जगत का निर्माण करने वाले विधाता ने बार एक मनुष्य को अपने पास
बुलाकर पूंछा वत्स तुम क्या चाहते हो ? मनुष्य ने कहा मैं उन्नति
करना चाहता हूँ, सुख -शांति चाहता हूँ, और चाहता हूँ, सब लोग मेरा
गुणगान करें ! विधाता ने मनुष्य के सामने दो गठरियां रख दीं और
बोले इन गठरियों को ले लो ! इनमे से एक गठरी में तुम्हारे पडोसी की
बुराइयां भरी हैं ! उसे पीठ पर लाद लो ! इसे हमेशा बंद ही रखना !
इसे ना तो तुम देखना ना ही दूसरों को कभी दिखाना ! दुसरी गठरी में
तुम्हारी खुद की बुराइयां भरी हैं ! इसे अपने सामने लटका लो और
बार-बार खोलकर देखते रहना !
मनुष्य ने दोनों गठरियां उठा लीं ! लेकिन उससे एक भूल हो गई ! उसने
अपनी बुराइयों की गठरी को तो पीठ पर लाद लिया और उसका मुंह
कस कर बंद कर दिया ! और अपने पडोसी की बुराइयों से भरी गठरी को
अपने सामने लटका लिया ! उस गठरी का मुंह खोल कर वह बार-बार
देखता रहता और दूसरों को भी दिखाता रहता ! परिणाम यह हुआ की
विधाता के दिए हुए वरदान भी उलटे हो गए ! मनुष्य अवनति करने लगा
लेकिन अब क्या हो सकता था ! जब तक वह अपनी भूल नहीं सुधारता
परिणाम सुखद कैसे हो सकते थे ? आज हमारा भी यही हाल है !
हमने भी अपने दोष देखने बंद कर दिए है ! और पड़ोसियों परिचितों के
दोष निकालने में जुट गए है !
परिणाम सामने है ! यदि हम सुख - शांति और आत्म - विकास के मार्ग
पर अग्रसर होना चाहते है, तो हमें विधाता के बताए अनुसार चलना होगा
हमें परदोष दर्शन पर अंकुश लगाना होगा ! और अपने दोषों पर सदा द्रष्टि
जमाए रखनी होगी !!