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8 फरवरी 2022

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मि. सिन्हा उन आदमियों में हैं जिनका आदर इसलिए होता है कि लोग उनसे डरते हैं। उन्हें देख कर सभी आदमी आइए, आइए, करते हैं, लेकिन उनके पीठ फेरते ही कहते हैं – बड़ा ही मूजी आदमी है, इसके काटे का मंत्र नहीं। उनका पेशा है मुकदमे बनाना। जैसे कवि एक कल्पना पर पूरा काव्य लिख डालता है, उसी तरह सिन्हा साहब भी कल्पना पर मुकदमों की सृष्टि कर डालते हैं। न जाने वह कवि क्यों नहीं हुए। मगर कवि हो कर वह साहित्य की चाहे जितनी वृद्धि कर सकते, अपना कुछ उपकार न कर सकते। कानून की उपासना करके उन्हें सभी सिद्धियाँ मिल गई थीं। शानदार बँगले में रहते थे, बड़े-बड़े रईसों और हुक्काम से दोस्ताना था, प्रतिष्ठा भी थी। रोब भी था। कलम में ऐसा जादू था कि मुकदमे में जान डाल देते। ऐसे-ऐसे प्रसंग सोच निकालते, ऐसे-ऐसे चरित्रों की रचना करते कि कल्पना सजीव हो जाती थी। बड़े-बड़े घाघ जज भी उसकी तह तक न पहुँच सकते। सब कुछ इतना स्वाभाविक, इतना संबद्ध होता था कि उस पर मिथ्या का भ्रम तक न हो सकता था। वह संतकुमार के साथ के पढ़े हुए थे। दोनों में गहरी दोस्ती थी। संतकुमार के मन में एक भावना उठी और सिन्हा ने उसमे रंगरूप भर कर जीता-जागता पुतला खड़ा कर दिया और आज मुकदमा दायर करने का निश्चय किया जा रहा है।
नौ बजे होंगे। वकील और मुवक्किल कचहरी जाने की तैयारी कर रहे हैं। सिन्हा अपने सजे कमरे में मेज पर टाँग फैलाए लेटे हुए हैं। गोरे-चिट्टे आदमी, ऊँचा कद, एकहरा बदन, बड़े-बड़े बाल पीछे को कंघी से ऐंचे हुए, मूँछें साफ, आँखों पर ऐनक, ओठों पर सिगार, चेहरे पर प्रतिभा का प्रकाश, आँखों में अभिमान, ऐसा जान पड़ता है कोई बड़ा रईस है। संतकुमार नीची अचकन पहने, फेल्ट कैप लगाए कुछ चिंतित-से बैठे हैं।
सिन्हा ने आश्वासन दिया – तुम नाहक डरते हो। मैं कहता हूँ हमारी फतेह है। ऐसी सैकड़ों नजीरें मौजूद हैं जिसमें बेटों-पोतों ने बैनामे मंसूख कराए हैं। पक्की शहादत चाहिए और उसे जमा करना बाएँ हाथ का खेल है।
संत कुमार ने दुविधा में पड़ कर कहा – लेकिन फादर को भी तो राजी करना होगा। उनकी इच्छा के बिना तो कुछ न हो सकेगा।
– उन्हें सीधा करना तुम्हारा काम है।
– लेकिन उनका सीधा होना मुश्किल है।
– तो उन्हें भी गोली मारो। हम साबित करेंगे कि उनके दिमाग मे खलल है।
– यह साबित करना आसान नहीं है। जिसने बड़ी-बड़ी किताबें लिख डालीं, जो सभ्य समाज का नेता समझा जाता है, जिसकी अक्लमंदी को सारा शहर मानता है, उसे दीवाना कैसे साबित करोगे?
सिन्हा ने विश्वासपूर्ण भाव से कहा – यह सब मैं देख लूँगा। किताब लिखना और बात है, होश-हवास का ठीक रहना और बात। मैं तो कहता हूँ, जितने लेखक हैं, सभी सनकी हैं – पूरे पागल, जो महज वाह-वाह के लिए यह पेशा मोल लेते हैं। अगर यह लोग अपने होश मे हों तो किताबें न लिख कर दलाली करें, या खोंचे लगाएँ। यहाँ कुछ तो मेहनत का मुआवजा मिलेगा। पुस्तकें लिख कर तो बदहजमी, अनिद्रा, तपेदिक ही हाथ लगता है। रुपए का जुगाड़ तुम करते जाओ, बाकी सारा काम मुझ पर छोड़ दो। और हाँ, आज शाम को क्लब में जरूर आना। अभी से कैंपेन (मुहासिरा) शुरू देना चाहिए। तिब्बी पर डोरे डालना शुरू करो। यह समझ लो, वह सब-जज साहब की अकेली लड़की है और उस पर अपना रंग जमा दो तो तुम्हारी गोटी लाल है। सब-जज साहब तिब्बी की बात कभी नहीं टाल सकते। मैं यह मरहला करने में तुमसे ज्यादा कुशल हूँ। मगर मैं एक खून के मुआमले में पैरवी कर रहा हूँ और सिविल सर्जन मिस्टर कामत की वह पीले मुँहवाली छोकरी आजकल मेरी प्रेमिका है। सिविल सर्जन मेरी इतनी आवभगत करते हैं कि कुछ न पूछो। उस चुड़ैल से शादी करने पर आज तक कोई राजी न हुआ। इतने मोटे ओठ हैं और सीना तो जैसे झुका हुआ सायबान हो। फिर भी आपको दावा है कि मुझसे ज्यादा रूपवती संसार में न होगी। औरतों को अपने रूप का घमंड कैसे हो जाता है, यह मैं आज तक न समझ सका। जो रूपवान हैं वह घमंड करे तो वाजिब है, लेकिन जिसकी सूरत देख कर कै आए, वह कैसे अपने को अप्सरा समझ लेती है। उसके पीछे-पीछे घूमते और आशिकी करते जी तो जलता है, मगर गहरी रकम हाथ लगनेवाली है, कुछ तपस्या तो करनी ही पड़ेगी। तिब्बी तो सचमुच अप्सरा है और चंचल भी। जरा मुश्किल से काबू में आएगी। अपनी सारी कला खर्च करनी पड़ेगी।
– यह कला मैं खूब सीख चुका हूँ
– तो आज शाम को आना क्लब में।
– जरूर आऊँगा।
– रुपए का प्रबंध भी करना।
– वह तो करना ही पड़ेगा।
इस तरह संतकुमार और सिन्हा दोनों ने मुहासिरा डालना शुरू किया। संतकुमार न लंपट था, न रसिक, मगर अभिनय करना जानता था। रूपवान भी था, जबान का मीठा भी, दोहरा शरीर, हँसमुख और जहीन चेहरा, गोरा-चिट्टा। जब सूट पहन कर छड़ी घुमाता हुआ निकलता तो आँखों में खुब जाता था। टेनिस, ब्रिज आदि फैशनेबल खेलों में निपुण था ही, तिब्बी से राह-रस्म पैदा करने में उसे देर न लगी। तिब्बी यूनिवर्सिटी के पहले साल में थी, बहुत ही तेज, बहुत ही मगरूर, बड़ी हाजिरजवाब। उसे स्वाध्याय का शौक न था, बहुत थोड़ा पढ़ती थी, मगर संसार की गति से वाकिफ थी, और अपनी ऊपरी जानकारी को विद्वत्ता का रूप देना जानती थी। कोई विषय उठाइए, चाहे वह घोर विज्ञान ही क्यों न हो, उस पर भी वह कुछ-न-कुछ आलोचना कर सकती थी। कोई मौलिक बात कहने का उसे शौक था और प्रांजल भाषा में। मिजाज में नफासत इतनी थी कि सलीके या तमीज की जरा भी कमी उसे असह्य थी। उसके यहाँ कोई नौकर या नौकरानी न ठहरने पाती थी। दूसरों पर कड़ी आलोचना करने में उसे आनंद आता था, और उसकी निगाह इतनी तेज थी कि किसी स्त्री या पुरुष में जरा भी कुरुचि या भोंडापन देख कर वह भौंहों से या ओठों से अपना मनोभाव प्रकट कर देती थी। महिलाओं के समाज में उसकी निगाह उनके वस्त्राभूषण पर रहती थी और पुरुष-समाज में उनकी मनोवृत्ति की ओर। उसे अपने अद्वितीय रूप-लावण्य का ज्ञान था और वह अच्छे-से पहनावे से उसे और भी चमकाती थी। जेवरों से उसे विशेष रुचि न थी, यद्यपि अपने सिंगारदान में उन्हें चमकते देख कर उसे हर्ष होता था। दिन में कितनी ही बार वह नए-नए रूप धरती थी। कभी बैतालियों का भेस धारण कर लेती थी, कभी गुजरियों का, कभी स्कर्ट और मोजे पहन लेती थी। मगर उसके मन में पुरुषों को आकर्षित करने का जरा भी भाव न था। वह स्वयं अपने रूप में मग्न थी।
मगर इसके साथ ही वह सरल न थी और युवकों के मुख से अनुराग-भरी बातें सुन कर वह वैसी ही ठंडी ही रहती थी। इस व्यापार में साधारण रूप-प्रशंसा के सिवा उसके लिए और कोई महत्व न था। और युवक किसी तरह प्रोत्साहन न पा कर निराश हो जाते थे, मगर संतकुमार की रसिकता में उसे अंतःज्ञान से कुछ रहस्य, कुछ कुशलता का आभास मिला। अन्य युवकों में उसने जो असंयम, जो उग्रता, जो विह्वलता देखी थी उसका यहाँ नाम भी न था। संत कुमार के प्रत्येक व्यवहार में संयम था, विधान था, सचेतता थी। इसलिए वह उनसे सतर्क रहती थी और उनके मनोरहस्यों को पढ़ने की चेष्टा करती थी। संतकुमार का संयम और विचारशीलता ही उसे अपनी जटिलता के कारण अपनी ओर खींचती थी। संतकुमार ने उसके सामने अपने को अनमेल विवाह के एक शिकार के रूप में पेश किया था और उसे उनसे कुछ हमदर्दी हो गई थी। पुष्पा के रंग-रूप की उन्होंने इतनी प्रशंसा की थी, जितनी उनको अपने मतलब के लिए जरूरी मालूम हुई, मगर जिसका तिब्बी से कोई मुकाबला न था। उसने केवल पुष्पा के फूहड़पन, बेवकूफी, असहृदयता और निष्ठुरता की शिकायत की थी, और तिब्बी पर इतना प्रभाव जमा लिया था कि वह पुष्पा को देख पाती तो संतकुमार का पक्ष ले कर उससे लड़ती
एक दिन उसने संत कुमार से कहा – तुम उसे छोड़ क्यों नहीं देते?
संतकुमार ने हसरत के साथ कहा – छोड़ कैसे दूँ मिस त्रिवेणी, समाज में रह कर समाज के कानून तो मानने ही पड़ेंगे। फिर पुष्पा का इसमें क्या कसूर है? उसने तो अपने आपको नहीं बनाया। ईश्वर ने या संस्कारों ने या परिस्थितियों ने जैसा बनाया वैसी बन गई।
– मुझे ऐसे आदमियों से जरा भी सहानुभूति नहीं जो ढोल को इसलिए पीटें कि वह गले पड गई है। मैं चाहती हूँ वह ढोल को गले से निकाल कर किसी खंदक में फेंक दें। मेरा बस चले तो मैं खुद उसे निकाल कर फेंक दूँ।
संतकुमार ने अपना जादू चलते हुए देख कर मन में प्रसन्न हो कर कहा – लेकिन उसकी क्या हालत होगी, यह तो सोचो।
तिब्बी अधीर हो कर बोली – तुम्हें यह सोचने की जरूरत ही क्या है? अपने घर चली जाएगी, या कोई काम करने लगेगी या अपने स्वभाव के किसी आदमी से विवाह कर लेगी।
संत कुमार ने कहकहा मारा – तिब्बी यथार्थ और कल्पना में भेद भी नहीं समझती, कितनी भोली है।
फिर उदारता के भाव से बोले – यह बड़ा टेढ़ा सवाल है, कुमारी जी। समाज की नीति कहती है कि चाहे पुष्पा को देख कर रोज मेरा खून ही क्यों न जलता रहे और एक दिन मैं इसी शोक में अपना गला क्यों न काट लूँ, लेकिन उससे कुछ नहीं हो सकता, छोड़ना तो असंभव है। केवल एक ही ऐसा आक्षेप है जिस पर मैं उसे छोड़ सकता हूँ, यानी उसकी बेवफाई। लेकिन पुष्पा में और चाहे जितने दोष हों यह दोष नहीं है।
संध्या हो गई थी। तिब्बी ने नौकर को बुला कर बाग में गोल चबूतरे पर कुरसियाँ रखने को कहा और बाहर निकल आई। नौकर ने कुरसियाँ निकाल कर रख दीं, और मानो यह काम समाप्त करके जाने को हुआ।
तिब्बी ने डाँट कर कहा – कुरसियाँ साफ क्यों नहीं कीं? देखता नहीं उन पर कितनी गर्द पड़ी हुई है? मैं तुझसे कितनी बार कह चुकी, मगर तुझे याद ही नहीं रहती। बिना जुर्माना किए तुझे याद न आएगी।
नौकर ने कुरसियाँ पोंछ-पोंछ कर साफ कर दीं और फिर जाने को हुआ।
तिब्बी ने फिर डाँटा – तू बार-बार भागता क्यों है? मेजें रख दीं? टी-टेबल क्यों नहीं लाया? चाय क्या तेरे सिर पर पिएँगे?
उसने बूढ़े नौकर के दोनों कान गर्मा दिए और धक्का दे कर बोली – बिलकुल गावदी है, निरा पोंगा, जैसे दिमाग में गोबर भरा हुआ है।
बूढ़ा नौकर बहुत दिनों का था। स्वामिनी उसे बहुत मानती थीं। उनके देहांत होने के बाद उसे कोई विशेष प्रलोभन न था, क्योंकि इससे एक-दो रुपया ज्यादा वेतन पर उसे नौकरी मिल सकती थी, पर स्वामिनी के प्रति उसे जो श्रद्धा थी वह उसे इस घर से बाँधे हुए थी। और यहाँ अनादर और अपमान सब कुछ सह कर भी वह चिपटा हुआ था। सब-जज साहब भी उसे डाँटते रहते थे, पर उनके डाँटने का उसे दुख न होता था। वह उम्र में उसके जोड़ के थे। लेकिन त्रिवेणी को तो उसने गोद खिलाया था। अब वही तिब्बी उसे डाँटती थी और मारती भी थी। इससे उसके शरीर को जितनी चोट लगती थी उससे कहीं ज्यादा उसके आत्माभिमान को लगती थी। उसने केवल दो घरों में नौकरी की थी। दोनों ही घरों में लड़कियाँ भी थीं, बहुएँ भी थीं। सब उसका आदर करती थीं। बहुएँ तो उससे लजाती थीं। अगर उससे कोई बात बिगड़ भी जाती तो मन में रख लेती थीं। उसकी स्वामिनी तो आदर्श महिला थी। उसे कभी कुछ न कहा। बाबू जी कभी कुछ कहते तो उसका पक्ष ले कर उनसे लड़ती थी। और यह लड़की बड़े-छोटे का जरा भी लिहाज नहीं करती। लोग कहते हैं पढ़ने से अक्ल आती है। यही है वह अक्ल। उसके मन में विद्रोह का भाव उठा – क्यों यह अपमान सहे? जो लड़की उसकी अपनी लड़की से भी छोटी हो, उसके हाथों क्यों अपनी मूँछें नुचवाए? अवस्था में भी अभिमान होता है जो संचित धन के अभिमान से कम नहीं होता। वह सम्मान और प्रतिष्ठा को अपना अधिकार समझता है, और उसकी जगह अपमान पा कर मर्माहत हो जाता है।
घूरे ने टी-टेबल ला कर रख दी, पर आँखों में विद्रोह भरे हुए था।
तिब्बी ने कहा – जा कर बैरा से कह दो, दो प्याले चाय दे जाए।
घूरे चला गया और बैरा को यह हुक्म सुना कर अपनी एकांत कुटी में जा कर खूब रोया आज स्वामिनी होती तो उसका अनादर क्यों होता।
बैरा ने चाय मेज पर रख दी। तिब्बी ने प्याली संतकुमार को दी और विनोद भाव से बोली – तो अब मालूम हुआ कि औरतें ही पतिव्रता नहीं होतीं, मर्द भी पत्नीव्रत वाले होते हैं।
संतकुमार ने एक घूँट पी कर कहा – कम-से-कम इसका स्वाँग तो करते ही हैं।
– मैं इसे नैतिक दुर्बलता कहती हूँ। जिसे प्यारा कहो, दिल से प्यारा कहो, नहीं प्रकट हो जाए। मैं विवाह को प्रेमबंधन के रूप में देख सकती हूँ, धर्मबंधन या रिवाज बंधन तो मेरे लिए असह्य हो जाए।
– उस पर भी तो पुरुषों पर आक्षेप किए जाते हैं।
तिब्बी चौंकी। यह जातिगत प्रश्न हुआ जा रहा है।
अब उसे अपनी जाति का पक्ष लेना पड़ेगा – तो क्या आप मुझसे यह मनवाना चाहते हैं कि सभी पुरुष देवता होते हैं? आप भी जो वफादारी कर रहे हैं वह दिल से नहीं, केवल लोकनिंदा के भय से। मैं इसे वफादारी नहीं कहती। बिच्छू के डंक तोड़ कर आप उसे बिलकुल निरीह बना सकते हैं, लेकिन इससे बिच्छुओं का जहरीलापन तो नहीं जाता।
संतकुमार ने अपनी हार मानते हुए कहा – अगर मैं भी यही कहूँ कि अधिकतर नारियों का पतिव्रत भी लोकनिंदा का भय है तो आप क्या कहेंगी?
तिब्बी ने प्याला मेज पर रखते हुए कहा – मैं इसे कभी न स्वीकार करूँगी।
क्यों?
– इसलिए कि मर्दों ने स्त्रियों के लिए और कोई आश्रय छोड़ा ही नहीं। पतिव्रत उनके अंदर इतना कूट-कूट कर भरा गया है कि अब अपना व्यक्तित्व रहा ही नहीं। वह केवल पुरुष के आधार पर जी सकती है, उसका स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं। बिन ब्याहा पुरुष चैन से खाता है, विहार करता है और मूँछों पर ताव देता है। बिन ब्याही स्त्री रोती है, कलपती है और अपने को संसार का सबसे अभागा प्राणी समझती है। यह सारा मर्दों का अपराध है। आप भी पुष्पा को नहीं छोड़ रहे हैं, इसीलिए न कि आप पुरुष हैं जो कैदी को आजाद नहीं करना चाहता!
संतकुमार ने कातर स्वर में कहा – आप मेरे साथ बेइंसाफी करती हैं। मैं पुष्पा को इसलिए नहीं छोड़ रहा हूँ कि मैं उसका जीवन नष्ट नहीं करना चाहता। अगर मैं आज उसे छोड़ दूँ तो शायद औरों के साथ आप भी मेरा तिरस्कार करेंगी।
तिब्बी मुस्कराई – मेरी तरफ से आप निश्चिंत रहिए। मगर एक ही क्षण के बाद उसने गंभीर हो कर कहा – लेकिन मैं आपकी कठिनाइयों का अनुमान कर सकती हूँ।
– मुझे आपके मुँह से ये शब्द सुन कर कितना संतोष हुआ। मैं वास्तव में आपकी दया का पात्र हूँ और शायद कभी मुझे इसकी जरूरत पड़े।
- आपके ऊपर मुझे सचमुच दया आती है। क्यों न एक दिन उनसे किसी तरह मेरी मुलाकात करा दीजिए। शायद मैं उन्हें रास्ते पर ला सकूँ
संत कुमार ने ऐसा लंबा मुँह बनाया जैसे इस प्रस्ताव से उसके मर्म पर चोट लगी है।
- उसका रास्ते पर आना असंभव है, मिस त्रिवेणी। वह उलटे आप ही के ऊपर आक्षेप करेगी और आपके विषय में न जाने कैसी दुष्कल्पनाएँ कर बैठेगी। और मेरा तो घर में रहना मुश्किल हो जाएगा।
तिब्बी का साहसिक मन गर्म हो उठा – तब तो मैं उससे जरूर मिलूँगी।
– तो शायद आप यहाँ भी मेरे लिए दरवाजा बंद कर देंगी।
– ऐसा क्यों?
