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1.मेरा परिचय

16 अगस्त 2022

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नमस्कार दोस्तों मेरा नाम दीपक रंजन हैं,और आज मैं एक आईएएस अफसर बन चुका हूं। मैं अपने home town मे ही posted हूं,और अपने जिले में ही कार्यरत हूं।  मैं आईएएस ऑफिसर कैसे बना और इस रास्ते में क्या क्या रूकावटे आई और कैसे मैं उन सब मुश्किलो का सामना करता चला गया और अपने सपने , अपने माँ बाप के सपनो को पूरा किया और अपनी जिंदगी में सफल इंसान बन पाया। वो सारी बाते मैं अपने नॉवेल में आप सब को बताऊंगा।तो चलिए मैं आपको  कुछ अपने बारे में बता दूं । मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता हूं, मैं अपने घर में  अपने बड़े भाई मम्मी और पापा के साथ रहता हूं।मेरा घर बिहार की राजधानी पटना में है और पिछले 25 वर्षो से मैं यही शहर में अपने परिवार के साथ रहता हूं। हालाकि मैं संयुक्त परिवार से ताल्लुक रखता हूं मेरे पापा तीन भाई है और पापा उनमें सबसे छोटे है। पापा के बाकी दो बड़े भाई गांव में ही रहते है।और वही पे खेती बाड़ी का काम करते है। मेरे पापा भी पहले गांव में ही रहते थे लेकिन काम की तलाश में उन्हें पटना शहर आना पडा। बचपन से अभी तक की मेरी पुरी पढ़ाई यही इसी शहर में हुई । हालाकि मुझे अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए  4 सालों तक छपरा शहर में भी रहना पड़ा था। लेकिन मेरा इस शहर से जुड़ाव कभी खत्म नहीं हुआ।  आजकल लोग बोलते है की मैं इतना पतला दुबला हूं ,और देखने में बिल्कुल भी आईएएस ऑफिसर नही लगता। शायद इसका कारण  मेरा शर्मीला स्वभाव है।जिस कारण मैं बचपन से ही खेल कूद में,खाने पीने में हमेशा पीछे रह जाता था। इस कारण से में बचपन से ही अंतर्मुखी हो गया।और लोगो से घुलना मिलना कम कर दिया था।बचपन में जब मेरे स्कूल में मेरे दोस्त लंच ब्रेक में खेलने के लिए जाते थे तब मैं दूर से ही उन्हें देखा करता था पर कभी खेलने नही जाता था।इस कारण से मेरे दोस्त भी बहुत कम ही हुआ करते थे। कुछ लोग तो मुझे घमंडी भी कहते थे।क्योंकि मैं लोगो से बात भी कम किया करता था।जब मेरे दोस्त शाम के वक्त खेलने जाते थे तब मुझे भी बुलाने आते थे ,पर मैं नहीं जाता था।धीरे धीरे दोस्तो का मेरे घर मुझे खेलने के लिए बुलाने के लिए आना भी बंद हो गया था।लोग बोलते थे की वो किसी काम का नही है, उसे कुछ खेलना नही आता ,अरे वो तो ठीक से गेंद भी नही पकड़ पाता है। और ना ही तेज दौड़ पता हैं।जैसे जैसे मैं ऊंची कक्षा में जाता गया मेरे दोस्त कम होते गए।और मैं अकेला होता गया।अकेले होने के कारण मैं घर पर ही खाली समय में tv देखता और अपना अकेलापन दूर करता था।धीरे धीरे tv देखना और अपना अकेलापन दूर करना मेरी आदत बन गई ।और मैं अपना सारा वक्त घर में ही बिताया करता था।