प्रकृति द्वारा मानवों को निःशुल्क प्रदाय की गयी वस्तुओं को हम प्राकृतिक संसाधन कहते हैं। इनमें भूमि, मिट्टी, जल, वन, खनिज, समुद्री साधन, जलवायु, वर्षा आदि प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं। इन्हें मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अपने पुरुषार्थ के बल पर प्राप्त करता है। प्राकृतिक संसाधनों को दो भागों नवीनीकरण और अनवीनीकरण में बांटा गया है। नवीनीकरण के अंतर्गत वे संसाधन आते हैं, जो लगातार उपयोग के बाद भी समाप्त नहीं होते हैं। इसमें भूमि, वन, जल और मत्स्य आते हैं। जबकि अनवीनीकरण वे संसाधन कहलाते हैं, जो लगातार उपयोग होते रहने से एक दिन समाप्त होने लगते हैं,इनमें खनिज और खनिज तेल आते हैं।
आज पृथ्वी पर मानव आबादी बड़ी तेजी से बढ़ रही है। जिसके कारण प्राकृतिक संसाधनों की निरंतर कमी महसूस की जा रही हैं। चूंकि प्रकृति का क्षेत्र सीमित है और आबादी बढ़ने से संसाधनों की कमी महसूस होने पर उसका दोहन तीव्र गति से हो रहा है, जिसके कारण आज खनिज साधन ही नहीं जल और जमीन जैसे नवीकरणीय संसाधनों के लगातर उच्च स्तर पर दोहन होने से उनके लुप्त होने की गंभीर समस्या खड़ी होती जा रही है। विस्फोटक जनसँख्या वृद्धि के कारण आवास, कपड़े और भोजन की पूर्ति के लिए कृषि और वन सम्पदा का अंधाधुंध दोहन होने से प्रकृति सिकुड़ती जा रही है। औद्योगिक क्षेत्र में खनिजों के बड़े पैमाने पर दोहन बढ़ने से गैस, तांबा और जस्ता जैसे खनिजों की उपलब्धता की कमी में निरंतर गंभीर चिंताजनक स्थिति बनती जा रही है। अनुमान है कि वर्तमान सदी के दौरान एल्युमीनियम, कोयला और लोहे में सामान में भारी गिरावट आएगी। तेल जो कि आज की वैश्विक औद्योगिक अर्थव्यवस्था के लिए मूलभूत आवश्यकता है, उसके भी जल्द ही समाप्त होने का अनुमान लगाया जा है।
वर्तमान समय में विकास के नाम पर प्रकृति का बेहिसाब दोहन किया जा रहा है, जिससे इन संसाधनों के स्रोत समाप्त होते जाने से कई तरह के प्रदूषण और उससे जनित बीमारियों में वृद्धि के साथ ही सूखा पड़ने, बाढ़ की स्थिति, मरुस्थलों का विस्तार, प्राकृतिक असन्तुलन जैसी विभिन्न समस्याएँ भी अपने पैर पसार रही हैं। प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण विदोहन का परिणाम कितना गम्भीर है, इसे मौसम के उलट-फेर और आपदाओं की संख्या में वृद्धि से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। इसके प्रत्यक्ष उदाहरण वर्ष २०११ में जापान में आई सुनामी और भूकम्प के साथ ही वर्ष २०१३ में हमारे उत्तराखंड के केदारनाथ आपदा में मची तबाही एवं जान-माल की हानि को भला कौन भुला सकता है। लेकिन आज भी हम जानते-बूझते भी इस गंभीर समस्या के प्रति उदासीन होकर उसकी अवहेलना करते जा रहे हैं, जिसके विनाशकारी परिणाम हमें ही भुगतने पड़ रहे हैं। विकास की विभिन्न गतिविधियों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वैश्विक स्तर पर वनों का निरन्तर विनाश जारी है, जिसके मिट्टी के कटाव में वृद्धि हो रही है। दुनिया में जनसँख्या बढ़ने से अन्न का उत्पादन बढ़ाने के लिये आज बड़े पैमाने पर रासायनिक खाद का प्रयोग बढ़ने से प्रदूषण भी में वृद्धि हो रही है, जो स्वास्थ्य के लिए बड़ा हानिकारक सिद्ध हो रहा है। प्राकृतिक संसाधनों और प्रकृति-प्रदत्त सम्पदा की सुरक्षा में ही मानव जाति का कल्याण निहित है इसलिए प्राकृतिक सम्पदा की लूट की जो प्रवृत्ति में आज सर्वत्र व्याप्त है, उस पर अंकुश लगाने तथा प्रकृति-विरोधी मानसिकता में बदलाव लाने की आज सख्त आवश्यकता है।