नई दिल्लीः पिछले साल सितंबर की बात है। मौका महाराष्ट्र के संत गुलाबराव जी महाराज के जीवन शताब्दी वर्ष समारोह का था। बोलते-बोलते संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अयोध्या में रामलला मंदिर बनाने की तान छेड़ी। उनके जुबान से निकली लाइन थी-'मंदिर बनाने के लिए सबको संकल्प करना होगा। उस काम को नतीजे तक पहुंचाने के लिए हमें तप करना चाहिए'। उसी वक्त यह साफ हो गया था कि 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा राममंदिर का मुद्दा गरमाने की तैयारी में हैं। आखिर यह बात सच निकली, जब शनिवार को लखनऊ में राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने चुनावी घोषणापत्र में 24 साल पुराने राममंदिर मुद्दे को झाड़-पोंछकर फिर पेश कर दिया। हां चूंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में हैं, इस नाते बचाव में जरूर शाह ने जोड़ा कि भाजपा संवैधानिक दायरे में रहकर मंदिर निर्माण कराएगी। सवाल उठता है कि क्या अयोध्या में साढ़े चार सौ साल पुराने विवादितस्थल पर मंदिर बनाना इतना आसान है।
क्यों भाजपा हर बार गरमाती है अयोध्या मुद्दा
भाजपा को यूं ही नहीं चुनावी सीजन में भगवान राम याद आते। 90 के दशक में छेड़े गए अयोध्या मंदिर आंदोलन ने ही भाजपा को यूपी की सियातसत में स्थापित किया। कहां भाजपा सिर्फ दो सांसदों वाली पार्टी थी, इस आंदोलन ने उस दौरान यूपी की सबसे बड़ी पार्टी बना दिया। जिसकी बदौलत भाजपा सत्ता में पहुंच सकी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने।
विपक्ष का आरोप-चुनाव में ही भाजपा को याद आते हैं राम
कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला कहते हैं कि जब भी यूपी का चुनाव आता है तो भाजपा को राम याद आते हैं। भाजपा धार्मिक भावनाओं को भुनाकर वोट हासिल करना चाहती है। आखिर यूपी में भाजपा तीन बार सरकार बना चुकी, केंद्र में मोदी से पहले बाजपेयी के नेतृत्व में सरकार रही तो क्यों राम मंदिर का निर्माण नहीं हुआ। जनता सब समझती है, भाजपा के मंदिर के नाम पर बहकावे में नहीं आने वाली।
एक तारीख ने बदल दिया अयोध्या का इतिहास व भूगोल
छह दिसंबर 1992। यह वो तारीख है जिसने सरयू तट पर बसे अयोध्या के इतिहास और भूगोल को ही बदल दिया। सामाजिक ताना-बाना भी बदल गया। यही वह तारीख थी, जब विवादित ढांचे को ढहा दिया गया था। तब से हर साल छह दिसंबर आने पर अयोध्या सहम सी जाती है। यूपी सहित पूरे देश में हाईअलर्ट घोषित किया जाता है। मस्जिद ढांचा ढहाए जाने के विरोध में अंडरवर्ल्ड भी मुंबई धमाके कराकर बदला लेने की बात कह चुका है। इस नाते हर साल छह दिसंबर पर आतंकी खुराफात होने की आशंका रहती है। साढ़े चार सौ साल से विवाद चला आ रहा है कि अयोध्या की जमीन पर किसका हक है।
2010 का क्या है फैसला
2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित ढांचा मसले की सुनवाई के बाद फैसला दिया था। हाईकोर्ट ने 2.77 एकड़ विवादित ज़मीन को तीन हिस्सों में बांट दिया। दो तिहाई हिस्सा हिन्दू पक्ष को मिला और एक तिहाई सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को। हालांकि, कोई भी पक्ष इस फैसले से संतुष्ट नहीं हुआ, और ये मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
जानिए, विवाद की पृष्ठिभूमि