जब कोई रिश्तेदार मेरे घर में आते तो मैं उनके सामने नहीं बैठ पाता था। उनसे  ठीक से कुछ बाते नही कर पता था। घरवाले जब बोलते थे की "बेटा रिश्तेदार आए है इनसे कुछ बाते करो कुछ पूछो यहां इनके पास बैठो" तब मैं थोड़ी देर के लिए उनके पास बैठ कर बातें करता और जब सबका ध्यान दूसरी ओर लग जाता था तब मैं वहां से किसी दूसरे कमरे में चला जाता था,और tv देखने लगता था या अपना कोई और काम करने लगता था। जब कोई रिश्तेदार मुझे अपने यहां किसी त्यौहार में आने के लिए बुलाता था,तब मैं आने से मना कर देता था। इस बात पे कुछ लोग तो मुझे मम्मी का लाडला बोलते थे तो कुछ लोग ताने मारते थे। की "जिंदगी भर घर पर ही बैठे रहोगे क्या नौकरी करने ,पढ़ाई करने तो बाहर जाना ही पड़ेगा ना।" धीरे धीरे रिस्तेदारों ने भी मुझे बुलाना छोड़ दिया।और ताने भी मरने लगे की तुम सब मेरे घर आ जाना और इसे (यानी मुझे) घर पर ही छोड़ देना इसको घर पर रहना ही अच्छा लगता है। शुरू शुरू में तो बहुत दुख होता था की ये लोग ऐसा क्यों बोलते है और मुझे ही क्यों बोलते है।फिर धीरे धीरे ताने सुन सुन कर मैं भी उसे हल्के में लेने लगा और मुस्कुराकर उनका सामना करने लगा। और समय के साथ साथ इन ताने सुनने की मुझे आदत हो गई। और आज की तारीख में जो रिश्तेदार मेरी बुराईयां करते थे वो आज मेरी तरीफो के पुल बांधते नहीं थकते हैं और अपने बच्चों को भी मेरे जैसा बनने की सलाह देते है।  बचपन से आज तक ,मेरी पढ़ाई और शिष्टाचार की शिक्षा देने के क्रम में बहुत सारे शिक्षक आए और गए किंतु पहला शिक्षक तो मेरे मां बाप ही है। जिन्होंने मुझे शिक्षा का प्रथम पाठ पढ़ाया। मेरे मम्मी पापा दोनो  ही शिक्षक है।मेरी प्रारंभिक शिक्षा मेरे पापा मम्मी के स्कूल में ही हुई थी। वहां पर मैं बचपन से ही पढ़ता था। वहां के सारे बच्चें जो मेरे साथ मेरी कक्षा में पढ़ते थे वो जानते थे की इसकी मम्मी और पापा दोनो इसी school में पढ़ाते हैं।तब तो ये बिना पढ़े लिखे भी एग्जाम में पास कर ही जायेगा और और क्या चाहिए इसे।लेकिन मैंने कभी भी इस बात का फायदा नहीं उठाया। जब किसी बच्चें के माता और पिता दोनो शिक्षक हो तो उस बच्चें को पढ़ाई में कभी कोई दिक्कत हो सकती है क्या।मेरे साथ भी ठीक वैसा ही था जो भी दिक्कत मुझे पढ़ाई में होती थी वो मैं अपने घर में अपने पापा या मम्मी से पूछ लेता था।और मेरे घर में तो हर रोज 1 घंटे की क्लास शाम के वक्त चलती थी।बस ये जानने के लिए की कही मुझे पढ़ाई में कोई दिक्कत तो नही हैं,या कोई सवाल जिसका जवाब मुझे समझ में नहीं आ रहा हो तो वो मैं उस 1 घंटे में पूछ लेता था।और इसी डर के कारण मैं अपना सारा होमवर्क पहले ही कर लिया करता था। एक बात और आप सब के मन में चल रही होगी की घर के टीचर्स है तो मेरी एग्जाम में मदद तो कर ही देते होंगे या अगले दिन होने वाली परीक्षा में आने वाले सवाल कही मुझे पहले तो नही मिल जाते थे।लेकिन आप सब का भ्रम मैं यही पे तोड़ देता हूं। पापा या मम्मी ने कभी भी इस बात को नहीं बढ़ावा दिया की बेटा तुम चोरी से पास हो जाओ या नकल कर के लिख लो।बल्कि वो लोग तो हमेशा से ही मुझे ये समझाते थे की बेटा हमेशा ये याद रखना की लोग ये जरूर पूछेंगे या शक करेंगे की मम्मी और पापा शिक्षक है तो घर पर ही बता दिया होगा की कल एग्जाम में क्या आएगा और बच्चा पास हो जाता होगा।वो लोग तो हमेशा यही बोलते थे की कल कुछ भी ,कही से भी मैं सवाल पूछ सकता हू तो तैयार रहना और सारे के सारे chapters को अच्छे से पढ़ कर याद कर लेना कही से भी सवाल आ सकते थे। कभी कभी तो वो लोग मुझे कुछ नंबर काम भी दे देते थे।