
लखनऊ : यूपी में सीएम योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की खाली हो रही सीटों पर बीजेपी को उपचुनाव में अपना कब्जा जमाये रहे के लिए नाकों चने चबाने पड़ सकते हैं. दरसदल यूपी सरकार में बने रहने के लिए बीजेपी के इन दोनों सांसदों को अपने पड़ पर बने रहने के लिए 19 सितंबर से पहले विधान मंडल के किसी सदन का सदस्य बनना जरूरी है. इसके साथ ही दोनों को लोकसभा की अपनी-अपनी सीट छोडऩी होगी. जिसके चलते बीजेपी का इन दोनों सीटों पर अपना कब्जा जमाये रखना सबसे बड़ी चुनौती है. सियासी बाजी पलटने के लिए इतिहास में आजमगढ़ का 1978 के उप चुनाव का सबक दर्ज है. इसलिए आने वाले उप चुनाव में भाजपा की परीक्षा होनी तय है.
फूलपुर और गोरखपुर ऐतिहासिक सीट
सीएम योगी आदित्यनाथ गोरखपुर और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य फूलपुर के सांसद हैं. दोनों ऐतिहासिक सीटें हैं. गोरखपुर संसदीय सीट पर पहली बार गोरक्षपीठ के महंत दिग्विजय नाथ 1967 में जीते थे. फिर उनके निधन के बाद उपचुनाव में महंत अवैद्यनाथ 1970 में सांसद हुए.1989 से 1996 तक अवैद्यनाथ और 1998 से अब तक योगी आदित्यनाथ यहां से सासंद चुने गए हैं. गोरखपुर संसदीय सीट पर योगी आदित्यनाथ ही ऐसे सूरमा रहे जिन्हें कोई चित नहीं कर सका. दरअसल समय की बलिहारी का जोर कब किसके पाले में चला जाये कुछ नहीं पता. वैसे राजनीति के समीकरण भी कुछ इसी ओर इशारा करते हैं. मालूम हो कि समय के इन्हीं समीकरणों ने योगी के गुरु महंत अवैद्यनाथ और उनके गुरु महंत दिग्विजयनाथ को हार का सामना करने पर मजबूर किया. इस सीट से जनता की अगाध आस्था मंदिर की वजह से है. मंदिर के बाहर का उम्मीदवार कितना सटीक होगा, उसका चयन बीजेपी और खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए बहुत कठिन है.
नेहरू की विरासत वाली फूलपुर सीट
नेहरू की विरासत वाली फूलपुर सीट पर पहली बार केशव प्रसाद मौर्य ने कमल खिलाया।.यहां भाजपा कभी खाता नहीं खोल सकी थी. नरेन्द्र मोदी की हवा के साथ ही केशव का इस इलाके में लगातार संघर्ष भी एक वजह बना. अब यह बात चल रही है कि अगर केशव का इस्तीफा हुआ तो बसपा प्रमुख मायावती को विपक्ष साझा उम्मीदवार बना सकता है. जाहिर है कि विपक्ष की यह गोलबंदी भाजपा के लिए खतरे की घंटी है. ऐसे में भाजपा फूंक-फूंक कर कदम रखने में लगी है. वह कोई ऐसा फैसला भी नहीं करना चाहती जिससे नकारात्मक संदेश जाए और गेंद दूसरे के पाले में भी नहीं डालना चाहती है. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का दौरा इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण होगा क्योंकि वह सभी परिस्थितियों का आकलन करके ही कोई फैसला करेंगे.
मोहसिना की जीत से पलट गई थी बाजी
कहानी 1977 से शुरू होती है। तब इंदिरा गांधी के आपात काल के खिलाफ एकजुट हुई जनता पार्टी ने प्रचंड बहुमत से उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई थी. बिल्कुल इस बार की तरह तब भी विधायक दल के बीच से नेता सदन नहीं चुना गया. आजमगढ़ के सांसद रामनरेश यादव को विधायकों ने अपना नेता चुना और वह मुख्यमंत्री बने. मुख्यमंत्री बनने के बाद रामनरेश के लिए पार्टी ने एटा की निधौली कला विधानसभा सीट तय कर दी. वह वहां से चुनाव लड़े, उसके बाद जीते भी लेकिन, उनके इस्तीफे से रिक्त हुई आजमगढ़ लोकसभा सीट जनता पार्टी के हाथ से फिसल गई. तब जनता पार्टी की ओर से 70 वर्षीय राम बचन यादव उम्मीदवार बनाए गए और कांग्रेस पार्टी ने मोहसिना किदवई को मुकाबले में उतार दिया.
इंदिरा गांधी को डालना पड़ा था डेरा
मई 1978 में हुए उप चुनाव में इंदिरा गांधी ने सरकार के बीच की आपसी खींचतान और कुछ अन्य मुद्दों को उभार कर अपना माहौल बनाया. इंदिरा गांधी ने मोहसिना किदवई के पक्ष में आजमगढ़ में डेरा जमा दिया. जनादेश कांग्रेस के पक्ष में गया. सरकार की ताकत लगने के बावजूद मोहसिना को 131329 मत और राम बचन को 94944 मत मिले. यही चुनाव परिणाम कांग्रेस की वापसी का माध्यम बन गया. पूरे प्रदेश में इंदिरा गांधी की सभाएं शुरू हो गई. 1980 आते-आते जनता पार्टी टूट गई और कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई