भाग रहे है..लेकिन क्यों?
वैसे तो हम सब भाग रहे है जिंदगी के दौड़ में कुछ बनने के लिए, कुछ पाने के लिए, कुछ कर गुजरने के लिए ताकि भविष्य सुखमय गुज़रे। लेकिन सबके भागने के रास्ते अलग है। जिसको जो रास्ता दिखता है, बिना सोचे कि उस रास्ते का अंत क्या होगा, उसी पे भाग निकलता है वो भी पूरे जी जान के साथ।
कोई भागता है आपदा को अवसर में बदलने के लिए तो कोई अवसर को आपदा बनाने के लिए। कोई भागता है उस आपदा से खुद को निकालने के लिए, तो कोई भागता है आपको उस आपदा की आग में और धकेलने के लिए।
अमीर गरीबो का हक छीन के भाग रहे, कोई देश छोड़ के भाग रहा कोई देश में रह कर भाग रहा। कोई जान बचाने को भाग रहा, कोई जान लेने को भाग रहा।
कोई भाग रहा ऑक्सिजन पहुचाने के लिए तो कोई भाग रहा ऑक्सिजन चुराने के लिए।
कोई भाग रहा सांसो के लिए तो कोई भाग रहा सांसो को बंद करने के लिए। कोई भाग रहा दो वक्त की रोटी के लिए तो कोई भाग रहा आपकी जिंदगी भर की रोटी छीनने के लिए।
भाग तो सभी रहे है, कोई भागता है अपनी परेशानी से, तो कोई भागता है आपको परेशान करने के लिए । कोई भागता है सिस्टम बनाने के लिए, कोई भागता है सिस्टम की खामियों से मरने के लिए, तो कोई भागता है उस सिस्टम की ख़ामियों से आपको मारने के लिए।
भाग तो हमारे नेता भी रहे थे वोट के खातिर लोगो की जान के लिए और आगे भी ऐसे ही भागेंगे। भाग तो लोकतंत्र की तथाकथित मीडिया भी रही है, चापलूसी करने के लिए।
भाग तो सब रहे है लेकिन कोई कितना भी भागे, इन कालाबाजारी करने वालो चोरों से तेज नही भाग सकता, जो 100 रूपये के सामान को 1लाख में कैसे बेचे, उसके लिए वो इतनी तेजी से भागते है जो आप सोच भी नही सकते। लेकिन ऐसा करने के लिए सबसे पहले उन्हें अपनी आत्मा बेचनी पड़ती है। आत्मा बेच कर भी वो जिंदा कैसे रह लेते है, मेरी समझ से परे है क्योंकि हमारे हिन्दू धर्म में यह मान्यता है कि शरीर नश्वर है और इंसान तब तक जिंदा रहता है जब तक उसके शरीर में आत्मा का प्रवेश रहता है, आत्मा के बाहर निकलने के पश्चात यह नश्वर शरीर मृत हो जाता है। लेकिन आत्मा बेचने वाले जिंदा कैसे रह लेते है?
सोचा नही था कि इंसानियत इस हद तक गिर जाएगी कि लोगो की मौत किसी के लिए पैसा बनाने एवम खुश होने की वजह बन जाएगी । हर आपदा में जरूरी सामान जो सस्ते और आसानी से उपलब्ध होने चाहिए, काला बाजारी के कारण ना तो आसानी से उपलब्ध होते है, होते भी है तो मूल दाम से कई गुना ऊँचे दामों पर ।
भागना जरूरी है क्योंकि बिना भागे कुछ मिलता नही है..लेकिन सवाल यह है कि किस रास्ते पर? क्या बिना सोचे समझे, बिना आत्मचिंतन किये किसी भी रास्ते पर भागना सही है? इतनी तेजी से भागते चले जा रहे हम कि सबकुछ पीछे छूटता जा रहा है। काश लोग पैसे का भूखा चश्मा उतार कर देख पाते कि इस दौड़ती दुनिया मे सुकून नाम की भी कोई चीज़ होती है। लेकिन हमें पता है कि यह काश, काश ही रहेगा। समझ नही आता लोग क्यो जिंदगी से भाग रहे, जिंदगी को पकड़ने के लिए।
ट्रैफिक सिग्नल पर आते जाते वाहनों में बैठे लोगों के चेहरे को पढ़ेंगे तो पता चलता है कि वो ना तो मुस्कुराते है, ना पहले की तरह रेडियो पर बजता गाना गुनगुनाते है। फिर यदि नज़र घुमाकर किनारे पर मैले कुचले फटे कपड़े पहने बच्चों को देखेंगे तो पता चलेगा वो हँस रहे है, टीन कनस्तर पीटकर फिल्मी गाने गा रहे है। यानि दौलत कहीं और, शोहरत कहीं और और खुशी का ठिकाना कही और। जब वो गरीब बच्चें बिना पैसों के खुश रह सकते है तो क्या हम थोड़े कम पैसों में खुश नहीं रह सकते? पैसे कमाने की जरूरत है लेकिन क्या इंसानियत को बेचकर? या गरीबों का गला घोंटकर? इस तरह अंधाधुंध भागना कितना उचित है?
भारत की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम बस भागना चाहते है, किस कीमत पर यह मायने नही रखता। दुःख होता है जब आँखे इंसानो से ज्यादा इंसानियत को मरते हुए देखती है। आत्म चिंतन और मंथन की जरूरत है लेकिन जब बड़े बड़े महान साहित्यकार, लेखक, दार्शनिक, गीता रामायण महाभारत के उपदेश से हम नहीं सीख पाये तो अब क्या सीखेंगे। इन महान कृतियों की सारी सीख बेकार हो चुकी है क्योंकि हम कुछ सीखना ही नही चाहते। इस महामारी में लोगों की जान से ज्यादा, लोगों का नैतिक पतन हो चुका है और नैतिक पतन का सीधा मतलब सर्वनाश तय है।
समस्या विकराल इसीलिए है कि यह जड़ में नहीं, डीएनमें में घर कर चुकी है।
अंत में आप सभी से कुछ प्रश्न, हो सके तो जवाब जरूर दीजिएगा।
भाग रहें हैं... लेकिन क्यों?
हम ज़िंदगी से भाग रहे, या ज़िंदगी के लिए भाग रहे...?
क्या इस कदर भागना मुनासिब है...?
हम अपने आकांक्षाओं तक पहुंचने के लिए राह में मिलते लोगों से धक्का मुक्की ईर्ष्या द्वेष करते हुए क्यों भाग रहे हैं?
क्या राहगीरों से बोलते बतियाते, उन्हें समझते समझाते, उनकी सहायता करते हुए आराम से मंज़िल तक नहीं पहुंच सकते?
क्या मंज़िल के तल पर पहिए लगे हैं, जो हमारे पहुंचने तक मंज़िल की गाड़ी कहीं आगे निकल जाएगी?
क्यों हमारे अंतर्मन से धैर्य का अंत होता जा रहा है...?
✍️पंकज गुप्ता