की कही कोई ये ना बोल दे की अपना बेटा है इसलिए उसको ज्यादा नंबर देते है। क्लास में सब के सामने सजा देना , होमवर्क ना बनने पर छड़ी से पिटाई और कभी कभी क्लास के बाहर खड़े रहने की भी सजा मिल जाती थी।कुछ बच्चें तो कभी कभी मेरा मजाक भी उड़ाते थे की टीचर का बेटा होते हुए भी मुझे सजा मिल रही है,अच्छा हैं उसके साथ ऐसा ही होना चाहिए।बस इन्ही सब के साथ साथ दिन महीनो में बीत जाते थे,महीने सालों में। फिर वो दिन भी आया जब मुझे उस स्कूल से दूसरे स्कूल में जाना पड़ा। क्योंकि उस school में चौथी कक्षा (4th class) तक की ही पढ़ाई होती थी।उसके आगे की पढ़ाई के लिए मुझे पास के ही  दूसरे स्कूल में नामांकन मिल गया। उस नए स्कूल और पुराने स्कूल में काफी ज्यादा अंतर था।क्योंकि नया स्कूल पहले वाले से काफी बड़ा था , यहां पर 7 कमरे थे। उन कमरों के बाहर और ठीक  बीच स्कूल में एक बड़ा सा play ground  था। अलग अलग किताबे पढ़ने के लिए एक अलग कमरे में लाइब्रेरी भी थी।सभी बच्चों के खेलने के लिए football,vollyboll, basketball और उसका net , क्रिकेट kit, badminton इत्यादि। हालाकि यहाँ पर नए दोस्त तो बन गए थे लेकिन मैं तब भी अपने पुराने दोस्तों को याद करता था। धीरे धीरे नए दोस्तो के साथ मैं घुल मिल तो गया था मगर पुराने दोस्त तो जिगरी दोस्त ही होते है।जब भी मिलते थे तब पुरानी यादें ताजा हो जाया करती थी। की कैसे हम लोग एक क्लास से दूसरे क्लास में डस्टर लाने के बहाने पूरा स्कूल घूम कर आया करते थे।और जब सर पूछते थे की इतनी देर कैसे हो गई तो कह देते थे की उस क्लास में सर डस्टर यूज कर रहे थे तो बोले की थोड़ी देर रुक जाओ मैं इस्तेमाल कर के देता हूं।और जब बाद में दोनो दोस्त एक दूसरे को देखते थे तो hasi aa जाती थी की कैसे सर को उल्लू बनाया। बचपन की यादों को,कोई भी चाहें वो कितना भी बुढा या जवान  हो , स्त्री हो या पुरुष कभी भी नही भूल सकता है। ख़ैर जो भी हो नए वाले school की बात ही अलग थी। वहां के दोस्त यार उनके साथ स्कूल में बिताया गया हर क्षण यादगार ही होता है। यहाँ तक की जब उनसे झगड़े हो जाया करते थे तो ,ऐसा नहीं है की हम लोग दूर दूर रहते थे ,बाते नही करते थे,या फिर मार पीट करते रहते थे।हम  तो बस कुछ छनो के लिए बस नाराज हो जाया करते थे,और आपस में बाते नही करते थे।लेकिन ये नाराजगी ज्यादा समयों के लिए नही होती थी,अगले दिन हम लोग आपस में बातें करके फिर से एक साथ एक ही bench पे बैठ कर बातें किया करते थे,फिर लंच टाइम में साथ में मिलकर नाश्ता किया करते थे। अगर आपको जानना है की मेरी आईएएस बनने की शुरूआत कैसे हुई तो इसके लिए आप सबको मेरे नोवेल "मैं आईएएस कैसे बना" इसका अगला chapter पढ़ना होगा। Till then good bye take care  and namaskar.




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मैं IAS officer कैसे बना।
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किसी ने सच ही कहा है कि अगर किसी चीज को दिल से चाहो तो पूरी कायनात उसे तुमसे मिलाने की कोशिश करने लगता हैं।" शायद ये मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।कैसे मैं आईएएस अफसर बनना चाहता था और मेरी ख्वाहिश कैसे पूरी हुई ,क्या क्या रूकावटे आयी,जानने के लिए पढ़े मेरी कहानी।

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