लखनऊः महज 15 साल की उम्र मे मन में तमाम सवाल। जन्म क्यों हुआ, किसलिए हुआ है। मैं कौन हूं। किसी तरह ग्रेजुएशन तक पढ़ाई की मगर सवालों का जवाब नहीं मिला। जब सवालों का जवाब नहीं मिला तो दिल बेचैन रहा। अचानक एक दिन दुनियावी रिश्तों के प्रति वैराग पैदा हो गया। और वह युवक घरवालों को बिना बताए चल पड़ा अन्जान मंजिल की ओर। करीब 27 साल का यह युवक आज स्वामी रामशंकर के रूप में पहचाना बना रहा। स्वामी रमाशंकर पूरे देश के युवाओं को जीवन जीने के तरीके की अब शिक्षा देने की मुहिम में जुटे हैं। यह कहानी एक युवक की है जो कि अपने दिलोदिमाग के अंदर उठे कुछ सवालों का जवाब पाने के लिए ही सन्यासी बन गया।
एक नवम्बर 1987 को देवरिया जिले के ग्राम खजुरी भट्ट में जन्मे स्वामी रामशंकर कहते हैं कि उनके पिता जी पढ़ाने के लिये गांव से ले कर गोरखपुर चले आये। यही महाराणा प्रताप इंटर कॉलेज गोलघर 12 वीं की पढ़ाई किए। आगे जब पंडित दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय से बी काम तक की पढाई करने के दौरान ही जीवन से वैराग हो गया।
सन्यासी बनने की कहानी स्वामी रामशंकर की जुबानी
तब मेरी आयु करीब 15 वर्ष रही होगी जिस वक्त मेरे भीतर कुछ उटपटांग प्रश्न उठने शुरू हो गये थे जैसे मैं कौन हूँ ,मुझे करना क्या है अर्थात हमारा जन्म किसलिये हुआ है जिसका उत्तर मुझे स्कूली पढाई के दौरान कभी नहीं मिला शायद यही वजह रही कि धीरे-धीरे पढाई से मेरा मन उचट गया, कभी सोच में भी नहीं आया कि, पढ़ लिखकर अपने अन्य साथियों की तरह संसार की लौकिक उपलब्धियों को मैं भी अर्जित करू। ख्याल रहा तो बस इतना कि मेरे प्रश्नों का उत्तर कैसे मिलेगा।
सामाजिक आवश्यकता के कारण इस युग में न्यूनतम सांसारिक शिक्षा होनी ही चाहिये अन्यथा लोगो का सामना नहीं कर सकते लोग हमें लोग उपेक्षित भाव से देखेंगे ये सोच कर न चाहते हुये भी, मैं मन लगाकर पढाई करता रहा। पर जब जब पढाई से मेरा मन उचटता तब तब मेरी एक आदत थी वो ये कि मेरे घर में साधक संजीवनी थी जो पूज्य स्वामी राम सुखदास जी की के द्वारा श्रीमदभगवदगीता पर हिंदी टीका है। उसके कुछ पन्ने मैं बड़े मनोयोग से पढता। ये तब कि बात है जब मैं कक्षा 10 वी का छात्र था मुझे याद है कि पढ़ने के बाद भी ठीक-ठीक कुछ समझ में नहीं आता था, पर पढ़ना उस वक्त भी सुखद लगता था,पढ़ कर हमारा मन एकदम शांत हो जाता था।
थोडा समझदार हुआ तो मुझमे एक सामाजिक कार्यकर्ता के भाव ने जन्म ले लिया था फिर क्या पढाई तो करने में रूची बहुत थी नहीं, सो दिन-रात समाजसेवा में मैं व मेरा मन लगा रहता था, यही वो कार्य था जिसने मेरे भीतर के वैराग्य से पर्दा हटा दिया मेरे विवेक को जागृत किया और हमने निश्चय किया कि इस जीवन में स्वार्थी लोगे के हाथ की कठपुतली नहीं बनना है। जीवन को सार्थक करने हेतु अध्यात्म की ओर बढ़ना है।