– बहुत मुमकिन है वह आपकी साहनुभूति पा जाए और आप उसकी हिमायत करने लगें।
– तो क्या आप चाहते हैं मैं आपको एकतरफा डिग्री दे दूँ?
– मैं केवल आपकी दया और हमदर्दी चाहता हूँ, आपसे अपनी मनोव्यथा कह कर दिल का बोझ हलका करना चाहता हूँ। उसे मालूम हो जाए कि मैं आपके यहाँ आता-जाता हूँ तो एक नया किस्सा खड़ा कर दे।
तिब्बी ने सीधे व्यंग्य किया – तो आप उससे इतना डरते क्यों हैं? डरना तो मुझे चाहिए।
संत कुमार ने और गहरे में जा कर कहा – मै आपके लिए ही डरता हूँ, अपने लिए नहीं।
तिब्बी निर्भयता से बोली – जी नहीं, आप मेरे लिए न डरिए।
– मेरे जीते जी, मेरे पीछे, आप पर कोई शुबहा हो यह मैं नहीं देख सकता।
– आपको मालूम है मुझे भावुकता पसंद नहीं?
– यह भावुकता नहीं, मन के सच्चे भाव हैं।
– मैंने सच्चे भाववाले युवक बहुत कम देखे।
– दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं।
– अधिकतर शिकारी किस्म के। स्त्रियों में तो वेश्याएँ ही शिकारी होती हैं, पुरुषों में तो सिरे से सभी शिकारी होते हैं।
– जी नहीं, उनमें अपवाद भी बहुत हैं।
– स्त्री रूप नहीं देखती। पुरुष जब गिरेगा रूप पर। इसीलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मेरे यहाँ कितने ही रूप के उपासक आते हैं। शायद इस वक्त भी कोई साहब आ रहे हों। मैं रूपवती हूँ, इसमें नम्रता का कोई प्रश्न नहीं। मगर मैं नहीं चाहती कोई मुझे केवल रूप के लिए चाहे।
संत कुमार ने धड़कते हुए मन से कहा – आप उनमें मेरा तो शुमार नहीं करतीं?
तिब्बी ने तत्परता के साथ कहा – आपको तो मैं अपने चाहनेवालों में समझती ही नहीं।
संतकुमार ने माथा झुका कर कहा – यह मेरा दुर्भाग्य है।
– आप दिल से नहीं कह रहे हैं, मुझे कुछ ऐसा लगता है कि आपका मन नहीं पाती। आप उन आदमियों में हैं जो हमेशा रहस्य रहते हैं।
– यही तो मैं आपके विषय में सोचा करता हूँ
– मैं रहस्य नहीं हूँ। मैं तो साफ कहती हूँ मैं ऐसे मनुष्य की खोज में हूँ, जो मेरे हृदय में सोये हुए प्रेम को जगा दे। हाँ, वह बहुत नीचे गहराई में है, और उसी को मिलेगा जो गहरे पानी में डूबना जानता हो। आपमें मैंने कभी उसके लिए बैचेनी नहीं पाई। मैंने अब तक जीवन का रोशन पहलू ही देखा है। और उससे ऊब गई हूँ। अब जीवन का अँधेरा पहलू देखना चाहती हूँ, जहाँ त्याग है, रुदन है, उत्सर्ग है। संभव है उस जीवन से मुझे बहुत जल्द घृणा हो जाए, लेकिन मेरी आत्मा यह नहीं स्वीकार करना चाहती कि वह किसी ऊँचे ओहदे की गुलामी या कानूनी धोखेधड़ी या व्यापार के नाम से की जानेवाली लूट को अपने जीवन का आधार बनाए। श्रम और त्याग का जीवन ही मुझे तथ्य जान पड़ता है। आज जो समाज और देश की दूषित अवस्था है उससे असहयोग करना मेरे लिए जुनून से कम नहीं है। मैं कभी-कभी अपने ही से घृणा करने लगती हूँ। बाबू जी को एक हजार रुपए अपने छोटे-से परिवार के लिए लेने का क्या हक है और मुझे बे-काम-धंधे इतने आराम से रहने का क्या अधिकार है? मगर यह सब समझ कर भी मुझ में कर्म करने की शक्ति नहीं है। इस भोग-विलास के जीवन ने मुझे भी कर्महीन बना डाला है। और मेरे मिजाज में अमीरी कितनी है यह भी आपने देखा होगा। मेरे मुँह से बात निकलते ही अगर पूरी न हो जाए तो मैं बावली हो जाती हूँ। बुद्धि का मन पर कोई नियंत्रण नहीं है। जैसे शराबी बार-बार हराम करने पर शराब नहीं छोड़ सकता वही दशा मेरी है। उसी की भाँति मेरी इच्छाशक्ति बेजान हो गई है।
