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2. कवि की वासना

28 जुलाई 2022

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कह रहा जग वासनामय

हो रहा उद्गार मेरा!

सृष्टि के प्रारंभ में

मैने उषा के गाल चूमे,

बाल रवि के भाग्य वाले

दीप्त भाल विशाल चूमे,


प्रथम संध्या के अरुण दृग

चूम कर मैने सुला‌ए,

तारिका-कलि से सुसज्जित

नव निशा के बाल चूमे,


वायु के रसमय अधर

पहले सके छू होठ मेरे

मृत्तिका की पुतलियो से

आज क्या अभिसार मेरा?


कह रहा जग वासनामय

हो रहा उद्गार मेरा!


विगत-बाल्य वसुंधरा के

उच्च तुंग-उरोज उभरे,

तरु उगे हरिताभ पट धर

काम के धव्ज मत्त फहरे,


चपल उच्छृंखल करों ने

जो किया उत्पात उस दिन,

है हथेली पर लिखा वह,

पढ़ भले ही विश्व हहरे;


प्यास वारिधि से बुझाकर

भी रहा अतृप्त हूँ मैं,

कामिनी के कंच-कलश से

आज कैसा प्यार मेरा!


कह रहा जग वासनामय

हो रहा उद्गार मेरा!


इन्द्रधनु पर शीश धरकर

बादलों की सेज सुखकर

सो चुका हूँ नींद भर मैं

चंचला को बाहों में भर,


दीप रवि-शशि-तारकों ने

बाहरी कुछ केलि देखी,

देख, पर, पाया न को‌ई

स्वप्न वे सुकुमार सुंदर


जो पलक पर कर निछावर

थी ग‌ई मधु यामिनी वह;

यह समाधि बनी हु‌ई है

यह न शयनागार मेरा!


कह रहा जग वासनामय

हो रहा उद्गार मेरा!


आज मिट्टी से घिरा हूँ

पर उमंगें हैं पुरानी,

सोमरस जो पी चुका है

आज उसके हाथ पानी,


होठ प्यालों पर टिके तो

थे विवश इसके लिये वे,

प्यास का व्रत धार बैठा;

आज है मन, किन्तु मानी;


मैं नहीं हूँ देह-धर्मों से

बिधा, जग, जान ले तू,

तन विकृत हो जाये लेकिन

मन सदा अविकार मेरा!


कह रहा जग वासनामय

हो रहा उद्गार मेरा!


निष्परिश्रम छोड़ जिनको

मोह लेता विश्व भर को,

मानवों को, सुर-असुर को,

वृद्ध ब्रह्मा, विष्णु, हर को,


भंग कर देता तपस्या

सिद्ध, ऋषि, मुनि सत्तमों की

वे सुमन के बाण मैंने,

ही दिये थे पंचशर को;


शक्ति रख कुछ पास अपने

ही दिया यह दान मैंने,

जीत पा‌एगा इन्हीं से

आज क्या मन मार मेरा!


कह रहा जग वासनामय

हो रहा उद्गार मेरा!


प्राण प्राणों से सकें मिल

किस तरह, दीवार है तन,

काल है घड़ियां न गिनता,

बेड़ियों का शब्द झन-झन


वेद-लोकाचार प्रहरी

ताकते हर चाल मेरी,

बद्ध इस वातावरण में

क्या करे अभिलाष यौवन!


अल्पतम इच्छा यहां

मेरी बनी बंदी पड़ी है,

विश्व क्रीडास्थल नहीं रे

विश्व कारागार मेरा!


कह रहा जग वासनामय

हो रहा उद्गार मेरा!


थी तृषा जब शीत जल की

खा लिये अंगार मैंने,

चीथड़ों से उस दिवस था

कर लिया श्रृंगार मैंने


राजसी पट पहनने को

जब हु‌ई इच्छा प्रबल थी,

चाह-संचय में लुटाया

था भरा भंडार मैंने;


वासना जब तीव्रतम थी

बन गया था संयमी मैं,

है रही मेरी क्षुधा ही

सर्वदा आहार मेरा!


कह रहा जग वासनामय

हो रहा उद्गार मेरा!


कल छिड़ी, होगी ख़तम कल

प्रेम की मेरी कहानी,

कौन हूँ मैं, जो रहेगी

विश्व में मेरी निशानी?


क्या किया मैंने नही जो

कर चुका संसार अबतक?

वृद्ध जग को क्यों अखरती

है क्षणिक मेरी जवानी?


मैं छिपाना जानता तो

जग मुझे साधू समझता,

शत्रु मेरा बन गया है

छल-रहित व्यवहार मेरा!


कह रहा जग वासनामय

हो रहा उद्गार मेरा!

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रचनाएँ
मधुकलश
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मधुकलश हरिवंश राय बच्चन की एक कृति है। श्रेणी:हरिवंश राय बच्चन. हरिवंश राय श्रीवास्तव "बच्चन" (२७ नवम्बर १९०७ – १८ जनवरी २००३) हिन्दी भाषा के एक कवि और लेखक थे। इलाहाबाद के प्रवर्तक बच्चन हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवियों मे से एक हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मधुशाला है। भारतीय फिल्म उद्योग के प्रख्यात अभिनेता अमिताभ बच्चन उनके सुपुत्र हैं। उन्होने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। बाद में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ रहे। अनन्तर राज्य सभा के मनोनीत सदस्य। बच्चन जी की गिनती हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में होती है। .
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1. मधुकलश

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है आज भरा जीवन मुझमें, है आज भरी मेरी गागर! (१) सर में जीवन है, इससे ही वह लहराता रहता प्रतिपल, सरिता में जीवन,इससे ही वह गाती जाती है कल-कल निर्झर में जीवन,इससे ही वह झर-झर झरता रहता है,

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3. सुषमा

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(१) किसी समय ज्ञानी, कवि, प्रेमी, तीनों एक ठौर आए, सुषमा ही से थे सबने अपने मन-वाँच्छित फल पाए । सुषमा ही उपास्य देवी थीं तीनों की त्रय कालों में , पर विचार सुषमा पर सबने अलग-अलग ही ठहराए

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4. कवि का गीत

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गीत कह इसको न दुनियाँ यह दुखों की माप मेरे! (१) काम क्या समझूँ न हो यदि गाँठ उर की खोलने को? संग क्या समझूँ किसी का हो न मन यदि बोलने को? जानता क्या क्षीण जीवन ने उठाया भार कितना, बाट में र

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5. पथभ्रष्ट

28 जुलाई 2022
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है कुपथ पर पाँव मेरे आज दुनिया की नज़र में! (१) पार तम के दीख पड़ता एक दीपक झिलमिलाता, जा रहा उस ओर हूँ मैं मत्त-मधुमय गीत गाता, इस कुपथ पर या सुपथ पर पर मैं अकेला ही नहीं हूँ, जानता हूँ क्

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6. लहरों का निमंत्रण

28 जुलाई 2022
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तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण! १ रात का अंतिम प्रहर है, झिलमिलाते हैं सितारे, वक्ष पर युग बाहु बाँधे मैं खड़ा सागर किनारे, वेग से बहता प्रभंजन केश पट मेरे उड़ाता, शून्य में भ

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7. मेघदूत के प्रति

28 जुलाई 2022
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(1) "मेघ" जिस जिस काल पढ़ता, मैं स्वयं बन मेघ जाता! हो धरणि चाहे शरद की चाँदनी में स्नान करती, वायु ऋतु हेमंत की चाहे गगन में हो विचरती, हो शिशिर चाहे गिराता पीत-जर्जर पत्र तरू के, कोकिला

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