बना लो। घर की हाथों से बनी कच्ची सिवैंया पड़ोस की मस्जिद के पास जमीला बेगम की दुकान से ख़रीद लाओ। आज शाम को हामिद और उसके अम्मी-अब्बू को आमंत्रित कर लेना। अच्छा लगेगा स्वामी को भी।"
पूरी तैयारी के साथ वे सब स्वामी के घर लौटने की प्रतीक्षा करने लगे।
उधर ई़दगाह में अब ई़द-उल-फ़ित्र की सामूहिक नमाज़ सम्पन्न हो चुकी थी। लोग अपनी-अपनी दरियां और जानमाज़ें समेट कर एक-दूसरे से गले मिल कर 'ई़द मुबारक' कह रहे थे। अद्भुत नज़ारे देख कर स्वामीनाथन बहुत ख़ुश हो रहा था। भीड़ में पहले तो वह घबराया। फ़िर ज़ेब में मोबाइल भली-भाँति सँभालते हुए वह भी वहाँ मौजूद बच्चों से गले मिलकर उन्हें ई़द की मुबारकबाद देने लगा।
थोड़ी ही देर में हामिद, उसके अब्बू और चचाजान भी उसके पास पहुंच गये। सब बारी-बारी से स्वामीनाथन को गले लगाकर ई़द मुबारक कहने लगे। वहीं पर हामिद के अब्बू ने उन तीनों को बतौर ई़दी पचास-पचास के नोट दिये।
"अब्बू, जब तक भीड़ छँटती है और पार्किंग से ऑटोरिक्शा निकाल कर करप्पन अंकल सड़क तक लाते हैं, क्यों न हम दोनों कुछ झूला झूल लें और चाट वग़ैरह खा लें।" हामिद ने अपने अब्बू से निवेदन किया।
"हाँ, हाँ क्यों नहीं! लेकिन यहाँ चाट मत खाना। घर चलकर सिवैंये ही खायेंगे। खाना ही हो..... तो उस वाले ठेले पर जाकर गोल-गप्पे.. या आलू-टिक्की भर खा लेना। याद रहे, तुम दोनों साथ ही रहना। हम दोनों ऑटोरिक्शे पर बाहर मिलेंगे। ज़ल्दी आना। हमें क़ब्रिस्तान भी तो जाना है घर जाने से पहले।" हामिद के अब्बू ने समझाया!
"कब्रिस्तान! वहाँ क्यों? फ़िर तो हमें देर हो जायेगी घर लौटने में। इस बारे में तो मैंने दादी माँ को बताया ही नहीं था!" स्वामी कुछ चिंतित होते हुए बोल पड़ा।
"बेटा, स्वामी। हमारे यहाँ ऐसा भी रिवाज़ है कि अज़ीज़ स्वर्गीय रिश्तेदारों की क़ब्र पर जाकर दुआएँ करते हैं इस ई़द की नमाज़ के बाद। वैसे भी क़ब्रिस्तान यहाँ नज़दीक़ ही है। दस-पंद्रह मिनटों की ही तो बात है।
"अंकल, मैं दादीमाँ को फ़ोन करता हूँ। आप उन्हें सब बता दीजिए, प्लीज़!" अपने मोबाइल पर नंबर लगाते हुए स्वामी ने कहा और दादी माँ से हामिद के अब्बू की बात करवा दी।
अब्बू और चचाजान को बता कर हामिद स्वामीनाथन को सबसे पहले बड़ा वाला झूला झुलवाने ले गया। जैसे ही वे दोनों वहां पहुंचे, एक तेज़ आवाज़ उन्हें सुनाई दी, "स्वामी, देख हम भी आ गये!"
स्वामी ने देखा कि उस झूले पर बैठा हुआ राजम चिल्ला रहा था।
"अरे, राजम, सोमू, मणि, नित्या, सेम्युअल... तुम सब भी यहाँ! व्हाट अ ग्रेइट सर्प्राइज़ यार!" हामिद आश्चर्यचकित होकर बोला।
"राजम, तुम सब यहाँ कैसे? कल तो कुछ नहीं बताया था इस बारे में!" झूले पर राजम के पास बैठते हुए स्वामी ने कहा।
"तुम क्रिकेट खेलने नहीं आये आज, तो मैं तुम्हारे घर पहुंचा। तुम्हारी दादी माँ ने हमें सब कुछ बता दिया था। फ़िर मैंने अपने पापा से बात करके सब दोस्तों को फोन कर दिया था। फ़िर पापा की कार से हम सब यहाँ आ गये!" राजम ने बताया।
"अरे हाँ, तुम्हारे पापा तो डीएसपी हैं न! यहाँ आना ही था उन्हें। ये बढ़िया रहा।!" हामिद ने कहा।
सब झूले पर बैठ गये। झूले के चक्कर शुरू हुए।
"ताना ना ताना ना ना ना... ताना ना ताना ना ना ना... ताना ना ताना ना ना ना... । " स्वामीनाथन बड़ी ख़ुशी से गाने लगा। झूले में बैठे उसके दोस्त और कुछ अन्य बच्चे भी गुनगुनाने लगे, "ताना ना ताना ना ना ना... ताना ना ताना ना ना ना... ताना ना ताना ना ना ना...।"
झूला झूलने के बाद वे सब दोस्त गोल-गप्पे वाले ठेले पर पहुंचे। किसी ने गोल-गप्पे, तो किसी ने आलू-टिक्की का स्वाद लिया।
तभी डीएसपी साहब का ड्राइवर पार्किंग से कार निकाल कर सड़क पर ले आया। करप्पन भी अपना ऑटोरिक्शा लेकर वहाँ मौजूद था हामिद के अब्बू और चचाजान के साथ।
"अंकल, अगर इज़ाज़त दें, तो हम सब दोस्त कार से ही घर पहुंच जायें!" राजम ने हामिद के अब्बू से कहा।
"हाँ, यह ठीक रहेगा। वैसे भी इस बार भीड़ बहुत रहेगी क़ब्रिस्तान में भी। सुबह के साढ़े दस बज गये हैं। बहुत देर हो जायेगी।" हामिद के अब्बू ने कहा। फ़िर वे स्वामीनाथन से बोले, "बेटा, तुम अपने घर फ़ोन पर बता दो कि हमारे साथ अब कब्रिस्तान न जाकर तुम हामिद और इन दोस्तों के साथ डीएसपी साहब की कार से घर पहुंच रहे हो।"
स्वामी ने ऐसा ही किया। अपने घर वीडियो कॉल कर हामिद के अब्बू, राजम और ड्राइवर से भी बात करवा दी। इस निर्णय से हामिद भी बहुत ख़ुश था। हामिद के अब्बू और चचाजान ऑटोरिक्शे से क़ब्रिस्तान की ओर चल पड़े।
स्वामीनाथन, हामिद और राजम वग़ैरह की टोली डीएसपी साहब की कार से अपने-अपने घर की ओर रवाना हुई। रास्ते में वे सब ख़ुशी से गीत गाते रहे और मधुर स्वर में गुनगुनाते रहे, "ताना ना ताना ना ना ना......ताना ना ताना ना ना ना......ताना ना ताना ना ना ना...।"