तिब्बी के प्रतिभावान मुख-मंडल पर प्राय: चंचलता झलकती रहती थी। उससे दिल की बात कहते संकोच होता था, क्योंकि शंका होती थी कि वह सहानुभूति के साथ सुनने के बदले फब्तियाँ कसने लगेगी। पर इस वक्त ऐसा जान पड़ा उसकी आत्मा बोल रही है। उसकी आँखें आर्द्र हो गई थीं। मुख पर एक निश्चिंत नम्रता और कोमलता खिल उठी थी। संतकुमार ने देखा उनका संयम फिसलता जा रहा है। जैसे किसी सायल ने बहुत देर के बाद दाता को मनगुर देख पाया हो और अपना मतलब कह सुनाने के लिए अधीर हो गया हो।
बोला – कितनी ही बार। बिलकुल यही मेरे विचार हैं। मैं आपसे उससे बहुत निकट हूँ, जितना समझता था।
तिब्बी प्रसन्न हो कर बोली – आपने मुझे कभी बताया नहीं।
– आप भी तो आज ही खुली हैं।
– मैं डरती हूँ कि लोग यही कहेंगे आप इतनी शान से रहती हैं, और बातें ऐसी करती हैं। अगर कोई ऐसी तरकीब होती जिससे मेरी यह अमीराना आदतें छूट जातीं तो मैं उसे जरूर काम में लाती। इस विषय की आपके पास कुछ पुस्तकें हों तो मुझे दीजिए। मुझे आप अपनी शिष्या बना लीजिए।
संतकुमार ने रसिक भाव से कहा – मैं तो आपका शिष्य होने जा रहा था। और उसकी ओर मर्मभरी आँखों से देखा।
तिब्बी ने आँखें नीची नहीं कीं। उनका हाथ पकड़ कर बोली – आप तो दिल्लगी करते हैं। मुझे ऐसा बना दीजिए कि मैं संकटों का सामना कर सकूँ। मुझे बार-बार खटकता है अगर मैं स्त्री न होती तो मेरा मन इतना दुर्बल न होता।
और जैसे वह आज संतकुमार से कुछ भी छिपाना, कुछ भी बचाना नहीं चाहती। मानो वह जो आश्रय बहुत दिनों से ढूँढ़ रही थी वह एकाएक मिल गया है।
संत कुमार ने रुखाई भरे स्वर में कहा – स्त्रियाँ पुरुषों से ज्यादा दिलेर होती हैं, मिस त्रिवेणी।
– अच्छा, आपका मन नहीं चाहता कि बस हो तो संसार की सारी व्यवस्था बदल डालें?
इस विशुद्ध मन से निकले हुए प्रश्न का बनावटी जवाब देते हुए संतकुमार का हृदय काँप उठा।
– कुछ न पूछो। बस आदमी एक आह खींच कर रह जाता है।
– मैं तो अक्सर रातों को यह प्रश्न सोचते-सोचते सो जाती हूँ और वही स्वप्न देखती हूँ। देखिए दुनियावाले कितने खुदगर्ज हैं। जिस व्यवस्था से सारे समाज का उद्धार हो सकता है वह थोड़े-से आदमियों के स्वार्थ के कारण दबी पड़ी हुई है।
संतकुमार ने उतरे हुए मुख से कहा – उसका समय आ रहा है और उठ खड़े हुए। यहाँ की वायु में उनका जैसे दम घुटने लगा था। उनका कपटी मन इस निष्कपट, सरल वातावरण में अपनी अधमता के ज्ञान से दबा जा रहा था जैसे किसी धर्मनिष्ठ मन में अधर्म विचार घुस तो गया हो पर वह कोई आश्रय न पा रहा हो
तिब्बी ने आग्रह किया – कुछ देर और बैठिए न?
