आसनसोल (जहाँगीर आलम) :- सवाल तो देश में आज भी वही है जो आजादी के बाद रहे थे. शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार आदि जैसे अहम् विषयो से देश आज तक आगे नहीं बढ़ पाया है. हाँ इन बीते दशको में देश की जनसंख्या जरुर बढ़ी है. लेकिन समस्या जस की तस ही रही. यानी कह सकते है की सात दशक पहले जिस तरह देश को बदलने की आवाज उठी थी वही आवाज आज उठ रही है. लेकिन क्या देश बदलेगा? जिस समस्या से देश जूझ रहा है, उसी से निजी कम्पनियाँ अरबो-खरबों रूपए की उगाही कर रही है. पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ, मकान के नाम पर अरबो का
व्यापार किया जा रहा है. ऐसे में नोटबंदी से देश बदलने के निर्णय पर सवाल उठने लाजमी है. क्योकि इससे आमजन ही कतारों में दिख रहे है, जिनके नाम पर यह निर्णय लिया गया था वो तो नदारत है. जबकि देश की व्यावस्था ही पूंजी पर टिकी है, तो क्या इस फैसले से देश की जीडीपी घटेगी या रोजगार का संकट आएगा. जब देश का 80 प्रतिशत नागरिक अपने छोटी-छोटी जरूरतों के लिए छोटी-छोटी कमाई को लेकर जिंदगी गुजार रहा है.तो उन्हें यह सपना दिखाना की पचास दिनों के तकलीफ के बाद आपको वह सब मिलेगा जिसके लिए आप तरसते रहे है, तो कतारों में खड़े आप कैसे कहेगे की जो हो रहा है वह गलत है. लेकिन सच्चाई इससे इतर है. सन 1947 में जिस अर्थव्यावस्था के आसरे देश बदलने की कवायद शुरू की गयी थी. आज भी उसी को अपनाया जा रहा है. यानी दलित, मुस्लिम, आदिवासी, किसान और महिला की बाते तब तक की जाती है जब तक की सत्ता हासिल ना हो जाये. सत्ता मिलते ही सभी वादे भूल जाते है और वे वोट बैंक बने रहकर मुख्य धारा से जुड़ नहीं पाते है. आज भी दलित, मुस्लिम, आदिवासी, किसान और महिला की स्थिति बाद से बदत्तर ही है कोई सुधार अभी तक देखने को नहीं मिला. कहने का मतलब यह है कोई भी सरकार इन मुद्दों को कैसे भी उठाये वे सफल नहीं होंगे. जबतक पूंजी पर टिकी अर्थव्यावस्था को समाप्त नहीं किया जाता है. तो क्या पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ, मकान को निजी हाथो से वापस लेकर खुद इसकी जिम्मेवारी मोदी सरकार उठा पायेगी. यानी गरीब नागरिको के कंधे पर सवार होकर कालेधन, भ्रष्टाचार एवं आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए नोटबंदी का फैसला लिया गया. फिर भी यह सभी ब-दस्तूर जारी रहे तो सरकार की योजनाये विफल ही मानी जाएगी. और हर नागरिक के मन में यही सवाल कौंधेते रहेगा कि क्या पचास दिन में सब कुछ सामान्य हो जायेगा.
क्योकि नासिक, सालबोनी, मैसूर और देवास के जिन मशीनों में देश के नोट छपते है, उसकी सच्चाई यह है कि ये मशीने प्रत्येक वर्ष 16 अरब नोट ही छापने की क्षमता रखते है, जबकि नोटबंदी से 22 अरब नोट नष्ट हुए है. अब इस प्रक्रिया से समझा जा सकता है कि देश को यह समस्या कितने दिनों तक झेलनी पड़ेगी. फिलहाल दिल्ली, कोलकाता, मुंबई आदि शहरो से वृहद् संख्या में नए नोट पकडे जा रहे है. लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि इसमें लिप्त और पकड़ने वाले दोनों ही सरकार के लोग है. तो क्या अब भ्रष्टाचार ही सिस्टम बन गया है और इसी सिस्टम के आसरे मोदी सरकार देश को कैशलेस समाज बनाने की सपने देख रही है. लेकिन यह सपना कैसे पुरा हो सकता है, जब पीएमओ को ही स्टिंग ओपरेशन चलाने की जरुरत पड़ रही है. इन धटनाओ से एक बात सामने आ रही है कि अच्छे दिनों का सपना देखना अभी भी दूर की कौड़ी है. सदन भी हंगामे की भेट चढ़ गया. लेकिन किसी राजनितिक दल ने इमानदारी से यह बताने की कोशिश नहीं किये की उनका दल चल कैसे रहा है? व्यावसायिक घरानों को अरबो का पैकेज और गरीबो को राहत पैकेज ही क्यों? यानी
राजनीति क व्यवस्था ने कभी खुद को जनता के प्रति जिम्मेवार समझा ही नहीं. देश को कार्पोरेट ही चलाते रहे है तो ऐसे में किसी को यह बताना नहीं पड़ेगा कि कालाधन किसके पास है और भ्रष्टाचार कौन करता है.
नोटबंदी के बाद से देश का सारा सिस्टम ही हिल गया है, जनजीवन अस्त-व्यास्त है, रोजगार ठप पड़े है, लंगरों में भूखो की तादात बढ़ने लगी है,पढाई करने वाले युवा कतारों में खड़े है तो क्या 30 दिसंम्बर के बाद जादू होगा? जिससे एक पल में ही सबकुछ ठीक हो जायेगा. इस मुद्दे पर हर राजनितिक दल मोदी को घेरने में लगा है.लेकिन कोई यह बताने को तैयार नहीं कि आखिर देश का होगा क्या? इस समस्या से कैसे छुटकारा मिलेगी? जब देश ही ठप हो जायेगा तो राजनीति कहाँ करोगे. जिस तरह से रोजगार ठप हो रहे है और बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है, तो ये जायेंगे कहाँ? क्या इनको भूख लगेगी तो अराजकता का माहौल नहीं पैदा होगा? इसका जवाब सरकार के पास भी नहीं है. वे एक तरफ इमानदारी के दावे किये जा रहे है तो दूसरी तरफ देश कतार में है, तीसरी तरफ दोनों सदन हंगामे की भेट चढ़ गया और चौथी तरफ पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तैयारी चल रही है. तो क्या जनता अपनी परेशानियों का जवाब मतदान से दे सकती है? जनता भी यह भली-भाँती समझती है कि भ्रष्टाचार भी राजनीति का पोशपालक बच्चा है. इसका ताजा उदाहरण यूपी में विधानसभा चुनाव प्रचार के लिए 248 मोटरसाईकल का ख़रीदा जाना है.