तीसरी कड़ी का वर्चस्व
वर्तमान समय में अख़बार भी लोगो की रोजमर्रा की दिनचर्या में शामिल है, अधिकांश लोग सुबह-सुबह अख़बार पढ़ना पसंद करते है. कई लोग पूरी दिलचस्पी के साथ हर खबर को गंभीरता से पढ़ते है, तो कुछ लोग हेड लाईन पढ़कर ही संतुष्ट रहते है. चूँकि अखबारों में देश-विदेश से लेकर गली-मुहल्लों तक की खबरे रहती है, जिसे पढ़कर यह जानकारी हो जाती है कि बीते कल में क्या हुआ या आने वाले कल के दौरान अपने आसपास क्या होने वाला है. वैसे तो सोशल मिडिया के आने से बहुत सी खबरे मिनटों में ही मिल जाती है, लेकिन सोशल मिडिया के खबरों की सच्चाई पर हमेशा संदेह रहता है. समाचार पत्रिकाओ में जो आसपास और गली-मोहल्ले की जो खबरे आप तक पहुंचती है, उसे संलग्न करने के लिए पत्रकारों को कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है, पत्रकार वो है जो सिर्फ अपने भरोसे ही टिका होता है. खबर भेजी तो कम्पनी खुश नहीं तो जनता की नाराजगी भी झेलनी पड़ती है. एक पत्रकार की आम जनता, नेता, पुलिस-प्रशासन से लेकर अपने कर्यालय तक की जवाबदेहि बनती है, जिसके एवज में उसे वाजिब मेहनताना भी नहीं मिलता. वो अव्यवस्थित संसधानो के साथ हमेशा बेहतर करने को तत्पर रहता है और करता भी है. इन सभी के बिच एक ऐसा शख्स भी होता है, जो मालिक ना होते हुए भी मालिक जितना प्रभाव पत्रकारिता जगत में रखता है. उसका प्रभाव इस कदर का होता है कि प्रकाशक-संपादक भी उस भय खाते है, इसका प्रभाव ज्यादातर बड़े व नामी पत्रिकाओ में अधिक होता है. वही पत्रकारों को भी इनका खास ख्याल रखना पड़ता है, नहीं तो पता नहीं कब ये प्रकाशक-संपादक को धमका दे और पत्रकारों को अपनी नौकरी गवानी पड़ जाए. पत्रकार और प्रकाशक के बिच की कड़ी होते है एजेंट और इन्हें इतना गुमान होता है कि ये किसी भी पत्रिका को उठा या गिरा सकते है. जिसके दम पर ये प्रकाशक और पत्रकार दोनों में अपनी धमक बनाए रहते है. रेलवे स्टेशन भी इनकी पैतृक सम्पत्ति होती है. अहले सुबह से लेकर घंटो तक कोई भी स्टेशन हो इनका ही अधिकार क्षेत्र में रहता है. जबकि ये रेलवे का भरपूर फायदा उठाते है और रलवे को एक रूपए भी नहीं देते. लेकिन इनका एक पैसा भी रखना मालिको के लिए बहुत बड़ी गुनाह हो जाती है. गौरतलब है कि आसनसोल रेल मंडल के सीतारामपुर स्टेशन के एक नंबर प्लेटफार्म में ऐसे ही एक पेपर एजेंट अपना धंधा फैलाए रहते है और सोचते है कि ये उनकी पैतृक सम्पत्ति है. बात बुधवार की सुबह की है, जब एक राष्ट्रिय पत्रिका के एक पत्रकार अपना अखबार उतारने गया था, जो की वो काफी लम्बे समय से अख़बार उतार रहा है. उसे स्थानीय पेपर एजेंट नारायण सिंह ने कहा कि यहाँ से अख़बार उतारना है तो पांच सौ रूपए महीने देना होगा. पत्रकार ने पूछा रूपए क्यों देना होगा. तो एजेंट ने कहा जीआरपी को रूपए देने पड़ते है, इसलिए रूपए दो नहीं तो अखबार उतारने नहीं देंगे और तुम्हारे प्रकाशन कम्पनी भी कुछ नहीं बिगाड़ सकती है. इस माहौल भी पत्रकारों को चुप रह कर काम करना पड़ता है, क्योकि वो जनता है कि एजेंट की भूमिका क्या होती है.