– आज आज्ञा दीजिए, फिर कभी आऊँगा
– कब आइएगा?
– जल्द ही आऊँगा।
– काश, मैं आपका जीवन सुखी बना सकती।
संत कुमार बरामदे से कूद कर नीचे उतरे और तेजी से हाते के बाहर चले गए। तिब्बी बरामदे में खड़ी उन्हें अनुरक्त नेत्रों से देखती रही। वह कठोर थी, चंचल थी, दुर्लभ थी, रूपगर्विता थी, चतुर थी, किसी को कुछ समझती न थी, न कोई उसे प्रेम का स्वाँग भर कर ठग सकता था, पर जैसे कितनी ही वेश्याओं में सारी आसक्तियों के बीच में भक्ति-भावना छिपी रहती है, उसी तरह उसके मन में भी सारे अविश्वास के बीच में कोमल, सहमा हुआ, विश्वास छिपा बैठा था और उसे स्पर्श करने की कला जिसे आती हो वह उसे बेवकूफ बना सकता था। उस कोमल भाग का स्पर्श होते ही वह सीधी-सादी, सरल विश्वासमयी, कातर बालिका बन जाती थी। आज इत्तफाक से संतकुमार ने वह आसन पा लिया था और अब वह जिस तरफ चाहे उसे ले जा सकता है, मानो वह मेस्मराइज हो गई थी। संतकुमार में उसे कोई दोष नहीं नजर आता। अभागिनी पुष्पा इस सत्यपुरुष का जीवन कैसा नष्ट किए डालती है। इन्हें तो ऐसी संगिनी चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करे, हमेशा इनके पीछे-पीछे रहे। पुष्पा नहीं जानती वह इनके जीवन का राहु बन कर समाज का कितना अनिष्ट कर रही है और इतने पर भी संतकुमार का उसे गले बाँधे रखना देवत्व से कम नहीं। उनकी वह कौन-सी सेवा करे, कैसे उनका जीवन सुखी करे। 

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रचनाएँ
मंगलसूत्र
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प्रेमचंद द्वारा लिखित 'मंगलसूत्र' उपन्यास उनका अपूर्ण उपन्यास है। 1936 ई. में अपने अंतिम दिनों में प्रेमचंद 'मंगलसूत्र' उपन्यास लिख रहे थे किंतु वे उसे पूर्ण न सके। इस उपन्यास का अंतिम रूप क्या होता, यह तो कहना कठिन है तो भी ऐसी प्रतीत होता है कि वे इसकी रचना आत्मकथात्मक रूप में करना चाहते थे।
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मंगलसूत्र

8 फरवरी 2022
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1 बड़े बेटे संतकुमार को वकील बना कर, छोटे बेटे साधुकुमार को बी.ए. की डिग्री दिला कर और छोटी लड़की पंकजा के विवाह के लिए स्त्री के हाथों में पाँच हजार रुपए नकद रख कर देवकुमार ने समझ लिया कि वह जीवन के

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संत कुमार की स्त्री पुष्पा बिल्कुल फूल-सी है, सुंदर, नाजुक, हलकी-फुलकी, लजाधुर, लेकिन एक नंबर की आत्माभिमानिनी है। एक-एक बात के लिए वह कई-कई दिन रूठी रह सकती है। और उसका रूठना भी सर्वथा नई डिजाइन का ह

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मि. सिन्हा उन आदमियों में हैं जिनका आदर इसलिए होता है कि लोग उनसे डरते हैं। उन्हें देख कर सभी आदमी आइए, आइए, करते हैं, लेकिन उनके पीठ फेरते ही कहते हैं – बड़ा ही मूजी आदमी है, इसके काटे का मंत्र नहीं।

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संतकुमार यहाँ से चले तो उनका हृदय आकाश में था। इतनी जल्दी देवी से उन्हें वरदान मिलेगा इसकी उन्होंने आशा न की थी। कुछ तकदीर ने ही जोर मारा, नहीं तो जो युवती अच्छे-अच्छों को उँगलियों पर नचाती है, उन पर

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