सन् 1526। मुगल बादशाह बाबर ने दिल्ली पर आक्रमण किया। यहां के सुल्तान इब्राहिम लोदी को जंग में हराकर दिल्ली की सल्तनत पर कब्जा जमा लिया। और इसी के बाद भारत में मुगल साम्राज्य पूरे देश में फैलता गया। बाबर की साम्राज्यवादी नीति के तहत उसके ख़ास सिपहसालार मीर बाक़ी ने अवध के इलाके को अपने कब्ज़े में ले लिया था, जिसके बाद मीर बाक़ी ने 1528 में अयोध्या के रामकोट में एक मस्जिद का निर्माण करवाया जिसे मस्जिद-ए-जन्मस्थान और बाबरी मस्जिद के नाम से पुकारा गया। बाबरी मस्जिद बनने के बाद से ही हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जंग शुरू हो गई।
आजादी के बाद से गरम होना लगा मुद्दा
आजादी के दो साल बाद से ही अयोध्या का मुद्दा गरमाने लगा। वर्ष 1949 में पहली बार अयोध्या मुद्दा गरम हुआ। इसी साल दिसंबर महीने में एक दिन अचानक किसी ने मस्जिद के अंदर और मुख्य गुम्बद के नीचे रात के वक्त भगवान राम और सीता की मूर्तियां रख दी। इसके बाद जनवरी 1950 में गोपाल सिंह विशारद नाम के शख्स ने फैजाबाद की अदालत में पहला मुकदमा दाखिल करके इस जगह पर पूजा करने की इजाजत मांगी थी। दिसंबर 1950 में दूसरा मुकदमा दाखिल हुआ और इस बार राम जन्मभूमि न्यास की तरफ से महंत परमहंस रामचंद्र दास ने भी कोर्ट से पूजा की करने की अनुमति मांगी। दिसंबर 1959 में निर्मोही अखाड़े ने भी रामजन्मभूमि पर अपना दावा ठोक दिया. अखाड़े ने कहा कि ऐतिहासिक रूप से वही अयोध्या में राम मंदिर की देखभाल करता रहा है और इस आधार पर अखाड़े ने विवादित जगह को अपने कब्जे में दिए जाने की कोर्ट से मांग की थी।मस्जिद में मूर्तियां रखे जाने के 12 साल बाद दिसंबर 1961 में सुन्नी सेन्ट्रल वक़्फ बोर्ड ने फैज़ाबाद की कोर्ट में अर्ज़ी लगाई. बोर्ड ने मूर्तियों को हटाने और मस्जिद पर कब्ज़े की मांग की. अप्रैल 1964 में फैजाबाद कोर्ट ने सभी 4 अर्जियों पर एक साथ सुनवाई का फैसला लिया.
हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज कहा-मैं भगवान राम का प्रतिनिधि हूं
इस बीच 1989 में इलाहबाद हाइकोर्ट के रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल भी सामने आ गए। उन्होंने रामलला विराजमान की तरफ से कोर्ट में याचिका दायर की। अग्रवाल ने खुद को भगवान राम का प्रतिनिधि बताया और सारी जमीन रामलला को सौंपने की मांग की। अग्रवाल की अर्ज़ी पर 1989 में इलाहबाद हाईकोर्ट ने अब तक दाखिल सभी 5 दावों पर खुद सुनवाई करने का फैसला किया और सुनवाई के लिए तीन जजों की विशेष बेंच का गठन भी किया गया। 2002 में हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई शुरू की।
खुदाई में मंदिर होने की बात साबित
हाईकोर्ट ने हिन्दू पक्ष के दावे की पुष्टि के लिए विवादित जगह पर खुदाई कराने का फैसला लिया। खुदाई का जिम्मा आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया को सौंपा गया। एएसआई की टीम ने यहां कई दिनों तक खुदाई की. इसके बाद उसने जो रिपोर्ट सौंपी उसमें बाबरी मस्जिद वाली जगह पर भव्य हिन्दू मंदिर होने की बात कही गई। साल 2010 में हाई कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने सभी दावों पर सुनवाई पूरी की. और आखिरकार 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की जस्टिस सुधीर अग्रवाल, एस यू खान और डी.वी. शर्मा की बेंच ने मंदिर मुद्दे पर अपना फैसला भी सुना दिया।