तुम मुझे गिरा देना
अपने विकृत मिथ्या से।
छलनी कर देना
मेरे चित्त को अपने
घृणित शब्दों के बाणों से।
थोड़ा जला भी देना अपनी
बुरी नजरों की ज्वाला से।
कुचल देना मुझे धूल में
अपनी अकड़ से।
फिर भी मै उठूँगा
उसी धूल सा.....…
ज़रा ध्यान रखना अपनी
प्रिय मिथ्या का
कहिं उसे उड़ा ना ले जाऊ।
ध्यान रखना अपने प्यारे
मित्र शब्दों के बाणों को
कहिं हवाओं के रुख़
उनको उल्टा ना मोड़ दे।
ख़ास ख्याल रखना अपने
अनमोल नज़रों का
जिनमें खटकता था मैं
और मेरी चंचलता
कहिं धूल.......
उनमें ना पड़ जाय।
फिर देखोगें कैसे
अपनी अकड़ को
उस धूल में मिलते हुए?
~ पंकज गुप्ता