एक हमारे मित्र है मनोज शर्मा जी जिन्होंने मेरे मन के भावनाओ को समझते हुये मुझे एक सन्त से मिलवाये वो संत सचमुच त्यागी महात्मा है। उनके साथ करीब 15दिन हम रहे, सन्त जी ने हमें संन्यास व संसार दोनों से जुडी समस्त बातो का ज्ञान कराया फिर कहा अब फिर सोचो क्या करना है, हमने कहा हमने सोच लिया है हमें तो संन्यास की ओर बढ़ना है। फिर संत जी ने कहा ठीक है अमुक तिथी को अपने माता पिता से अनुमति मांग कर आश्रम चले आना। एक नवम्बर 2008 की बात है जब चुपके से हम घर को अलविदा कह कर एकदम सुबह भोर के 4 बजे हम रेलवे स्टेशन आगये, और 7 बजे वाली पैसेनजर रेलगाड़ी से अयोध्या के लोमश ऋषि आश्रम पहुचे जहां के सन्त जी महन्त है 10 दिन रहने के पश्चात 11 नवम्बर को हमारा वैष्णव परम्परानुसार दीक्षा संस्कार हुआ जिसके उपरांत मेरे संन्यास जीवन का सफर आरम्भ हुआ।
उन दिनों मैंने बी.काम.द्वितीय वर्ष पूरा कर लिया था आगे पढ़ने में अरुचि थी पर साथियो के प्रेरणा से हमने पढाई जारी रखा फलस्वरूप मेरा अबाधित रूप से बी.कॉम. पूरा हो गया, इन्ही दौरान सनातन धर्म सम्बन्धित शास्त्रों के अध्ययन की रूची उत्पन्न हुयी पर आश्रम की जिम्मेदारियों ने हमे पूरी तरह जकड रखा था जिसके कारण वहा रह कर अध्ययन करना असम्भव था, आश्रम के चक्रव्यूह में हम उलझते जा रहे थे इसलिये हमने अयोध्या से दूर रह कर अध्ययन करने का निश्चय किया जिसके लिये पूज्य गुरुदेव स्वामी शिवचरण दास जी कतई तैयार नहीं थे, उन्होंने यहाँ तक कहा कि पढ़ने-लिखने से परमात्मा नहीं मिलते, शायद ये बात इसलिये कहा होगा कि पढाई के बाद हम ज्ञानीपने के अहंकार में जकड़ जाते है।पर मैं अपने जिद पर अड़ा रहा कि नहीं हम तो पढेंगे, फिर गुरुदेव ने कहा कि जाओ पर हमसे कुछ मत मगना हमने कहा ठीक है क्योकि हम जानते है कि जिस मालिक में जन्म दिया है वही हमारी अनिवार्य जरूरतों को पूरा भी करता है । इस क्रम में गुजरात गये वहा आर्य समाज के ''गुरुकुल वानप्रस्थ साधक ग्राम आश्रम '' रोजड़ में रह कर योग दर्शन की पढ़ाई व साधना किये। इसके बाद कुछ समय हरियाणा के जींद में स्थापित गुरुकुल कालवा में रह कर संस्कृत व्याकरण की पढ़ाई किये इसी जगह प्रख्यात योग गुरु स्वामी राम देव जी भी अपना बाल कॉल बिता चुके है।
संगीत सीखने के लिए संगीत विश्वविद्यालय में लिया दाखिला
पिछले एक वर्ष से संगीत सीखने के लिये संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ का चुनाव किया। जहां के इतिहास में पहली बार कोई संन्यासी सगीत सीखने परिसर में दाखिला लिया। संगीत तो हम किसी अन्य शहर में रह कर भी सीख सकते थे किंतु अन्य किसी स्थान में दो चीजे कभी नही मिल पाती, पहली खैरागढ़ सदृश्य संगीत का वातावरण एवं दूसरी इतनी बड़ी संख्या में युवाओ का संग, जिनके साथ हमें ढेर सारे विचार - विमर्श करने का सहज अवसर यहाँ सुलभ है।